tag:blogger.com,1999:blog-8234335352219398549.post1355075017065437476..comments2023-10-10T02:40:42.354-07:00Comments on अपना दौर: पुस्तक, व्यवसाय और श्रीकृष्ण / बलराम अग्रवालबलराम अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/04819113049257907444noreply@blogger.comBlogger7125tag:blogger.com,1999:blog-8234335352219398549.post-55256661026847519802012-02-27T03:42:15.690-08:002012-02-27T03:42:15.690-08:00bahut hi umda lekh hai ,pdhte huye aankhen nam ho ...bahut hi umda lekh hai ,pdhte huye aankhen nam ho aaeenavanti singhhttps://www.blogger.com/profile/05644003040733538498noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8234335352219398549.post-33625498789833870172012-02-25T17:28:08.942-08:002012-02-25T17:28:08.942-08:00लेखक प्रकाशक सम्बन्धो के इस नये दौर में भी पराग प्...लेखक प्रकाशक सम्बन्धो के इस नये दौर में भी पराग प्रकाशन का ऐतिहासिक महत्व आज भी बना हुआ है। नई पीढी तो नवगीत दशको जैसे अनेक अनुपलब्ध ग्रंथो के लिए उन्हे खोजती है। लेकिन यह दौर बेईमानो का है,जहाँ अकूत पैसा है। प्रकाशक और लेखक दोनो करोडपती हैं। वास्तविक और ईमानदार लोगो को दलालो ने पीछे ढकेल दिया है ।उपेक्षा का विष पीना..ही पडेगा।भारतेंदु मिश्रhttps://www.blogger.com/profile/07653905909235341963noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8234335352219398549.post-69920613394805178972012-02-25T03:53:06.344-08:002012-02-25T03:53:06.344-08:00आदरणीय श्रीकृष्ण जी को मैंने आठवें दशक के आख़िर में...आदरणीय श्रीकृष्ण जी को मैंने आठवें दशक के आख़िर में उन दिनों में देखा था, जब पराग प्रकाशन एक से एक अद्भुत्त किताबें प्रकाशित किया करता था। कुछ क़िताबें तो आज भी मेरी निजी लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं। आज उनके बारे में बलराम अग्रवाल इस पोस्ट को पढ़कर सचमुच रोना आ गया।<br />मुझे याद है, अभी तीन चार बरस पहले मैं पराग प्रकाशन को ढूँढ रहा था,तब लोगों ने कहा था कि वह बंद हो गया है और उन्होंने नया प्रकाशन खोल लिया है। लेकिन मुझे यह नहीं मालूम था कि प्रकाशन की दुनिया के उस बादशाह का आज यह हाल हो गया है। मेरे मन में आज भी श्रीकृष्ण जी के प्रति गहरा सम्मान है और मैं उन्हें बेहद याद करता हूँ। ख़ासकर उन कई किताबों को जो उन्होंने छापी थीं और फिर वे अनुपलब्ध ही हो गईं। बलराम भाई से अनुरोध है कि उन्हें मेरी शुभकामनाएँ पहुँचा दें।अनिल जनविजयhttps://www.blogger.com/profile/02273530034339823747noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8234335352219398549.post-35757416140288214102012-02-25T01:00:03.806-08:002012-02-25T01:00:03.806-08:00Rajesh Utsahi wrote to me:
1:41 PM (43 minutes a...Rajesh Utsahi wrote to me:<br /> <br />1:41 PM (43 minutes ago)<br /> <br />to me<br />टिप्पणी बाक्स नहीं खुल रहा है।<br />श्रीकृष्ण जी का प्रसंग सचमुच यह दुखद है। विश्वपुस्तक मेले में कहीं इस मुद्दे पर भी विमर्श होना चाहिए।<br />राजेश उत्साहीबलराम अग्रवालhttps://www.blogger.com/profile/04819113049257907444noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8234335352219398549.post-27890028969184324682012-02-24T21:28:17.527-08:002012-02-24T21:28:17.527-08:00बलराम जी ,
श्री कृष्ण जी के बारे में एक संस्मरण रू...बलराम जी ,<br />श्री कृष्ण जी के बारे में एक संस्मरण रूप सिंह चंदेल जी का पढ़ा था और यह दूसरा आपका पढ़ रही हूँ | मेरे जैसे पाठक के लिए आपका यह आलेख पूर्व पठित आलेख का पूरक है| प्रकृति का यह विधान समझ में नहीं आता | भले लोगों के हिस्से ही दुनिया के सारे कष्ट आते हैं !<br />पुस्तक मेले और पुस्तक व्यवसायियों की अंतर्कथा भी आपने खूब उकेरी है !