गुरुवार, 25 अगस्त 2011

नैतिक पतन की पराकाष्ठा/बलराम अग्रवाल

                                                                                                       चित्र : बलराम अग्रवाल
'जन लोकपाल बिल' को संसद में पेश करने और पास कराने की माँग को लेकर 16 अगस्त, 2011 से अनशन पर बैठे अन्ना हजारे की जान और सेहत दोनों की शासक पक्ष और विरोधी पक्ष दोनों के सांसदों को कितनी चिंता है, यह 24 अगस्त, 2011 को प्रधानमंत्री आवास पर संपन्न सर्वदलीय बैठक में साफ हो गया। अनशन पर पहले संसद में गोलबंदी, फिर सर्वदलीय बैठक में मिले सुर मेरा तुम्हारा किस्म की बेशर्म एकजुटता का ही कमाल है कि एक दिन पहले जो कांग्रेसी सरकार के वार्ताकार जन लोकपाल बिल की अधिकांश बातों पर सहमति दिखा रहे थे और टीम अन्ना के साथ सम्मानपूर्ण रवैया अपना रहे थे, ठीक एक दिन बाद उन्होंने उन्हें न केवल टका-सा जवाब दे दिया, बल्कि डाँटा भी। अरविंद केजरीवाल के शब्दों में—“उन्होंने हमसे कह दिया कि जन लोकपाल बिल संसद में प्रस्तुत नहीं किया जाएगा।  न्यूज चैनल के संवाददाता से यह कहते हुए केजरीवाल का चेहरा दयनीय स्थिति तक उतरा हुआ था। उससे यह हताशा टपक रही थी कि इस हद तक गैर-जिम्मेदार सत्तासीनों का क्या किया जाय? तो फिर अन्ना के अनशन का क्या होगा?” अरविंद ने सरकार से पूछा और अरविंद के ही मुख से  सरकार का जवाब सुनिए-अन्ना अनशन करना चाहें तो करते रहें. यह आपकी समस्या है।
सवाल यह पैदा होता है कि इस स्वतंत्र देश में, इस स्वतंत्र गणतांत्रिक देश में जनता के हित की आवाज को अहिंसक अनशन के माध्यम से अगर कोई व्यक्ति सरकार के कानों तक पहुँचाना चाहे तो उसके जीवन और स्वास्थ्य की चिंता से क्या सरकार को इसलिए अलग खड़ी हो जाना चाहिए कि उक्त व्यक्ति या व्यक्ति-समूह उसके मन मुताबिक बर्ताव क्यों नहीं कर रहा है?
दोस्तो, सरकारी वार्ताकारों द्वारा टीम अन्ना से ही नहीं किसी से भी यह कहे गये शब्द कि अन्ना अनशन करना चाहें तो करते रहें. यह आपकी समस्या है। शासक समझे जाने वाले व्यक्तियों के नैतिक पतन की पराकाष्ठा को दर्शाते हैं। इस वाक्य की जितनी भर्त्सना की जाय कम है।

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