बुधवार, 7 नवंबर 2012

बुजुर्ग तो ‘बी’ सम्बोधन ही देना चहते होंगे/बलराम अग्रवाल

                                                                                                        चित्र:आदित्य अग्रवाल

दोस्तो, बैठे-बैठे एक चर्चा ऐसी कर ली जाय जिसे खाली दिमाग शैतान का घर भी  कह सकते हैं। उर्दू में बेवा शब्द विधवा स्त्री के लिए प्रयुक्त होता है। मुझे इस शब्द में अभिव्यक्ति लाघव नजर आता है। वह यों कि उर्दू में पत्नी के लिए बीवी और सम्मानित अन्य महिलाओं के लिए बी अथवा बीबी शब्द का प्रयोग होता है। मुस्लिम समाज के विद्वान वैयाकरणों और सहृदय शब्दपुरोधाओं ने उस स्त्री के लिए, जो पति की मृत्यु के बाद बीवी कहलाने की हक़दार नहीं रहती, अन्य महिलाओं जैसा सम्मानजनक सम्बोधन देने पर विचार किया होगा। निश्चित रूप से अलग-अलग मत सामने आये होंगे जिनमें उसे पुन: बी सम्बोधन देने जैसा प्रस्ताव भी अवश्य आया होगा। तब विरोध का स्वर इस रूप में उभरा होगा कि अन्य स्त्रियों से इस स्त्री की वैवाहिक स्थिति के अलगाव का कैसे पता चलेगा? तय हुआ होगा कि इस अलगाव को बनाए रखने के लिए उस स्त्री (बीवी) के वाउ को ‘बे-वाउ कर सम्बोधित किया जाये तो कोई दुविधा नहीं रहेगी। इसलिए ऐसी स्त्री के लिए बीबे-वाउ शब्द तय हुआ लेकिन सम्बोधित करने में यह किंचित असुविधाजनक-सा था। अभिव्यक्ति लाघव के कारण इस शब्द में से पहले 'बी' खत्म होकर 'बेवाउ' सामने आया जो आगे चलकर 'बेवा' रह गया। बुजुर्गों ने तो इज्ज़त देने की भरपूर कोशिश की थी, शॉर्टकट की स्वाभाविक मानवीय आदत को क्या कहें!
 

सोमवार, 5 नवंबर 2012

समीक्षा-यादों की लकीरें



उपन्यासकार रूपसिंह चन्देल के संस्मरणों की पुस्तक 'यादों की लकीरें' की समीक्षा 'अपेक्षा' पत्रिका के अप्रैल-जून २०१२ अंक में प्रकाशित हुई है। समीक्षक हैं कवि अशोक आंद्रे।

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

मेरी हस्कल के नाम जिब्रान के कुछ पत्रों के अंश…



खलील जिब्रान
मेरी, सबसे बड़े अचरज की बात तो यह है कि ग़ज़ब की खूबसूरत इस दुनिया में, जो दूसरे इंसानों के लिए अनजानी है, हाथ में हाथ डाले हम हमेशा साथ घूमते हैं। एक-दूसरे के हाथ को पूरा खींचकर हम जीवन से रस खींचते हैंऔर नि:संदेह जीवन हमें वह देता है।
 (जिब्रान द्वारा 22 अक्टूबर 1912 को लिखे एक पत्र का अंश)
कोई व्यक्ति बिना महान हुए आज़ाद हो सकता है, लेकिन आज़ाद हुए बिना कोई भी महान नहीं हो सकता।
(जिब्रान द्वारा 16 मई 1913 को मेरी को लिखे एक पत्र का अंश)
सच्चा संन्यासी घने जंगल में खोजने के लिए जाता हैन कि स्वयं को खोने के लिए।
(जिब्रान द्वारा 8 अक्टूबर 1913 को मेरी को लिखे एक पत्र का अंश)

मेरी हस्कल का पेंसिल स्केच
तुम्हारे साथ, मेरी, आज उसने कहा,घास की एक पत्ती-सा बर्ताव करना चाहता हूँ जो वैसे ही नाचती है जैसे हवा उसे नचाती है। इस पल की नज़ाकत के मुताबिक बात करनी चाहिए। वही करूँगा। 
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 10 जनवरी 1914 से)
खुली सड़कों पर पैदल चलते रहने-जैसा बड़ा काम करना चाहता हूँ। जरा सोचो, मेरी, ऐसे में तूफान आ जाए तो क्या होगा! निर्द्वंद्व गति के माध्यम से जीवन देने वाले महाभूतों को देखने से बेहतर भी कोई दृश्य हो सकता है क्या?
(दिनांक 24 मई 1914 को लिखे एक पत्र का अंश)
अब मैं अपने-आप को तुम्हें सौंप सकता हूँ। दरअसल, किसी दूसरे के हाथों में अपने-आप को आप तभी सौंप सकते हैं जब वह जानता हो कि आप कर क्या रहे हैं। जब उसके दिल में आपके लिए आदर और प्यार हो। वह आपको आपकी आज़ादी दे सकता हो।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 20 जून 1914 से)
काव्य क्या है?दृष्टि की व्यापकता; और संगीत?श्रवण की व्यापकता।
(मेरी हस्कल के जर्नल 20 जून 1914 से)
कभी-कभी तुमने बोलना भी शुरू नहीं किया होता कि मैं पूरी बात समझ जाता हूँ।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 28 जुलाई 1917 से)
ज्ञान यानी पंखदार जीवन।
(दिनांक 15 नवंबर 1917 के एक पत्र का अंश)
तुमने मेरे काम में और व्यक्तित्व निर्माण में मेरी मदद की। मैंने तुम्हारे काम में और व्यक्तित्व निर्माण में तुम्हारी मदद की। मैं शुक्रगुजार हूँ परमात्मा का कि उसने मुझे और तुम्हें बनाया। 
(मेरी हस्कल के जर्नल 12 मार्च 1922 से)
अगर मुझे धूप और गरमाहट पसंद है तो बिजली और तूफान के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 12 मार्च 1922 से)
हृदय की आवाज़ सुनो। हर बड़े काम में वह सच्चा सलाहकार है। मन सीमित है। क्या करना चाहिएइसका निश्चय वह दिव्यशक्ति करती है जो हम-सब में विद्यमान है।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 12 मार्च 1922 से)
 तुम्हारे और मेरे बीच रिश्ता मेरी ज़िंदगी की खूबसूरत घटना है। इससे पहले मैंने कभी ऐसा महसूस नहीं किया। यह दिव्य है।
(मेरी हस्कल के जर्नल 11 सितम्बर 1922 से)
बिशेरी स्थित खलील जिब्रान म्यूजियम में मूर्तिशिल्प
तुम्हें खुश देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। खुशी तुम्हारे लिए आज़ादी का रूप है। जितने भी लोगों को मैं जानता हूँ, उनमें सबसे अधिक आज़ाद तुम्हें होना चाहिए। यह खुशी और यह आज़ादी तुमने खुद पायी है। ज़िंदगी तुम्हें सुख और सुविधा देने वाली नहीं थी लेकिन तुम स्वयं ज़िंदगी को सुख और सुविधा देने वाली बन गई हो।
(जिब्रान के पत्र दिनांक 24 जनवरी 1923 से)
मुझे तुम्हारी खुशी की वैसी ही चिंता है जैसी तुम्हें मेरी खुशी की। अगर तुम्हारा मन शांत नहीं है तो मेरा कैसे रह सकता है।
(दिनांक 23 अप्रैल 1923 को लिखित जिब्रान की डायरी से)
बुद्धिमान लोगों के बीच विवाह का उपयुक्त आधार मित्रता यानी एक-दूसरे की रुचि का ख्याल रखना है। विचार-विमर्श करने की क्षमता है। एक-दूसरे के विचारों और आकांक्षाओं को समझना है।
(मेरी हस्कल के जर्नल 26 मई 1923 से)

आप किसी गाँव में रहें या महानगर में, क्या फर्क पड़ता है? असली ज़िंदगी तो आपके-अपने भीतर है।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 27 मई 1923 से)
विवाह किसी भी व्यक्ति को वह अधिकार नहीं देता जिन्हें वह दूसरे व्यक्ति में नहीं देखना चाहता; और ना ही उससे अलग कोई आज़ादी देता है जितनी वह दूसरे व्यक्ति को देता है।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक  27  मई  1923 से)
पेड़ों पर कलियाँ लदी थीं, चिड़ियाँ चहचहा रही थीं, घास पर ओस थी, सारी धरती जगमगा रही थी। और एकाएक मैं पेड़ों में, फूलों में, चिड़ियों में और घास में तब्दील हो गया—‘मैं का नामोनिशान न रहा।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 23 मई 1924 से)
मैं जितना बोल नहीं पाता हूँ, तुम उससे कहीं ज्यादा सुन लेती हो। तुम अपनी चेतना से सुनती हो। मेरे साथ तुम वहाँ उतर जाती हो जहाँ मेरे शब्द तुम्हें नहीं लेजा सकते।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 5 जून 1924 से)


कोई भी मानवीय रिश्ता दूसरे पर अधिकार का द्योतक नहीं है। हर दूसरा व्यक्ति भिन्न है। दोस्ती में या प्यार में, दोनों समान रूप से उस ओर हाथ बढ़ाते हैं जिस ओर दूसरा कमजोर पड़ता है।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 8 जून 1924 से)


बुधवार, 22 अगस्त 2012

श्रीकृष्ण : पूर्ण पटाक्षेप / बलराम अग्रवाल


श्रीमती कमला देवी
अभी, दस मिनट पहले की बात है। राजेन्द्र जैन जी मिल गये थेश्रीकृष्ण जी के दामाद हैं वे। पहले आँखों ही आँखों में अभिवादन किया, फिर स्कूटर रोककर बोले—“वो भी गईं।
मुझे समझने में देर नहीं लगी कि वह किनके बारे में मुझे बता रहे हैं। चौंककर पूछा,कब?
15 अगस्त को…सुबह साढ़े दस बजे।
सूरज पूरा अस्त हो गया… मेरे मुँह से निकला। यह कहते हुए श्रीमती कमला देवी(धर्मपत्नी श्री श्रीकृष्ण) के हवाले से लिखी मेरी एक टिप्पणी के जवाब में उनके प्रति कहे गए हिन्दी के भद्र(?) समझे जाने वाले एक लेखक के वे अभद्र शब्द भी मेरे जेहन में कड़ुआहट घोल गए जो उन्होंने सिर्फ़ इसलिए कहे थे कि श्रीमती श्रीकृष्ण (यानी श्रीमती कमला देवी) ने कभी उनका कृतघ्न चरित्र उन्हें दिखाने की पहल की थी और आत्ममुग्धताजनित अहंकार के चलते जिस कृतघ्नता को वे आज तक भी नहीं पहचान पाए। श्रीमती श्रीकृष्ण के चले जाने के बाद अपनी ही गाली को वे अब उम्रभर अपने सिर और कंधों पर ढोए फिरने को शापित हो गये हैं।
राजेन्द्र मेरे मन के झंझावात को नहीं जान सकते थे। मेरी बात सुनकर वे कुछ न कह सके, चुप खड़े रहे।
श्रीकृष्णजी को नैतिक सम्बल देते रहने वाली शक्ति भी आखिर चली गई। दु:खित स्वर में मैंने  आगे कहा।
हमारे लिए यह एक युग का अन्त है… वह भी शोकभरे स्वर में बोले।
निश्चित रूप से। मैंने उनकी भावना का समर्थन किया,वे कुशलतापूर्वक घर को न सँभाले रखतीं तो श्रीकृष्णजी अपना ध्यान उत्कृष्ट पुस्तक-उत्पादन में इस गहराई तक केन्द्रित न कर पाते।
इसके बाद कुछ पल हम चुप खड़े रहे, बोलने के लिए दोनों के ही पास जैसे कुछ विशेष न हो। फिर बड़ी मायूसी के साथ राजेन्द्र जी ने कहा,उन्हें दरअसल अपनों ने ही मारा।
उन्हें से उनका तात्पर्य श्रीकृष्ण दम्पति से था, अकेली श्रीमती कमला देवी से नहीं। मैं ‘उन्हें अपनों ने ही मारा में छिपा उनका इशारा भी समझ रहा था लेकिन क्या कहता। हर व्यक्ति का अपना-अपना पक्ष होता है। हमारे यानी अजय जी(मेधा बुक्स) और मेरे साथ अन्तिम मुलाकत में अपनों से संवादहीनता का हल्का-सा संकेत गहरी पीड़ा के साथ श्रीकृष्णजी ने भी किया था; लेकिन असलियत तो यह थी कि उन्हें अपनों ने भी मारा और ग़ैरों ने भी।
दोस्तो, गत 07 दिसम्बर 2011 को अपंजीकृत पराग प्रकाशन के सुप्रतिष्ठा-सम्पन्न संस्थापक तथा बालसाहित्यकार श्रीकृष्ण जी ने नश्वर देह को त्यागा था और गत 15 अगस्त, 2012 को उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमला देवी भी संसार से विदा हो गईं।
शोक-संवेदना व्यक्त करने की इच्छा वाले महानुभावों को मैं उनकी दो पुत्रियों के नाम, पते और फोन नम्बर नीचे लिख रहा हूँ

1॰ Mrs. Nisha Gupta (daughter, Ph. 88oo184598)
Mr. Neeraj Gupta (Son-in-law, Ph. 98103389687)
            G-109, Sector 56,
Near Mother Dairy,
Janta Flats, Noida (UP)

2॰ Mrs. Seema Jain (daughter, Ph. 011-22321612)
Mr. Rajendra Jain (Son-in-law, Ph. 9310962206)
N-10, Gali No. 1, Uldhanpur,
Naveen Shahdara, Delhi-110032

ॐ शान्ति!!!

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

पिज्ज़ा, बर्गर, पास्ता, फ्रेंचफ्राई…


सर्वोत्तम कथन
पिज्ज़ा, पास्ता, बर्गर, फ्रेंच फ्राईज़ के बारे में:

कुछ पल जीभ पर, उम्रभर तोंद और नितम्बों पर…
 
सभी चित्र गूगल इमेज से साभार





सोमवार, 6 अगस्त 2012

पहले से ही ज़ीरो हूँ और आखिर तक ज़ीरो रहूँगा/अन्ना हजारे

दोस्तो, http://news.indiaagainstcorruption.org/annahazaresays लिंक पर अन्ना हजारे के नाम से एक लम्बा लेख प्रकाशित हुआ है। यहाँ प्रस्तुत हैं उस लेख के कुछ अंश:
 इस इंतज़ार में, कि यह मोमबत्ती कब पूरी हो और इन उँगलियों को जलाने लगे आप भी हैं?  फोटो:बलराम अग्रवाल
 ………मैंने संसद में अच्छा उम्मीदवार भेजने का विकल्प देने की बात करते ही कई लोगों ने घोषणा की कि अन्ना ज़ीरो बन गए। मैं तो पहले से ही ज़ीरो हूं, मंदिर में रहता हूं, न धन न दौलत, न कोई पद, अभी भी ज़मीन पर बैठकर सादी सब्जी-रोटी खाता हूं। पहले से ही ज़ीरो हूँ और आखिर तक ज़ीरो रहूँगा। जो पहले से ज़ीरो है उसको ज़ीरो क्या बनाएगे? जिसको कहना है वो कहता रहे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। आजतक 25 साल में मेरी बदनामी करने के लिए कम से कम 5 किताबें लिखी गई। कई अखबार वालों ने बदनामी के लिए अग्रलेख (संपादकीय) लिखे है। लेकिन फक़ीर आदमी की फक़ीरी कम नहीं हुई। इस फक़ीरी का आंनद कितना होता है? यह बदनामी करने वाले लोगों को फक़ीर बनना पड़ेगा तक समझ में आएगा। एक बात अच्छी हुई की जितनी मेरी निंदा हुई। उतनी ही जनता और देश की सेवा करने की शक्ति बढ़ी। आज 75 साल की उम्र में भी उतना ही उत्साह है। जितना 35 साल पहले काम करते वक्त था। देश का भ्रष्टाचार कम करने के लिए जनलोकपाल कानून बनवाने के लिए कई बार आंदोलन हुए। 4 बार अनशन हुए। लेकिन सरकार मानने के लिए तैयार नहीं इसलिए टीम ने निर्णय लिया अनशन रोककर विकल्प देना पड़ेगा।
सरकार से जनलोकपाल की मांग का आंदोलन रुक गया लेकिन आंदोलन समाप्त नहीं हुआ है। पहले सरकार से जनलोकपाल कानून की मांग करते रहे। सरकार नहीं करती इसलिए जनता से ही अच्छे लोग चुनकर संसद में भेजना और जनलोकपाल बनाने का आंदोलन शुरू करने का निर्णय हो गया। अगर जनता ने पीछे डेढ साल से साथ दिया, वह कायम रहा तो जनता के चुने हुए चरित्रशील लोग संसद में भेजेगे। और जनलोकपाल, राइट टू रिजेक्ट, ग्रामसभा को अधिकार, राइट टू रिकॉल जैसे कानून बनवाएंगे। और आने वाले 5 साल में भ्रष्टाचार मुक्त भारत का निर्माण पक्ष और पार्टी से नहीं जन सहभाग से करेंगे। 2014 का चुनाव भ्रष्टाचार मुक्त देश बनाने के लिए जनता के लिए आखिरी मौका है। इस चुनाव के बाद फिर से ऐसा मौका मिलना मुश्किल है। कारण, इस वक्त देश जाग गया है। अभी नहीं तो कभी नहीं। मैंने बार-बार बताया है कि मेरा जीवन समाज और देश सेवा में अर्पण किया है। इस वक्त जनता का साथ नहीं मिला तो नुकसान अन्ना का नहीं जनता का होगा। अन्ना तो एक फक़ीर है और मरते दम तक वो फक़ीर ही रहेगा। मैंने अच्छे लोग चुनकर संसद में भेजने का विकल्प दिया है। लेकिन मैं पक्ष-पार्टी में शामिल नहीं होऊंगा। चुनाव भी नहीं लडूंगा। जनता को जनलोकपाल का कानून देकर मैं महाराष्ट्र में अपने कार्य में फिर से लगूंगा। पार्टी निकालने वाले लोगों को भी मैंने बताया है। पार्टी बनाने के बाद भी यह आंदोलन ही रहे। पहले आंदोलन में सरकार से जनलोकपाल कानून मांग रहे थे। अब आंदोलन जारी रखते हुए जनता के सहयोग से अच्छे लोगों को चुनाव में खड़ा करके संसद में भेजो और कानून बनाओ। दिल और दिमाग में सत्ता न रहे, राज कारण न रहे, यह देश की देशवासियों की सेवा समझकर करो। अगर सत्ता और पैसा दिमाग में आ गया तो दुसरी पक्ष-पार्टी और अपनी पार्टी में कोई फर्क नहीं रहेगा। जिस दिन मुझे दिखाई देगा कि देश की समाज की सेवा दूर गई और सिर्फ सत्ता और पैसा का प्रयास हो रहा है। उसी दिन मैं रुक जाऊंगा। आगे नहीं बढूंगा। क्योंकि मैंने समाज और देश की भलाई के लिए विकल्प देने का सोचा है। मेरा जीवन उन्हीं की भलाई के लिए है।
आज टीम अन्ना का कार्य हम लोगों ने समाप्त किया है। जनलोकपाल के कार्य के लिए टीम अन्ना बनाई गई थी। सरकार से संबंध नहीं रखने का निर्णय लिया है। इस कारण आज से टीम अन्ना नाम से चला हुआ कार्य समाप्त हो गया है और अब टीम अन्ना समिति भी समाप्त हुई है।
भवदीय,
कि. बा. उपनाम अण्णा हज़ारे
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गुरुवार, 2 अगस्त 2012

