बुधवार, 16 जनवरी 2013

बापू कहे जाने के योग्य नहीं है आसाराम/बलराम अग्रवाल

 आज शब्द साधकआदरणीय अरविंद जी का जन्मदिन है। कल उनका एस॰एम॰एस॰ मिला था। लिखा था—‘बापू आसाराम के कहने का मतलब है कि अपहरण करके लंका ले जाते समय सीता रावण को यदि भैय्या कह देतीं तो लंका का युद्ध टल सकता था।
                                                                                                                   गूगल से साभार
दरअसल दिल्ली गैंगरेप के संदर्भ में टीवी पर आसाराम की टिप्पणी को देखकर उसके लिए सम्मान की भावना मन में रह जाने का कोई सवाल ही नहीं रह जाता। मैं उसके और स्त्रीविरोधी उसके समस्त अनुयायियों के अवलोकनार्थ वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड से यह प्रकरण उद्धृत कर रहा हूँ जो तत्कालीन रावण के चरित्र को अंशत: उद्घाटित करता है। मेरा मानना है कि हर बलात्कारी रावण का ही अंश है और उसके लिए मृत्युदण्ड से कम की सज़ा का प्रावधान भारतीय दण्ड संहिता में नहीं होना चाहिए:
                                                                                                                  गूगल से साभार
स्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित निशाचरों की वह विशाल सेना कुछ ही देर में गहरी नींद में सो गई। परंतु महापराक्रमी रावण उस पर्वत के शिखर पर चुपचाप बैठकर चन्द्रमा की चाँदनी से चमकते उस पर्वत के विभिन्न स्थानों की नैसर्गिक छटा को निहारने लगा। इसी बीच समस्त अप्सराओं में श्रेष्ठ सुन्दरी रम्भा उस मार्ग से आ निकली। वह पूरी तरह सजी हुई थी। वह सेना के बीच से होकर जा रही थी, इसलिए रावण ने उसे देख लिया। देखते ही वह काम के अधीन हो गया और खड़ा होकर उसने जाती हुई रम्भा का हाथ पकड़ लिया। वह लाज से गड़ गई, परन्तु रावण मुस्कराता हुआ बोला—“सुन्दरी! किसके भाग्य के उदय का समय आया है, जो तुम स्वयं चलकर जा रही हो? इन्द्र, उपेन्द्र या अश्विनीकुमार ही क्यों न हों, इस समय कौन पुरुष मुझ रावण से बढ़कर है? इस समय तुम रावण को छोड़कर कहीं और जाओ, यह अच्छी बात नहीं है। 
रावण का नाम सुनने मात्र से रम्भा के रोंगटे खड़े हो गए। वह काँप उठी और हाथ जोड़कर बोली—“प्रभो! मुझ पर कृपा कीजिए। आपको ऐसी बात मुँह से नहीं निकालनी चाहिए क्योंकि आप मेरे पिता के समान हैं। यदि कोई दूसरा पुरुष मेरा तिरस्कार करे तो उससे भी आपको मेरी रक्षा करनी चाहिए। मैं धर्मत: आपकी पुत्रवधू हूँयह आपसे सच्ची बात बता रही हूँ।
उसकी बात सुनकर रावण ने उससे कहा—“यदि यह सिद्ध हो जाय कि तुम मेरे पुत्र की पत्नी हो, तभी मेरी पुत्र-वधू हो सकती हो, अन्यथा नहीं।
इस पर रम्भा ने कहा—“राक्षसशिरोमणि! धर्म के अनुसार मैं आपके पुत्र की ही पत्नी हूँ। आपके बड़े भाई कुबेर के पुत्र नलकूबर मेरे प्रियतम हैं। इस समय मैं उन्हीं से मिलने जा रही हूँ।
रम्भा की इस बात पर रावण ने उससे कहा—“रम्भे! पुत्र-वधू वाला नाता उन स्त्रियों पर लागू होता है, जो किसी एक पुरुष की पत्नी हों। तुम्हारे देवलोक की स्थिति ही दूसरी है। वहाँ सदा से यही नियम चला आ रहा है कि अप्सराओं का कोई पति नहीं होता। वहाँ कोई एक स्त्री के साथ विवाह करके नहीं रहता।
यों कहकर राक्षस ने रम्भा को जबर्दस्ती एक शिला पर बैठा लिया और उसके साथ समागम किया। रम्भा के पुष्पहार टूटकर गिर गए, सारे आभूषण अस्त-व्यस्त हो गए। उपभोग के बाद रावण ने रम्भा को छोड़ दिया। वह अत्यन्त व्याकुल हो उठी। उसके हाथ काँपने लगे। लज्जा और भय से काँपती हुई वह नलकूबर के पास गई और हाथ जोड़कर उसके पैरों पर गिर पड़ी। उसे इस अवस्था में देखकर नलकूबर ने पूछा—“रम्भे! क्या बात है? तुम इस तरह क्यों मेरे पैरों पर पड़ गयीं?
थर-थर काँपती उस अबला ने लंबी साँस खीचकर पुन: हाथ जोड़ लिए और जो कुछ हुआ था, सब ठीक-ठीक बताना शुरू कर दिया—“देव! बहुत बड़ी सेना साथ लेकर दशमुख रावण देवलोक पर आक्रमण करने के लिए आया है। उसने आज की रात यहीं डेरा डाला है। आपके पास आते हुए उसने मुझे देख लिया और मेरा हाथ पकड़कर पूछने लगातुम किसकी स्त्री हो? मैंने सब-कुछ उसे सच-सच बता दिया, लेकिन उसने मेरी वह बात नहीं सुनी। मैं बार-बार कहती रही कि मैं आपकी पुत्र-वधू हूँ; लेकिन मेरी सारी बातें अनसुनी करके उसने बलपूर्वक मेरे साथ अत्याचार किया।