<br /> सादर<br />इलाIlahttps://www.blogger.com/profile/15571289109294040676noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8234335352219398549.post-12722313423102802812012-02-24T17:40:08.974-08:002012-02-24T17:40:08.974-08:00सुबह की सैर करके लौटा हूँ। और आते ही कंप्यूटर ऑन क...सुबह की सैर करके लौटा हूँ। और आते ही कंप्यूटर ऑन करके बैठ गया। मेल चैक किया तो तुम्हारा मेल देखा। 20वें विश्व पुस्तक मेले के पहले दिन ही तुमने एक गौरतलब और मर्म को छूने वाली पोस्ट दे दी। पहले ही दिन एक बेहद सरल, सज्जन, कर्मठ लेखक, प्रकाशक श्रीकृष्ण जी को याद करना, तुम्हारे भीतर के एक संवेदनशील लेखक की ओर इशारा करता है। यह महानगर का ही शाप है कि एक ही शहर में रहते हम उन आत्मीयों से नहीं मिल पाते जो दुर्भाग्य से बुरे और कठिन दिन जी रहे होते हैं… हमारी संवेदनाएं लगभग खत्म-सी हो गई हैं और हम उसके अपने भीतर जिन्दा होने का भ्रम पाले जी रहे हैं। दूसरों की क्या बात करें, हम अपने खुद के भीतर झांकते हैं तो नंगे हो जाते हैं। कहां गया वह आपसी प्रेम, मिलना-मिलाना, एक दूसरे के सुख-दुख को जानना… श्रीकृष्ण जी पर जब मित्र रूप सिंह चन्देल ने एक मार्मिक संस्मरण लिखा था तब भी मेरी आंखे नम हो आई थीं और आज फिर उनके विषय में पढ़ते हुए, उनकी इस हालत को देखते हुए नम हो आ रही हैं। मैंने दिल्ली में ऐसे ऐसे प्रकाशक देखे हैं जो कुछ वर्षों पहले कुछ नहीं थे, जो किताबें न बिकने का पहले भी रोना रोया करते थे, अब भी यही रोना रोते रहते हैं, पर अब इसी पुस्तक व्यवसाय से उनके पास एक नहीं, दो दो अच्छी गाड़ियां हैं, कोठी है पर लेखक को कुछ देते हुए उनकी जान निकलती है। श्रीकृष्ण जी के जब पराग प्रकाशन ने शिखर छुए थे…बहुत से लेखकों को लेखकीय गरिमा प्रदान की थी…बाद में जब अनुभूति प्रकाशन आरंभ किया तब भी उनका लेखकों के प्रति बेहद सौम्य और शिष्ट व्यवहार रहता था और वह हर संभव लेखक को कुछ देने की चिंता मन में रखते थे। यह तो भाग्य की विडम्बना ही है कि वे ऐसे डूबे की फिर तर नहीं पाए… आज वह बिस्तर पर हैं, असहाय हैं…वृद्ध है… और पति-पत्नी दोनों अकेले हैं, पर उनकी सुध लेने की चिंता न हिंदी के प्रकाशकों को है, न लेखकों को, सरकार को तो क्या ही होगी…<br /><br />आज से 20 वां पुस्त्क मेला प्रारंभ हो रहा है दिल्ली में…बहुत-सी नई किताबें देखने को मिलेंगी, बहुत-सी अनुपल्बध किताबों को पाकर मन में हर्ष होगा…नए-पुराने लेखक-मित्रों से भेंट होगी… उनसे भी जिन्हें पढ़ते रहे पर मिले कभी नहीं… इतनी सारी किताबों को एक जगह देखने का, उन्हें छूने का, उन्हें खरीदने-पढ़ने का सुख प्राप्त होगा… ये किताबें हमारे भीतर मरती जा रही संवेदना जो जिलाने का काम करती हैं… और हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने का भी… चलो, इन किताबों के कुछ ओर नज़दीक हो जाएं…सुभाष नीरवhttps://www.blogger.com/profile/06327767362864234960noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8234335352219398549.post-86788488532844858672012-02-24T16:56:55.922-08:002012-02-24T16:56:55.922-08:00प्रिय बलराम,
तुम्हारा यह आलेख पढ़कर आंखों में आंसू...प्रिय बलराम,<br /><br />तुम्हारा यह आलेख पढ़कर आंखों में आंसू आ गए. मैंने श्रीकृष्ण जी की इस स्थिति की कल्पना नहीं की थी, जो चित्र में देखा. शायद २०१० की बात है या उससे कुछ पहले की तब मैं तुमसे ही उनका फोन नं. लेकर उनसे मिलने गया था. उसके बाद उनसे कई बार फोन पर बात भी हुई थी. इंडिया टुडे में गुलाम बादशाह की समीक्षा प्रकाशित होने के बाद उन्होंने उसकी सूचना मुझे दी थी. तब से कितनी ही बार जाने की सोचा लेकिन जा नहीं पाया. सोचा था कि पुस्तक मेला के बाद ’यादों की लकीरें’ लेकर जाउंगा उन्हें देने जिसमें उनपर मेरा संस्मरण प्रकाशित है. कितना दुखद है. रामकुमार भ्रमर ही उनकी इस तबाही का कारण बने थे---उन्हें वह कैसे भूल सकते हैं. भाई दुनिया ऎसी ही है. डूबती नाव की ओर कोई देखता भी नहीं. चढ़ते सूरज को सभी सलाम बजा लाते हैं.<br /><br />तुम्हें इस आलेख के लिए धन्यवाद. <br /><br />रूपसिंह चन्देलरूपसिंह चन्देलhttps://www.blogger.com/profile/01812169387124195725noreply@blogger.com