तानाशाह की बेटी/खलील जिब्रान


खलील जिब्रान
सिंहासन पर सो रही बूढ़ी रानी के आसपास खड़े चार गुलाम पंखा झल रहे थे। वह खर्राटे ले रही थी और उसकी गोद में बैठी बिल्ली म्याऊँ-म्याऊँ करती उनींदी आँखों से गुलामों को घूर रही थी।
पहला गुलाम बोला—“सोते हुए यह बुढ़िया कितनी भद्दी दिखती है। इसका लटका हुआ मुँह देखो; और साँस तो ऐसे लेती हैं जैसे शैतान ने इसका गला दबा रखा हो।
बिल्ली ने म्याऊँ की आवाज़ निकाली—“खुली आँखों इसकी गुलामी करते हुए जितने बदसूरत तुम दिखते हो, सोते हुए यह उससे आधी भी बदसूरत नहीं दिखती है।
दूसरे गुलाम ने कहा—“नींद के दौरान इसकी झुर्रियाँ गहरी होने की बजाय सपाट हो जाती हैं। जरूर किसी साजिश का सपना देख रही होगी।
बिल्ली ने म्याऊँ की—“तुम्हें भी ऐसी नींद लेनी चाहिए और आज़ादी का सपना देखना चाहिए।
तीसरा गुलाम बोला—“इसके द्वारा मारे गये लोग जुलूस की शक्ल में इसके सपनों में आ रहे होंगे।
और बिल्ली ने म्याऊँ की—“ए, जुलूस की शक्ल में यह तुम्हारे पुरखों ही नहीं, आने वाली संतानों को भी देख रही है।
चौथे गुलाम ने कहा—“इसके बारे में बातें करना अच्छा लगता है; लेकिन इससे खड़े होकर पंखा झलने की मेरी थकान पर तो कोई फर्क पड़ता नहीं है।
बिल्ली ने म्याऊँ की—“तुम-जैसे लोगों को तो अनन्त-काल तक पंखा झलते रहना चाहिए; सिर्फ धरती पर ही नहीं, स्वर्ग में भी।
रानी की गरदन एकाएक नीचे को झटकी और उसका मुकुट जमीन पर जा पड़ा।
गुलामों में से एक कह उठा—“यह तो अपशकुन है।
बिल्ली बोली—“एक के लिए अपशकुन दूसरों के लिए शकुन होता है।
दूसरा गुलाम बोला—“जागने पर इसने अगर अपने सिर पर मुकुट नहीं पाया तो हमारी गरदनें उड़वा देगी।
बिल्ली ने कहा—“तुम्हें पता ही नहीं है कि जब से पैदा हुए हो, यह रोजाना तुम्हारी गरदन उड़वाती है।
तीसरे गुलाम ने कहा—“ठीक कहते हो। यह देवताओं को हमारी बलि देने के नाम पर हमारा कत्ल करा देगी।
बिल्ली बोली—“देवताओं के आगे केवल कमजोरों की बलि दी जाती है।
तभी चौथे गुलाम ने सबको चुप हो जाने का इशारा किया। उसने मुकुट को उठाया और इस सफाई के साथ कि रानी की नींद न टूटे, उसे उसके सिर पर टिका दिया।
बिल्ली ने म्याऊँ की—“एक गुलाम ही गिरे हुए मुकुट को पुन: राजा के सिर पर टिका सकता है।
कुछ पल बाद बूढ़ी रानी जाग उठी। इधर-उधर देखते हुए उसने जम्हाई ली और बोली—“लगता है मैंने सपना देखामैंने देखा कि एक बिच्छू चार कीड़ों को बलूत के एक बहुत पुराने पेड़ के तने के चारों ओर दौड़ा रहा है। यह सपना मुझे अच्छा नहीं लगा।
यों कहकर उसने आँखें मूँदीं और दोबारा सो गई। खर्राटे फिर से शुरू हो गये और चारों गुलामों पुन: पंखा झलने लगे।
और बिल्ली घुरघुराई—“झलते रहो, झलते रहो मूर्खो। नहीं जानते कि तुम उस आग की ओर पंखा झल रहे हो जो तुम्हें जलाकर खाक करती है।
(मेधा बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'खलील जिब्रान' से)

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

पाठकों और साथी रचनाकारों से क्या वाकई इतने दूर थे ललित कार्तिकेय?/बलराम अग्रवाल




ललित कार्तिकेय
दोस्तो,
जिन दिनों सुपर स्टार राजेश खन्ना की विदाई पर चैनल्स और अखबार एक से एक उल्लेखनीय समाचार यहाँ-वहाँ से खोदकर दिखा और छाप रहे थे, एकदम उन्हीं दिनों हिन्दी का एक सशक्त रचनाकार और अनुवादक भी हमसे छिन गया। पता चला?
आओ, अपने समय के रचनाकारों की अपने ही प्रति उदासीनता पर कथाकार अमर गोस्वामी के बाद एक बार पुन: विचार करें।
मेधा बुक्स द्वारा 2001 में प्रकाशित ललित कार्तिकेय की एक अवश्य पठनीय किताब
ललित कार्तिकेय के निधन का समाचार भी पहले मेधा बुक्स के अजय जी से मिला जिसे उन्होंने कथाकार-पत्रकार वीरेन्द्र जैन से पुष्ट कराया तथा मेरे पूछने पर कथादेश के संपादक हरिनारायण जी ने भी इसे पुष्ट किया। उसके बाद मैंने इस दु:खद खबर को अपने ब्लॉग अपना दौर में पोस्ट करने के लिए ललित जी की फोटो को इंटरनेट पर तलाशने की कोशिश की और परिणाम वैसा ही निकला जैसा कि अमर गोस्वामी की फोटो वहाँ तलाशने का निकला था। अमर सिंह की तर्ज़ पर ललित मोदी के फोटो तो अनेक मिले, ललित कार्तिकेय का एक भी नहीं। तब, शाम तक अजय जी ने ही अपने खजाने से उनकी एक फोटो तलाश करके मेल द्वारा मुझे भेजी और खबर को ब्लॉग पर लिखकर मैंने फेसबुक से लिंक कर दिया। इसे लिंक करने के अगले ही मिनट अनिल जनविजय ने करीब-करीब यों कमेंट किया—‘चलो, ललित को यह खबर नहीं थी, अब मिल गई। मैंने इसे पढ़कर यही अनुमान लगाया कि अनिल ने इसे पढ़कर ललित जी से बात की होगी और अनेक साथियों से पुष्ट होने के बावजूद एक अप्रिय समाचार मेरे द्वारा फ्लैश हो गया है! मैं घबरा गया और तुरन्त पोस्ट को फेसबुक से हटाकर अनिल जनविजय को अपना स्पष्टीकरण मैसेज किया तथा अजय जी को सारे वाक़ये से अवगत कराया।
आज, भाई रूपसिंह चन्देल के फेसबुक वॉल पर ललित कार्तिकेय के न रहने का समाचार पुन: पढ़कर मैं चौंका (भले ही उन्होंने उसे मेरे ब्लॉग के हवाले से लिखा था)। मैंने चन्देल जी को फोन किया। मालूम हुआ कि यह कुसमाचार ज्ञानप्रकाश विवेक आदि अनेक साहित्यिक मित्रों से पुष्ट करके ही उन्होंने फेसबुक पर डाला है।
मित्रो, तात्कालिक लाभ और हानि का आकलन करके सम्बन्धों को बनाए रखने न बनाए रखने का निर्णय करने वाले साहित्यिक कहे जाने के बावजूद विशुद्ध असाहित्यिक और शुद्ध व्यावसायिक समय में ऐसे हादसे कदम-कदम पर हो सकते हैं। ऐसे में भावुक हृदयों द्वारा सावधानी बरतना जरूरी है।

