सोमवार, 25 जुलाई 2016

जाना लल्ला जी का



श्रृद्धांजलि
योगेन्द्र कुमार लल्ला जी
धर्मयुग में श्री मनमोहन सरल और योगेंद्र कुमार लल्ला की जोड़ी थी। १९७८ में मैंने धर्मयुग ज्वाइन किया तो सरल जी और लल्ला जी सहायक सम्पादक और श्री गणेश मंत्री जी मुख्य उप संपादक थे। सरल जी और लल्ला जी की जोड़ी धर्मयुग के बाद भी बनी रही , दोनों ने मिल कर बाल साहित्य और सामान्य कथाओं की कई किताबें लिखीं। संलग्न हैं लल्ला जी की सरलता, सहजता और ऋजुता को दिखातीं उनकी चार बाल- कवितायें।
नमन। बहुत-बहुत विनम्र श्रद्धांजलि।---ओम प्रकाश सिंह
वे उनमे से एक थे , जिन्होंने सातवें- आठवें-नवें दशक में हिंदी पाठकों के एक बड़े समूह को संस्कार दिया। 
ओम प्रकाश सिंह

मेला

आओ मामा, आओ मामा!
मेला हमें दिखाओ मामा!
सबसे पहले उधर चलेंगे
जिधर घूमते उड़न खटोले,
आप जरा कहिएगा उससे
मुझे झुलाए हौले-हौले!
अगर गिर गया, फट जाएगा,
मेरा नया-निकोर पजामा!
कठपुतली का खेल देखकर
दो धड़की औरत देखेंगे,
सरकस में जब तोप चलेगी
कानों में उँगली रखेंगे!
देखेंगे जादू के करतब,
तिब्बत से आए हैं लामा!
फिर खाएँगे चाट-पकौड़ी
पानी के चटपटे बताशे,
बच जाएँगे फिर भी कितने
दूर-दूर से आए तमाशे!
जल्दी अगर न वापस लौटे,
मम्मी कर देंगी हंगामा!

कर दो हड़ताल

कर दो जी, कर दो हड़ताल, पढ़ने-लिखने की हो टाल।
बच्चे घर पर मौज उड़ाएँ,
पापा-मम्मी पढ़ने जाएँ।
मिट जाए जी का जंजाल,
कर दो जी, कर दो हड़ताल!
जो न हमारी माने बात,
उसके बाँधो कस कर हाथ!
कर दो उसको घोटम-घोट,
पहनाकर केवल लंगोट।
भेजो उसको नैनीताल,
कर दो जी, कर दो हड़ताल!
राशन में भी करो सुधार,
रसगुल्लों क हो भरमार।
दो दिन में कम से कम एक,
मिले बड़ा-सा मीठा केक!
लड्डू हो जैसे फुटबाल,
कर दो जी, कर दो हड़ताल!
हम भी अब जाएँगे दफ्तर,
बैठेंगे कुरसी पर डटकर!
जो हमको दे बिस्कुट टॉफी,
उसको सात खून की माफी।
अपना है बस, यही सवाल,
कर दो जी, कर दो हड़ताल!

कमाल

दुनिया में कुछ करूँ कमाल,
पर कैसे, यह बड़ा सवाल!
एक उगाऊँ ऐसा पेड़
जिसमें पत्ते हों दो-चार,
लेकिन उस पर चढ़कर बच्चे
देख सकें सारा संसार।
बड़े लोग कोशिश कर देखें
चढ़ने की, पर गले न दाल।
एक बनाऊँ ऐसी रेल
जिसमें पहिए हों दो-चार,
बिन पटरी, बिन सिग्नल दौड़े
फिर भी बड़ी तेज रफ्तार।
बटन दबाते ही जा पहुँचे
कलकत्ता से नैनीताल।
एक बनाऊँ ऐसी झील
जिसमें नाव चलें दो-चार,
पानी घुअने-घुटने हो पर
बच्चे तैरें पाँच हजार।
खिलें कमल की तरह टाफियाँ
ना खाएँ तो रहे मलाल।

तोते जी

तोते जी, ओ तोते जी!
पिंजरे में क्यों रोते जी!
तुम तो कभी न शाला जाते,
टीचर जी की डाँट न खाते।
तुम्हें न रोज नहाना पड़ता,
ठीक समय पर खाना पड़ता।
अपनी मरजी से जगते हो,
जब इच्छा हो, सोते जी!
फिर क्यों बोलो, रोते जी!
तुम्हें न पापा मार लगाते,
तुम्हें न कड़वी दवा पिलाते!
तुम्हें न मम्मी आँख दिखाती,
तुम्हें न दीदी कभी चिढ़ाती!
खूब उछलते, खूब कूदते,
कभी नहीं चुप होते जी!
फिर क्यों बोलो रोते जी!
आओ, तुम बाहर आ जाओ,
मुझ जैसा बच्चा बन जाओ,
सबसे मेरे लिए झगड़ना,
पर दादी से नहीं बिगड़ना!
तुम ही मेरी बुढ़िया दादी-
के बन जाओ पोते जी!
अब क्यों बोलो रोते जी!


(बायें से) आ॰ योगेन्द्र कुमार लल्ला जी, उपन्यासकार रूपसिंह चन्देल, बलराम अग्रवाल(चित्र साभार : रूपसिंह चन्देल)


कोई टिप्पणी नहीं: