आदमी का हर अनुभव उसकी गलती की कोख से जन्म लेता है। जितनी ज्यादा गलतियाँ, उतने ज्यादा अनुभव। इस सम्बन्ध में एक मुख्य बात यह अवश्य याद रखें कि— गलतियाँ की नहीं जातीं, हो जाती हैं और मूर्ख वह नहीं जो गलतियाँ करता है; बल्कि मूर्ख वह है जो एक ही प्रकार की गलती को बार-बार दोहराता है।
बुधवार, 25 नवंबर 2009
केरल यात्रा-5
आदमी का हर अनुभव उसकी गलती की कोख से जन्म लेता है। जितनी ज्यादा गलतियाँ, उतने ज्यादा अनुभव। इस सम्बन्ध में एक मुख्य बात यह अवश्य याद रखें कि— गलतियाँ की नहीं जातीं, हो जाती हैं और मूर्ख वह नहीं जो गलतियाँ करता है; बल्कि मूर्ख वह है जो एक ही प्रकार की गलती को बार-बार दोहराता है।
बुधवार, 18 नवंबर 2009
केरल यात्रा-4
रोमन से अनुवाद के सम्बन्ध में मेरा एक छोटा-सा उदाहरण यह अनुभव भी प्रस्तुत कर देना विषय से अलग नहीं माना जाना चाहिए—2005 की बात है। कर्नाटक एक्सप्रेस के द्वितीय श्रेणी स्लीपर में बैठा मैं बंगलौर से दिल्ली की यात्रा पर था। मेरी बर्थ के आसपास ही एक नौजवान की भी बर्थ थी। वह बंगलौर स्थित किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में इटेलियन से हिन्दी या अंग्रेजी भाषा में अथवा हिन्दी या अंग्रेजी से इटेलियन भाषा में अनुवादक के पद पर कार्यरत था। उसने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से इटेलियन में स्नातक की उपाधि ली थी और इटली से स्कॉलरशिप भी उसे मिली थी। उससे मुझे पता चला कि इटेलियन में ‘च’ वर्ण नहीं है और न ही ‘च’ उच्चारण है।
“लेकिन हिन्दी के सारे अखबार ‘क्वात्रोच्चि’ नाम दशकों से छाप रहे हैं?” मैंने कहा।
“वे सब उसके नाम के अंग्रेजी स्पेलिंग्स को अनुवाद करके छाप रहे हैं।” उसने बताया,“सही इटेलियन नाम ‘क्वात्रोक्कि’ है।”
वाकई, बाद में जैसे-जैसे हिन्दी पत्रकार इस सत्य से परिचित होते गए, वैसे-वैसे ‘क्वात्रोच्चि’ को ‘क्वात्रोक्कि’ लिखा और पढ़ा जाने लगा था। समाचार-माध्यमों में इस तरह के अनगिनत उदाहरण भरे पड़े हैं। यह एकदम अलग बात है कि कुछ लोग यह (कु)तर्क पेश करें कि ‘क्वात्रोक्कि’ लिखा जाय या ‘क्वात्रोच्चि’ क्या अन्तर पड़ता है, समाचार का असल उद्देश्य तो घटना(अथवा दुर्घटना) से आम आदमी को परिचित कराना होता है, न कि नामों की शुद्धता या अशुद्धता से परिचित कराना; सो हम करा ही देते हैं।
जिस समय अपनी टैक्सी के साथ अरुण उपस्थित हुआ, सबसे पहले उसने हमसे यही कहा—“सर, आपके पास अगर ऑडियो सीडीज़ हों तो रख लीजिए, मेरी गाड़ी में प्लेयर है।…और अगर वीसीडी हो तो वह भी आप रख सकते हैं…।”
ऑडियो-प्लेयर्स का या मिनी-साइज़ टीवी सेट्स का होना तो मैंने दिल्ली की कुछ गाड़ियों में देखा था, लेकिन वीसीडी-प्लेयर भी होता है—यह नहीं मालूम था। वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में कुछ भी असंभव नहीं है। नई बातों को सुनकर या नई चीजों को देखकर किसी का भी पहली बार चौंकना अस्वाभाविक नहीं है। हमारी उम्र के लोगों ने अपनी किशोरावस्था में कब यह कल्पना की थी कि एक दिन सारी दुनिया हमारी गोद में टिकी होगी! कम से कम मैंने तो घर की मेज या अलमारी के ऊपर एक अदद रेडियो के रखे होने से अधिक की न कल्पना की थी, न इच्छा। आज मेरे आठ वर्षीय भतीजे की गोद में भी दुनिया(लैपटॉप) है, और अपनी तर्जनी के हल्के-से एक इशारे से वह उसके जिस हिस्से को चाहे अपने सामने आ उपस्थित होने को विवश कर सकता है।
नोट:इस पोस्ट में संलग्न सभी फोटो मेरे कनिष्ठ पुत्र आदित्य अग्रवाल द्वारा खींचे गए हैं। इस बार के तीनों फोटो चाय-बाग़ानों के हैं।
शनिवार, 14 नवंबर 2009
केरल यात्रा-3
बुधवार की सुबह बेटी के यहाँ से जब यह फोन आया कि वे लोग हमारे साथ नहीं जा पाएँगे तो आकाश को आश्चर्य हुआ और मुझे कष्ट।
“जीजाजी ने शाम को बड़े सकारात्मक मूड में विचार करने को कहा था…ऐसा नहीं लग रहा था कि वह मना कर देंगे।” उसके मुँह से निकला, लेकिन मैं समझ चुका था कि उन्हें उस वक्त परखने में या तो उसने वाकई गलती की या वह जानबूझकर यह गलती करना चाह रहा था। वे लोग हमारे साथ न जाएँ—मेरी इस इच्छा के पीछे जो कारण था, जाने से मना करने के पीछे विपिन का कारण वह नहीं था इसीलिए मुझे कष्ट महसूस हुआ। उस कारण को विपिन भी समझते थे और हम सब भी, लेकिन उस पर बहस नहीं कर सकते थे—न तब, न अब। इस कष्ट के दौरान एक क्षण को मेरे मन में समूचे टूर को ही कैंसिल कर देने का विचार भी आया, लेकिन अपनी उस मन:स्थिति पर मैंने काबू पाया और अपने आप को सामान्य बनाए रखने का प्रयत्न किया। अपनी कोशिश में मैं सफल भी रहा।
हम सभी के सामने कभी-न-कभी ऐसी परिस्थितियाँ प्रस्तुत हो जाती हैं जो हमारी आकांक्षाओं से मेल नहीं खातीं। उन पर काबू पाने का प्रयत्न करने की बजाय हम उनसे किनारा करने का गलत निर्णय लेते हैं। फ्रायड ने इसे मृत्यु-वृत्ति(Death Instinct) कहा है। यह एक नकारात्मक वृत्ति है और कभी-कभी मन और मस्तिष्क को इस प्रकार अपनी गिरफ्त में ले लेती है कि भीतर से निकलने वाले सारे तर्क गर्त में चले जाने को उचित ठहराने लगते हैं। किसी भी कारण से कुछ क्षोभ हुआ नहीं कि आगे का सारा प्रोग्राम चौपट। मृत्यु-वृत्ति के भी दो रूप बताए गए हैं। पहला वह, जिसमें व्यक्ति स्वयं को कष्ट देकर सन्तोष का अनुभव करता है और दूसरा वह जिसमें दूसरों को कष्ट देकर सन्तोष का अनुभव करता है। कई बार व्यक्ति इसलिए भी स्वयं को कष्ट देने की वृत्ति अपना सकता है कि उसको देखकर उससे लगाव रखने वालों को कष्ट होगा जिसे देखकर वह सन्तोष का अनुभव कर सकता है। मनस्ताप के कुल मिलाकर इतने प्रकार मनोविश्लेषण-विज्ञान ने प्रस्तुत कर डाले हैं कि उनसे परिचित व्यक्ति को अक्सर स्वयं अपने भी मनस्तापी होने का सन्देह-सा होने लगता है। किताबों में ज्यादा डूबना शायद इसीलिए अच्छी आदत नहीं मानी जाती है। लेकिन यह भी तो सही है कि हम अगर मानव-व्यवहार के विश्लेषण की समझ रखते हैं और कोई भी कार्य करते हुए
स्व-विवेक का प्रयोग करने के अभ्यस्त हो जाते हैं तो बहुत-से नकारात्मक निर्णय लेने से बच जाते हैं। बहरहाल, मन पर से हर प्रकार के बोझ को दरकिनार करके हमने यात्रा पर निकलने का निश्चय किया। मन पर बोझ के साथ कोई किसी भी यात्रा में आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता। बिगड़े हुए हालात को सुधारने के लिए प्रयत्नशील हमारे तत्कालीन हालात ने एकाएक ऐसा रुख अपना लिया था कि हम अगर सभी साथ जाते तो वह बोझ यात्रा के दौरान कभी-भी आ उपस्थित हो सकता था।
सभी के साथ चलना हमेशा ही सुखदायी नहीं होता। सुख का अनुभव करने के लिए आदमी को कभी-कभी अकेले भी निकलना पड़ता है—घर से भी, देह से भी।
नोट:इस पोस्ट में संलग्न सभी फोटो मेरे कनिष्ठ पुत्र आदित्य अग्रवाल द्वारा खींचे गए हैं। इस बार का पहला व तीसरा—दो फोटो करीमुट्टी फॉल्स के हैं तथा दूसरा मरयूर-क्षेत्र के आसपास चाय-बाग़ानों का है।
शुक्रवार, 13 नवंबर 2009
केरल यात्रा-2
‘बेटी-दामा
द भी चलेंगे तो पूरा परिवार ही एक साथ हो जाएगा न।’ मीरा ने कहा—‘ऐसा मौका बार-बार कहाँ आता है।’
‘ओजस ठंड पकड़ गया तो बहुत मुसीबत हो जाएगी।’ मैंने दबाव डाला—‘बचपन की बीमारियाँ बड़ी उम्र तक दु:ख देती हैं।’
‘तुम टाँग मत अड़ाओ और चुप रहो।’ वह बोली। मैं चुप हो गया। वास्तविकता तो यह थी कि यात्रा के आनन्द को वह बेटी-दामाद और दौहित्र के साथ भोगना चाहती थी और इस उल्लास में बच्चे के स्वास्थ्य-सम्बन्धी सुरक्षा की ओर अतिरिक्त विश्वास से भर उठी थी। वस्तुत: ऐसा होना नहीं चाहिए। सुरक्षा-सम्बन्धी मामलों में हमारे पैर हमेशा जमीन पर ही रहने चाहिएँ।
नोट:इस पोस्ट में संलग्न सभी फोटो मेरे कनिष्ठ पुत्र आदित्य अग्रवाल द्वारा खींचे गए हैं। इस बार के दो फोटो मुन्नार-क्षेत्र के आसपास चाय-बाग़ानों के तथा एक ओजस का है।
केरल यात्रा-1
मित्रो, पिछले माह यानी अक्तूबर 2009 की 16 तारीख से मैं सपत्नीक अपने बेटों के पास बंगलौर में हूँ। इस दौरान हम सबने कर्नाटक की कुर्ग-घाटी, जो कि कॉफी की खेती के लिए विश्व में प्रसिद्ध है तथा केरल के कुछ स्थानों की यात्रा की। इस दौरान देश
में और विश्व में अनेक प्रिय-अप्रिय घटनाएँ घटीं। इस दौरान कवि-कथाकार मित्र सुभाष नीरव के पिताश्री ने देह का त्याग किया तो मेरे प्रिय पत्रकार ‘जनसत्ता’ के यशस्वी संपादक प्रभाष जोशी भी इस संसार को विदा कह गए। अभी तक मैं ‘जनगाथा’, ‘कथायात्रा’ तथा ‘लघुकथा-वार्ता’ के माध्यम से लघुकथा-साहित्य आपके समक्ष प्रस्तुत करता रहा हूँ। ‘अपना दौर’ के माध्यम से प्रयास रहेगा कि समय और समाज से जुड़े अपने व मित्रों के अनुभवों को आपके साथ बाँट सकूँ। इसकी पहली किश्त के रूप में प्रस्तुत है केरल-यात्रा से जुड़ा यह अनुभव:

सरकारी आँकड़ों की बात करें तो केरल भारत का पहला ९१ प्रतिशत साक्षर प्रदेश है। स्कूल स्तर से ही यहाँ पर मलयालम और अँग्रेजी पढ़ाने का प्रावधान है। मलयालम यहाँ की प्रांतीय भाषा है और घोषित रूप से प्रशासकीय भाषा भी। मलयालम को भारत की संवैधानिक भाषा के रूप में मान्यता-प्राप्त है। केरल में रहने वाले मूल द्रविण सामान्यत: तमिल भाषा बोलते हैं जो कि चेर शासकों के समय में राज-काज की भाषा थी। मलयालम ने अपना प्रभाव 10वीं सदी के आसपास फैलाना शुरू किया। आम आदमी द्वारा आसानी से समझे जा सकने वाले आसान शब्दों से लैस होने के कारण यह तेजी से अपनायी जाने लगी। आज मलयालम की अपनी लिपि तथा अपना लिखित साहित्य है। ऐसा माना जाता है कि आर्यों द्वारा प्रसारित संस्कृत के प्रभाव के कारण मलयालम को किंचित क्षति पहुँची थी। नम्बूदिरियों द्वारा भी समाज में संस्कृत का खुला प्रयोग किया गया, लेकिन मलयालम की लोकप्रियता और शब्द-भंडार इस सबसे कम होने के स्थान पर बढ़े ही। स्थानीय लोगों ने संस्कृत के शब्दों को मलयालम में ढालकर प्रयोग करना शुरू कर दिया। इसी से इसे मणिप्रवलम भी कहा जाता है। वर्तमान मलयालम में लगभग 53 अक्षर हैं जिनमें से 20 दीर्घ व ह्रस्व स्वर हैं तथा शेष 33 व्यंजन। सन् 1981 से मलयालम को की-बोर्ड के उपयुक्त बनाने की दृष्टि से इसकी लिपि में कुछ सुधार किए गए। यही कारण है कि टाइप की दृष्टि से इन दिनों मलयालम में 90 अक्षर हैं।

ऐसा बहुत बार होता है कि हम अपने मददगार के तरकश को उन तीरों से खाली समझने की गलती कर बैठते हैं जो हमारी जान बचाने के लिए बहुत जरूरी होते हैं और नकारात्मक अनुमानों के सहारे बड़ी आसानी से उस जंग को हार जाते हैं जिसे जीता जा सकता था।
नोट:इस पोस्ट में संलग्न सभी फोटो मेरे कनिष्ठ पुत्र आदित्य अग्रवाल द्वारा खींचे गए हैं। इस बार के फोटो ‘एलेप्पी’(Alleppey) स्थित बैक-वॉटर्स के हैं।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)