गुरुवार, 28 जून 2012

चुपचाप चले गए अमर गोस्वामी/बलराम अग्रवाल

दोस्तो,
कथाकार अमर गोस्वामी
साहित्य की दुनिया में अमर गोस्वामी न तो अनजाना नाम है और न ही नजरअन्दाज़ कर देने वाला। फिर भी, हैरान हूँ कि अभी तक किसी सूचना-तंत्र पर उनके चले जाने का समाचार दिखाई-सुनाई नहीं पड़ा। दिनांक 26 जून 2012 को दोपहर 11-30 के लगभग अजय जी (मेधा बुक्स) का फोन आया था। उन्हें उमेश जी ने और उमेश जी को डॉ॰ शेरजंग गर्ग के माध्यम से अमर गोस्वामी का निधन हो जाने और दोपहर 12 बजे के लगभग गाजियाबाद में हिंडन-नदी के तटवर्ती श्मशान में अंतिम संस्कार किए जाने का समाचार मिला था। उस दिन संयोग से 12 बजे से 2 बजे तक के लिए मैं अत्यन्त व्यस्त था इसलिए पहुँच नहीं सकता था; लेकिन उमेश जी व अजय जी ने वह दायित्व निभाया।
उसी दिन शाम को घर लौटने पर मैंने रूपसिंह चंदेल, भारतेन्दु मिश्र, सुभाष नीरव आदि को फोन पर सूचित किया तो वे भी चौंके। गरज यह कि शाम तक भी किसी तक उनके निधन की सूचना नहीं पहुँची था। कल रात अजय जी से पुन: बात हुई। अमर गोस्वामी के बारे में उन्हें जब सूचना-तन्त्र की इस विफलता के बारे में बताया तो उन्होंने सुझाव दिया कि मैं यह समाचार फेस बुक पर दे दूँ। इस हेतु तलाश हुई उनके संक्षिप्त परिचय और फोटो की। तो संक्षिप्त परिचय तो रे माधव की वेव साइट पर उपलब्ध हो गया लेकिन इन्टरनेट पर अमर गोस्वामी का चित्र तलाश करने की जद्दोजहद में अमर सिंह, अमर कुमार, फलाँ-फलाँ गोस्वामी आदि पता नहीं किस-किस के अनेक मुद्राओं में फोटो मिलते रहे, अमर गोस्वामी का एक भी नहीं मिला।  हिन्दी बुक सेन्टर आदि पुस्तक-विक्रेताओं की वेब साइट्स पर भी अमर गोस्वामी की पुस्तकों के विक्रय हेतु टाइटिल तो खूब नजर आए, उनके निधन सम्बन्धी कोई सूचना या उनका फोटो एक भी नजर नहीं आया। जाहिर है कि अमर गोस्वामी फोटो खिंचवाने की लालसा से दूर के व्यक्ति थे।
वे काफी समय से अस्वस्थ चल रहे थे। मालूम चला कि गत दिनों वे नोएडा से गाजियाबाद के राजनगर एक्सटेंशन में शिफ्ट कर गए थे।  मैं रेमाधव की वेब साइट से उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। फोटो काफी जद्दोजहद के बाद उमेश जी (आलेख प्रकाशन) के खजाने से मिली है।
निधन वाला अंतिम कॉलम दुर्भाग्यवश मुझे जोड़ना पड़ा है।
आइए, उस श्रमशील व्यक्ति की आत्मा को शान्ति और परिजनों को धैर्य प्रदान करने की प्रार्थना परमपिता से करें।
अमर गोस्वामी
जन्म : 28 नवम्बर 1945 को मुलतान के एक बांग्लाभाषी परिवार में। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर करने के बाद बुढ़ार (शहडोल, म.प्र.) और भरवारी के (इलाहाबाद उ.प्र.) दो महाविद्यालयों में अध्यापन, फिर लम्बे समय से पत्रकारिता में।
सम्प्रति : गाजियाबाद (उ.प्र.) स्थित रेमाधव पब्लिकेशन्स' के मुख्य संपादक के पद पर कार्यरत।
कार्य-अनुभव : कथा-पत्रिकाकथान्तर', बाल पत्रिका सपा और कांग्रेस पार्टी द्वारा संचालित भारती फीचर्स' का संपादन। विकल्प' (सं. शैलेश मटियानी), आगामीकल (सं. नरेश मेहता), ‘मनोरमा' (सं. अमरकान्त), ‘गंगा' (सं. कमलेश्वर) सण्डे आबजर्वर' (सं. उदयन शर्मा), ‘अक्षर भारत' और नया ज्ञानोदय' (सं. प्रभाकर श्रोत्रिय) आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में वरिष्ठ पदों पर संपादन सहयोग।
प्रकाशित कृतियां : हिमायती', ‘महुए का पेड़', ‘अरण्य में हम', ‘उदास राधोदास', ‘बूजो बहादुर', ‘धरतीपुत्र', ‘महाबली', ‘इक्कीस कहानियां', ‘अपनी-अपनी दुनिया', ‘कल का भरोसा' तथा भूलभुलैया' (सभी कहानी-संग्रह)इस दौर में हमसफर' उपन्यास किताबघर, नयी दिल्ली से प्रकाशित। बच्चों की कहानियों की 16 पुस्तकें तथा एक बाल उपन्यास शाबाश मुन्नूप्रकाशित। बांग्ला से हिन्दी में साठ से ज्यादा अनूदित पुस्तकें प्रकाशित। 
पुरस्कार-संपादन : केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा हिमायती' कहानी-संग्रह पर अहिन्दी भाषी हिन्दी लेखक पुरस्कार, 1988, दिल्ली हिन्दी साहित्य सम्मेलन, सनेही मण्डल नोएडा द्वारा नोएडा रत्नसे सम्मानित, 1996 इण्डो रशियन लिटरेरी क्लब, नयी दिल्ली द्वारा बाल लेखन के लिए सम्मानित, 1999 हिन्दी एकेडेमी, दिल्ली द्वारा बाल उपन्यास शाबाश मुन्नू' पुरस्कृत, 2005, उ.प्र. हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा इस दौर में हम सफर' उपन्यास पर प्रेमचन्द पुरस्कार, 2005
निधन : 26 जून, 2012, गाजियाबाद में हिंडन नदी के तटवर्ती श्मशान में उसी दिन पंचतत्त्व में विलीन।

