बुधवार, 4 अप्रैल 2012

आज असुंदरता, कुरूपता भव से ओझल/बलराम अग्रवाल

किसी समय निरा पथरीला होने के कारण खाण्डवप्रस्थ कहे जाने वाले इस भू-भाग को पाण्डवों के हितैषी इन्द्र की कृपा से सुधरने-सँवरने का मौका मिला और इसे इन्द्रप्रस्थ कहा जाने लगा। तब से, पता नहीं क्या-क्या दिन देखता हुआ यह भूखण्ड कब नगर से नगरी यानी पुरुष से स्त्री बन गया, खुद इसे भी शायद ठीक-ठीक याद न हो। बहरहाल, अब यह दिल्ली’ है और देश का दिल बनी 
      एक ज़माना था जब दिल्ली के मूल निवासी उत्तर प्रदेश की ओर वाले जमुनापारियों को उस निगाह से देखते थे, जिस निगाह से आम तौर पर आज एक प्रदेश विशेष के लोग देखे जाते हैं। मैं जब जामा मस्जिद के नज़दीक मटिया महल में स्थित अपने बड़े मामाजी की ससुराल जाता था तो नानी(मामाजी की सास) लो आ गए पुरबिए कहकर मेरी अगवानी करती थीं। मेरे गृहनगर बुलन्दशहर में, पुरबिया सम्बोधन इटावा-एटा-मैनपुरी-आजमगढ़ आदि उत्तर प्रदेश के धुर पूरबी निवासियों को दिया जाता था और इतने गहरे प्रेम के साथ कि वो बेचारे चिढ़-से जाते थे। इसलिए मैं भी चिढ़ जाता था और नानी से पूछता थाहम पुरबिए कैसे हैं नानी?
जमुना के पार रहने वाले सब पुरबिए हैं। वह एक झटके में सारे तर्क खत्म करते हुए कहती थीं।
           
लाल कनेर
आज नानी नहीं हैं। होतीं, तो देखतीं कि कैसे दिल्लीवाले अब जमनापार आकर पुरबियों के बीच खुशी-खुशी रहते हैं। पुरानी दिल्ली के मकान दिल्लीवालों की सन्ततियों में बँटते-बँटते दरअसल सुविधापूर्वक रहने लायक रह नहीं गए हैं। मात्र ढाई-ढाई, तीन-तीन हाथ चौड़ी गलियाँ जब पैदल आदमी को ही मुश्किल से बर्दाश्त करती थीं तो साइकिलों, मोटर-साइकिलों, स्कूटरों और रिक्शाओं को कैसे बर्दाश्त कर सकती थीं। फिर, आमदनी और जरूरत कितनी भी कम क्यों न हो, दिखावा करने में दिल्लीवाले किसी से पीछे शायद ही कभी रहे हों। कलफदार कपड़े और गले में सोने की चेन डालने का मज़ा ही क्या रहा। अगर किराए की टैक्सी को अपनी खुद की गाड़ी न बताया; और खुद की गाड़ी होने का भी क्या मज़ा रहा, अगर उसे अपने घर के दरवाज़े तक न लाया ले-जाया जा सका। इस लिहाज़ से वे गलियाँ अब उनके रहने लायक रहीं नहीं। सो दिल्लीवाले  
आकाश छूने को बेताब--बोगनबेलिया
पुरबियों में आ मिले। यहाँ की कुछ कालोनियाँ नियोजित ढंग से बसी हैं। मज़े की बात तो यह है कि बावजूद तमाम बदइन्तज़ामियों और प्रशासकीय लापरवाहियों के जमनापार का इलाकां निम्न, निम्न-मध्य और मध्य-मध्य आय-वर्ग के लोगों के रहने लायक बना हुआ है; और इन दिनों तो चारों ओर बहार है।  प्रकृति के चितेरे कवि सुमित्रानन्दन पंत की ग्राम्या में लिखित ये पंक्तियाँ अनायास ही याद आ जाती हैं: 
चिर परिचित माया बल से बन गए अपरिचित,
निखिल वास्तविक जगत कल्पना से ज्यों चित्रित!
आज असुंदरता, कुरूपता भव से ओझल!
सब कुछ सुंदर ही सुंदर, उज्वल ही उज्वल!

आइए, देखते हैं पूर्वी दिल्ली के सीलमपुर-वेलकम से सटे झील वाले पार्क  की कुछ  विशेष छटाएँ
नेवलों, चूहों या ठण्डक की तलाश में कुत्ता

 
जंगल जलेबी भरपूर फूल रही है, फल अगले माह तक
इससे ज्यादा सुलभ शौचालय आसपास नहीं हैसभी चित्र: बलराम अग्रवाल