मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

केरल यात्रा-6













बड़े-से-बड़ा कलर-इंजिनियर किसी रंग के अगर हजार शेड्स तैयार कर सकता है तो प्रकृति में उसके दस हजार शेड्स पहले से ही मौजूद हैं, इस सत्य का आभास व्यक्ति को प्रकृति के समीप जाए बिना और उसके सान्निध्य में समय बिताये बिना नहीं हो पाता है।





केवल हरा रंग और उसके शेड्स ही मुन्नार में देखने को मिलते हों, ऐसा नहीं है। सूरजमुखी के पुष्पों को जंगली झाड़ियों की तरह नदी के किनारे-किनारे दूर तक जाते, हँसते-खिलखिलाते सबसे पहले हमने मुन्नार में ही देखा। अपने मैदानी इलाकों में तो सूरजमुखी की व्यावसायिक-स्तर पर खेती की जाती है, उस पर पसीना बहाया जाता है, पैसा कमाया जाता है।











लगता है कि अपने चित्रकूट निवास के दिनों में कुछ ऐसे ही दृश्य से अभिभूत भगवान श्रीराम ने सीता से यों कहा था—‘सीते! यद्यपि मैं राज्य से भ्रष्ट हो गया हूँ तथा मुझे अपने हितैषी सुहृदों से विलग होकर रहना पड़ रहा है, तथापि जब मैं इस रमणीय पर्वत की ओर देखता हूँ, तो मेरा सारा दु:ख दूर हो जाता है। …गुफाओं से निकली हुई वायु नाना प्रकार के पुष्पों की प्रचुर गन्ध लेकर नासिका को तृप्त करती हुई किस पुरुष के पास आकर उसका हर्ष नहीं बढ़ा रही है।…यदि तुम्हारे और लक्ष्मण के साथ मैं यहाँ अनेक वर्षों तक रहूँ तो भी नगर-त्याग का शोक मुझे कभी नहीं होगा।





[यहाँ पर मैंने अपने हितैषी मित्र श्रीयुत सुरेश यादव की इस सलाह को कि इन संस्मरणों अथवा यात्रा-विवरणों में विद्वता-प्रदर्शन नहीं होना चाहिए, सम्मान देते हुए सम्बन्धित श्लोकों को उद्धृत न करके उनका मात्र अर्थ ही प्रस्तुत किया है।]