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

आज असुंदरता, कुरूपता भव से ओझल/बलराम अग्रवाल

किसी समय निरा पथरीला होने के कारण खाण्डवप्रस्थ कहे जाने वाले इस भू-भाग को पाण्डवों के हितैषी इन्द्र की कृपा से सुधरने-सँवरने का मौका मिला और इसे इन्द्रप्रस्थ कहा जाने लगा। तब से, पता नहीं क्या-क्या दिन देखता हुआ यह भूखण्ड कब नगर से नगरी यानी पुरुष से स्त्री बन गया, खुद इसे भी शायद ठीक-ठीक याद न हो। बहरहाल, अब यह दिल्ली’ है और देश का दिल बनी 
      एक ज़माना था जब दिल्ली के मूल निवासी उत्तर प्रदेश की ओर वाले जमुनापारियों को उस निगाह से देखते थे, जिस निगाह से आम तौर पर आज एक प्रदेश विशेष के लोग देखे जाते हैं। मैं जब जामा मस्जिद के नज़दीक मटिया महल में स्थित अपने बड़े मामाजी की ससुराल जाता था तो नानी(मामाजी की सास) लो आ गए पुरबिए कहकर मेरी अगवानी करती थीं। मेरे गृहनगर बुलन्दशहर में, पुरबिया सम्बोधन इटावा-एटा-मैनपुरी-आजमगढ़ आदि उत्तर प्रदेश के धुर पूरबी निवासियों को दिया जाता था और इतने गहरे प्रेम के साथ कि वो बेचारे चिढ़-से जाते थे। इसलिए मैं भी चिढ़ जाता था और नानी से पूछता थाहम पुरबिए कैसे हैं नानी?
जमुना के पार रहने वाले सब पुरबिए हैं। वह एक झटके में सारे तर्क खत्म करते हुए कहती थीं।
           
लाल कनेर
आज नानी नहीं हैं। होतीं, तो देखतीं कि कैसे दिल्लीवाले अब जमनापार आकर पुरबियों के बीच खुशी-खुशी रहते हैं। पुरानी दिल्ली के मकान दिल्लीवालों की सन्ततियों में बँटते-बँटते दरअसल सुविधापूर्वक रहने लायक रह नहीं गए हैं। मात्र ढाई-ढाई, तीन-तीन हाथ चौड़ी गलियाँ जब पैदल आदमी को ही मुश्किल से बर्दाश्त करती थीं तो साइकिलों, मोटर-साइकिलों, स्कूटरों और रिक्शाओं को कैसे बर्दाश्त कर सकती थीं। फिर, आमदनी और जरूरत कितनी भी कम क्यों न हो, दिखावा करने में दिल्लीवाले किसी से पीछे शायद ही कभी रहे हों। कलफदार कपड़े और गले में सोने की चेन डालने का मज़ा ही क्या रहा। अगर किराए की टैक्सी को अपनी खुद की गाड़ी न बताया; और खुद की गाड़ी होने का भी क्या मज़ा रहा, अगर उसे अपने घर के दरवाज़े तक न लाया ले-जाया जा सका। इस लिहाज़ से वे गलियाँ अब उनके रहने लायक रहीं नहीं। सो दिल्लीवाले  
आकाश छूने को बेताब--बोगनबेलिया
पुरबियों में आ मिले। यहाँ की कुछ कालोनियाँ नियोजित ढंग से बसी हैं। मज़े की बात तो यह है कि बावजूद तमाम बदइन्तज़ामियों और प्रशासकीय लापरवाहियों के जमनापार का इलाकां निम्न, निम्न-मध्य और मध्य-मध्य आय-वर्ग के लोगों के रहने लायक बना हुआ है; और इन दिनों तो चारों ओर बहार है।  प्रकृति के चितेरे कवि सुमित्रानन्दन पंत की ग्राम्या में लिखित ये पंक्तियाँ अनायास ही याद आ जाती हैं: 
चिर परिचित माया बल से बन गए अपरिचित,
निखिल वास्तविक जगत कल्पना से ज्यों चित्रित!
आज असुंदरता, कुरूपता भव से ओझल!
सब कुछ सुंदर ही सुंदर, उज्वल ही उज्वल!

आइए, देखते हैं पूर्वी दिल्ली के सीलमपुर-वेलकम से सटे झील वाले पार्क  की कुछ  विशेष छटाएँ
नेवलों, चूहों या ठण्डक की तलाश में कुत्ता

 
जंगल जलेबी भरपूर फूल रही है, फल अगले माह तक
इससे ज्यादा सुलभ शौचालय आसपास नहीं हैसभी चित्र: बलराम अग्रवाल             
 

गुरुवार, 1 मार्च 2012

श्रीकृष्ण : दु:खद पटाक्षेप / बलराम अग्रवाल


खुश रहना देश के प्यारो, अब हम तो सफ़र करते हैं…7 दिसम्बर 2011 को चले भी गए श्रीकृष्ण जी और हमको खबर तक नहीं!!!

मैंने सोचा नहीं था कि मुझे इतनी जल्दी अपनी पूर्व पोस्ट के बारे लिखना पड़ेगा और वह भी दु:खद। वस्तुत: तो मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं किस तरह इस बात को शुरू करूँ। अनेक तरीके दिमाग में आ रहे हैं, लेकिन बेहतर यही है कि मैं खुद पर लानत भेजने से इसकी शुरूआत करूँ। लानत है…! लानत है…!! लानत है…!!!
गत एक वर्ष से ऊपर हो गया। अजय जी (मेधा बुक्स), जब भी मुलाकात होती, 11 जनवरी 2011 को श्रीकृष्ण जी से हुई मुलाकात को कलमबद्ध करके प्रकाशनार्थ किसी पत्र-पत्रिका में भेजने या नेट पर किसी ब्लॉग पर ही डाल देने की याद दिलाते; लेकिन संवेदनहीन दिल्ली में गत 20-22 वर्षों से खाते-पीते, साँस लेते मैं भी अब दिल्लीवाला हो गया हूँ। उनका अनुरोध मेरी संवेदनहीनता और तज्जनित लापरवाही की भेंट चढ़ता रहा, टलता रहा। वर्तमान पुस्तक मेला शुरू होने से दो दिन पहले अन्तत: वे बोले—‘बलराम जी, अगर आपने आज ही श्रीकृष्ण जी वाला मेरा काम नहीं किया तो मैं समझूँगा कि आप भी उन बहुसंख्यक लेखकों की जमात में हैं जो केवल कागजों पर ही संवेदनशीलता की बातें करते हैं।
मुझे उनकी बात लग गई हो, ऐसी बात नहीं थी। फिर भी, न जाने किस ताकत ने काम किया कि घर पहुँचते ही मैंने पुस्तक, व्यवसाय और श्रीकृष्ण को ध्यान में रखकर लिखना शुरू कर दिया। अवसर क्योंकि 20वाँ विश्व पुस्तक मेला शुरू होने का था और श्रीकृष्ण जी पुस्तक व्यवसाय से जुड़ी महान हस्ती थे, इसलिए लेख का पूर्वार्द्ध अनायास ही पुस्तक व्यवसाय पर ही केन्द्रित रहा, श्रीकृष्ण जी का उल्लेख बाद में शुरू हुआ। 25 फरवरी की सुबह (रात लगभग 12॰15 बजे) उसे मैंने अपने ब्लॉग अपना दौर में पोस्ट कर दिया। बावजूद इस कमी के, कि वह पूरी तरह श्रीकृष्ण जी पर केन्द्रित नहीं था, अनेक लेखकों द्वारा उनसे जुड़े प्रसंगों पर चिन्ताएँ व्यक्त की गईं। उन चिन्ताओं को पढ़-सुनकर यह विश्वास मन में जमा कि दिल्ली निरी संवेदनहीन नहीं है और इन्सानियत खुशबू की तरह है जो कब्रिस्तान को भी महकाए रखती है। रूपसिंह चन्देल और सुभाष नीरव ने तो फैसला सुनाया कि मुझे उन्हें लेकर इसी शनिवार यानी 3 मार्च को श्रीकृष्ण जी से मिलाने को जाना है (वह इसलिए कि उनका लिखित पता न उन्हें मालूम था, न मुझे)। बाइत्तफाक यह जिक्र पुस्तक मेले में मेधा बुक्स के स्टाल पर भी हो गया जिसे सुनकर अजय जी ने कहा कि मेला खत्म होने के बाद किसी भी दिन चलो तो मैं भी साथ जाना चाहूँगा। बात मेला समाप्त होने के बाद जाने की तय हो गई। यहाँ तक कि कल फोन पर भी चन्देल ने याद दिलाया कि श्रीकृष्ण जी के यहाँ जाने का कार्यक्रम ज्यादा आगे नहीं खिसकाना है। इसी दौरान वरिष्ठ कथाकार नरेन्द्र कोहली जी का भी फोन आया था। उन्होंने बताया कि विश्वास नगर स्थित अपने आवास को छोड़कर गए श्रीकृष्ण जी का निश्चित पता-ठिकाना उन्हें उपलब्ध नहीं था, इसलिए वे उनकी कोई खैर-खबर नहीं ले पाए। पता मिल जाए तो वे उनसे मिलने जाना चाहते हैं। उनकी बात सही थी। श्रीकृष्ण जी ने अपने डूब जाने का अधिक प्रचार नहीं किया। वास्तविकता तो यह थी कि स्वयं मुझे भी श्रीकृष्ण जी के निवास की केवल लोकेशन ही मालूम थी, उनका लिखित पता या कोई फोन नम्बर नहीं मालूम था। कोहली जी मैंने उन्हें वह बाद में उपलब्ध करा देने का वादा कर दिया। अजय से जिक्र किया तो उन्होंने भी वही कहा कि हमें तो लोकेशन याद है, उसी के सहारे पहुँच जाते हैं। मैं कई दिनों तक इस शर्मिन्दगी को झेलता रहा कि कोहली जी को क्या जवाब दूँ? याद आया कि उनकी एक पुत्री का निवास नवीन शाहदरा में ही है। श्रीकृष्ण जी के आवास का पता और फोन नम्बर लेने के लिए आज सुबह मैं उधर चला गया। मकान की कॉल बेल अभी बजाने ही वाला था कि स्कूटर पर सवार एक नौजवान सज्जन वहाँ आकर रुके।
कहिए। उन्होंने पूछा।    
श्रीकृष्ण जी की बेटी का यही मकान है? मैंने पूछा।
जी हाँ। उन्होंने कहा।
मुझे उनके नोएडा वाले घर का लिखित पता चाहिए। मैं बोला।
बाबूजी तो अब रहे नहीं। उन्होंने कहा। मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। अत: पूछा,मैं पराग प्रकाशन वाले श्रीकृष्ण जी की बात कर रहा हूँ।
जी हाँ। उन्होंने कहा,मैं उनका दामाद हूँ। आप अन्दर आइए।
यह सूचना इतनी दु:खद और अप्रत्याशित थी कि मैं भीतर तक हिल गया और मुझे तुरन्त बैठ जाने की जरूरत महसूस हुई। पता लिखवाकर लेने के लिए शायद न बैठना पड़ता; और अगर बैठना भी पड़ता तो उस बैठने और इस बैठने में घोर अन्तर था। बेटी और दामाद से ज्यादा बातें करने का माहौल मुझमें बचा नहीं था। श्रीकृष्ण जी के दामाद प्रिय राजेन्द्र जैन उनके नोएडा स्थित आवास का पता और फोन नम्बर एक कागज पर लिखने लगे।
7 दिसम्बर की सुबह वे चले गए। लिखते-लिखते उन्होंने बताया।
मम्मी जी की हालत भी खराब है। श्रीकृष्ण जी की बेटी सीमा बताने लगी,मैं भी जाती हूँ तो पहचान नहीं पाती हैं। पापाजी के जाने का उनके मन पर इतना गहरा सदमा है कि वे मान ही नहीं रही हैं कि पापाजी  चले गए। कहती हैंवे उधर दूसरी तरफ लेटे हुए हैं…
इस बीच राजेन्द्र जी ने श्रीकृष्ण जी के नोएडा आवास का पता लिखा कागज मेरी ओर बढ़ा दिया। इस पर अपने आवास का पता भी लिख दीजिए। मैं बोला।
जी। कहते हुए उन्होंने अपने आवास का पता भी उस पर लिख दिया।
मैं उक्त दोनों ही पतों और उनके फोन नम्बरों को नीचे लिख रहा हूँ

1.      Mrs. Nisha Gupta (daughter, Ph. 8800184598)
Mr. Neeraj Gupta (Son-in-law, Ph. 9810389687)
            G-109, Sector 56,
Near Mother Dairy,
Janta Flats, Noida (UP)

2.      Mrs. Seema Jain (daughter, Ph. 011-22321612)
Mr. Rajendra Jain (Son-in-law, Ph. 9310962206)
N-10, Gali No. 1, Uldhanpur,
Naveen Shahdara, Delhi-110032

इसके साथ ही पुस्तक, व्यवसाय और श्रीकृष्ण शीर्षक अपने पूर्व लेख के श्रीकृष्ण जी पर केन्द्रित उस हिस्से को पुन: यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ जिसे मैंने एक बदहाल प्रकाशक की कहानी शीर्षक से 25 फरवरी को नुक्कड़ पर पोस्ट किया था।

कई दशक पहले निर्माता-निर्देशक-अभिनेता मनोज कुमार ने कहा था कि फिल्मों में अंडरवर्ल्ड का पैसा लग रहा है। यह ईमानदार फिल्म निर्माता-निर्देशकों के सिरों पर शनै: शनै: छाते जाते अंडरवर्ल्ड आतंक की ओर इशारा भर था, जिसे शायद ही गम्भीरतापूर्वक सुना-समझा गया हो। विभिन्न प्रकाशक मित्रों के बीच बैठकर इधर-उधर से बहुत-सी बातें सुनाई देती हैं तो आज बल्क पुस्तक खरीद का माहौल लगभग वैसा ही महसूस होता है। किसी दूसरे को क्या, आज स्वयं को भी ईमानदार कहना अपने साथ बेईमानी करने जैसा है लेकिन यह सच है कि भ्रष्टाचार के दलदल में फँसे होने के बावजूद, अधिकतर लोग ईमानदारी से व्यवसाय करने के पक्षधर हैं, बशर्ते वैसा माहौल उपलब्ध कराया जाए। बेईमान माहौल में केवल बेईमान और पूँजीवादी ही पनपते हैं, ईमानदार और मेहनतकश नहीं। यही कारण है कि इन दिनों मेहनतकश और ईमानदार पुस्तक व्यवसायी स्वयं को बेहद विवश महसूस कर या भ्रष्टाचार के दलदल में कूद पड़े हैं या बाज़ार से मालो-असबाब समेटने और बाहर खिसकने के रास्ते पर पड़ चुके हैं। राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय स्तर के अनेक पत्रकार, सम्पादक-लेखक-आलोचक और नौकरशाह बल्क पुस्तक खरीद केन्द्रों और प्रकाशकों के बीच कमीशन-एजेंट का लाभकारी धन्धा अपनाए हुए हैं। ऐसे माहौल में लेकिन कितने लेखकों, पत्रकारों, प्रकाशकों और पुस्तक व्यवसायियों को आज पता है कि अमृता प्रीतम की ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कृति रसीदी टिकटकी रूपसज्जा आदि के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित, पराग प्रकाशन को समग्र स्तरीयता प्रदान करने वाले तथा बाल नाटककार के रूप में विभिन्न राज्यों की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक बार पुरस्कृत श्रीकृष्ण आज कहाँ हैं और किस हालत में हैं? गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के स्कूल पाठ्य-पुस्तकों में उनके बाल नाटक संकलित होते रहे हैं।
व्यावसायिक दृष्टि से देखें तो पराग प्रकाशन का डूबना वैसा ही है जैसा व्यावसायिक कूटदृष्टि से हीन किसी भी संस्थान का डूबना होता है। एक व्यवसायी कभी भी दूसरे व्यवसायी की व्यावसायिक मौत पर नहीं रोता। लेकिन श्रीकृष्ण द्वारा संचालित पराग प्रकाशन का डूबना मेरी दृष्टि में हिन्दी प्रकाशन व्यवसाय के एक टाइटेनिक का डूबना है। उसके डूबने पर उसके हर लेखक, संपादक को रोना चाहिए था, परन्तु किसी ने उफ् तक नहीं की। मेधा प्रकाशन ने श्रीकृष्ण जी के कुछ बाल नाटकों का एक संग्रह अभिनेय बाल नाटक शीर्षक से प्रकाशित किया था। तब मुझे साथ लेकर अजय भाई उनके नोएडा स्थित निवास पर गए थे। 2010 में श्रीकृष्ण जी से हम दो बार मिलकर आए थे, उसके बाद जनवरी 2011 में जा पाए; लेकिन अफसोस की बात है कि उसके बाद हम पुन: उनसे मिलने जाने का समय नहीं निकाल पाए जबकि हमें जाते रहना चाहिए था। 11 जनवरी 2011 को हमारे जाने से कुछ ही माह पहले उन्हें पक्षाघात हुआ था और उनके शरीर के बाएँ हाथ-पैर ने काम करना बन्द कर दिया था। सुनने की ताकत तो उनकी काफी समय पहले क्षीण हो गयी थी, अब स्मृति भी क्षीणता की ओर है। शारीरिक रूप से अक्षमता की ऐसी हालत में वे पति-पत्नी समीप ही रह रही अपनी एक बेटी रजनी पर आश्रित हैं। परिवार सहित वही उनकी देखभाल करती है।
श्रीकृष्ण जी पर कथाकार-पत्रकार बलराम और उपन्यासकार रूपसिंह चन्देल ने अपने-अपने संस्मरण लिखे हैं। इनके अलावा भी कुछ लोगों ने लिखे हो सकते हैं, लेकिन वे मेरी दृष्टि से नहीं गुजरे, क्षमा चाहता हूँ। 15 अक्टूबर, 1934 को जन्मे श्रीकृष्ण जी छ: पुत्रियों के पिता हैं। सभी पुत्रियाँ विवाहित हैं, सुखी हैं। मिलने आने वालों की बात चली तो पति-पत्नी दोनों को मात्र एक नाम याद आयायोगेन्द्र कुमार लल्ला जी। रजनी ने भी कहा कि लल्ला जी अंकल कभी-कभार आते हैं। उनके अलावा तो श्रीकृष्ण जी ने कहा कि—‘जिस-जिस की भी अपने भले दिनों में खूब मदद की थी, उनमें से कोई नहीं मिलने आता है। किसी और की क्या कहूँ, खुद मेरा सगा भाई भी अभी तक मुझे देखने नहीं आया है। ठीक ही कहा है कि जो पेड़ कितने ही परिन्दों को आश्रय और पथिकों को छाया व फल देता है, बुरे वक्त में वे सब उसका साथ छोड़ जाते हैं। आप लोग मिलने आ गये, यह बहुत बड़ी बात है…कौन आता है!…नरेन्द्र कोहली कहते थे कि मेरा नाम पराग प्रकाशन की देन है, लेकिन अब वे भी…।
प्रकारान्तर से रामकुमार भ्रमर का नाम भी उनकी जुबान पर आया। बहुत तरह से वे पति-पत्नी बहुत लोगों को याद करते हैं। उनके अनुसार, हिमांशु जोशी आदि अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों के वे प्रथम प्रकाशक रहे हैं। अतीत की बातें सुनाते हुए कभी वे खुश होते हैं, कभी उदास। यहाँ बहुत अधिक न कहकर तभी लिए गए उनके कुछ फोटो दे रहा हूँ। इन्हीं से उनकी स्थिति का किंचित अन्दाज़ा आप लगा सकते हैं।