चित्र:बलराम अग्रवाल |
आप अभी बिस्तर
में ही पड़े हों, फोन आये, आप उठायें, इधर से ‘हलो’ करें और उधर से ‘यार, बुरी खबर है’
सुनाई दे तो एक पल के लिए दिमाग का सुन्न और धड़कन का ठहर-सा जाना स्वाभाविक है।
यही
हुआ आज सुबह। भाई रूपसिंह चंदेल का फोन था।
“क्या
हुआ?” मैंने पूछा तो बोले, “राजेंद्र जी चले गये, रात बारह बजे।”
“ओह!”
गले से अचानक निकला। फिर पूछा, “अन्त्येष्टि कितने बजे है?”
“यह
अभी पता नहीं चल पाया, दरअसल किसी को अभी कुछ मालूम नहीं है।” उन्होंने कहा, “मैं मन्नू
जी को फोन करके पूछता हूँ, तुम भी किसी से पता करो।” और फोन काट दिया।
मैंने
तुरंत ही हरिनारायण जी को फोन मिलाया। अन्त्येष्टि के समय और स्थान के बारे में उन्हें
भी कुछ पता नहीं था। समाचार चैनल्स को उलटा-पलटा। राजेंद्र जी के निधन का समाचार तो
था; कहीं-कहीं यह स्ट्रिप भी चल रही थी कि अन्त्येष्टि 3 बजे होगी, लेकिन स्थान के
बारे में सूचना शायद उन तक भी नहीं पहुँची थी। बहरहाल, कुछ देर बाद चंदेल जी का ही
फोन आया, “हलो बलराम, अन्त्येष्टि लोदी रोड श्मशान पर होगी, तीन बजे। बताओ, किस तरह
चलोगे?”
“इधर
अजय और उमेश जी से बात करके मैं आपको कुछ देर बाद फोन करके बताता हूँ।” मैंने कहा और
फोन कट गया।
पिछले
कुछ वर्षों से राजेंद्र जी ने अपने-आप को साहित्य की दुनिया का खलनायक बनाया हुआ था।
अपने खिलाफ माहौल बनाने और उसका आनंद लेने की कला में उन्होंने पारंगतता हासिल कर ली
थी। दो-तीन माह में एकाध बार मैं जब भी उनसे मिलता, वे पूछते—“हंस में आपको क्या ऐसा
लगता है जिससे आपकी असहमति बनती हो?”
उन्होंने
हमेशा असहमतियों के बारे में जानना चाहा, गोया कि प्रशंसा करने वाले तो उनके पास आते
ही रहते होंगे। उनसे पिछली मुलाकात अगस्त 2013 की किसी तारीख को हुई थी। पूछा, “यह
बताओ कि ‘हंस’ में हम बेहतर और-क्या कर सकते हैं?”
“मैंने
कभी भी इस बारे में नहीं सोचा।” मैंने कहा।
“क्यों?”
“मुझे
कभी लगा नहीं कि आप इसे बेहतर बनाने के बारे में कभी सोचते हैं।”
“पूछ
तो रहा हूँ।”
“अगली
बार आऊँगा तो इस बारे में सोचकर आऊँगा। मैं सच कह रहा हूँ कि मैंने कभी भी यह महसूस
नहीं किया कि जिस ढर्रे पर आपने कुछ वर्षों से हंस को डाला हुआ है, उससे हटने के बारे
में आप कभी सोचते हैं।”
ये
वे दिन थे जब एक महिला का मसला काफी तूल पकड़ चुका था। सुधीश पचौरी ‘हिन्दुस्तान’ के
अपने कॉलम में उनकी बखिया उधेड़ चुके थे और उनका अपना स्टाफ अन्दर ही अन्दर उस महिला
के खिलाफ उनसे सुलग रहा था। उस जैसे बेहूदा और कन्ट्रोवर्शियल मुकदमों पर बात करना
मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगता इसलिए राजेंद्र जी से इस बारे में कोई चर्चा नहीं हुई
थी।
पिछले
साल, मार्च 2012 में उनका स्वास्थ्य जानने के लिए मैं और चंदेल मयूर विहार स्थित उनके
निवास पर गये थे। उनका अटैंडेंट अभी उन्हें तैयार कर ही रहा था, इसलिए हमसे कुछ देर
बाहर ही रुकने को कहा गया। हमें जब अंदर बुलाया गया तब वे खिड़की के सहारे छोटे आकार
के एक पलंग पर लेटे थे। काफी अस्वस्थ थे। किसी का फोन आने पर वे सुनने लगे तो मैंने
अपने कैमरे को क्लिक कर दिया। फ्लश कौंधी तो उन्होंने अनुरोध किया, “फोटो मत खीचिए।”
मैंने कैमरा अपने बैग में रख लिया; लेकिन फोटो तो उनकी खिंच ही चुकी थी। ऊपर वही फोटो
मैं आज उनके बाद पहली बार सार्वजनिक कर रहा हूँ। मैं जब भी मिला, मुझे यही लगा कि वे
करीने से उठने-बैठने वाले व्यक्ति थे। अपने बारे में वे ब्यूटी-सेंसिटिव भी थे। पिछले
साल मौत के मुँह में जा ही बैठे थे; लेकिन साफ-सफ्फाक तरीके से जाना उन्हें शायद पसंद
नहीं था इसीलिए लौट आये। हंस में अप्रैल 2012 का उनका संपादकीय पढ़कर मैं चौंक-सा गया
था—जिस आदमी को मौत ने अपने मज़बूत जबड़ों में जकड़ा हुआ है, वह ‘बुर’ की बातें कर रहा
है!! रहा नहीं गया। मई माह में, जब वे ऑफिस जाने लगे तो एक दिन जाकर उनसे मिला। उनकी
ओर से वही शाश्वत सवाल आया, “हंस के किस तरह के आर्टिकल से आपकी असहमति बनती है?”
“सबसे
पहले तो आपके संपादकीय से ही मेरी असहमति बनती है।” मैंने कहा।
“किस
तरह की असहमति?” उन्होंने पूछा।
“यादव
जी, पिछले महीने जब मैं और चंदेल आपसे मिलने आपके घर गये थे, तब आप ताबूत में लेटे
थे।” मैंने कहा, “बहुत मुमकिन है कि अप्रैल का संपादकीय भी आपने उसी में लेटे-लेटे
लिखा हो।…”
वह
मेरी ओर देखते रहे।
“ताबूत
में लेटकर भी कोई आदमी 'बुर' और 'भग' ही सोचेगा, यह मेरी समझ से बाहर है।” मैने कहा।
“पुराण
काल के ॠषि-मुनि, जो नियोग के लिए जाते थे, वे जवान होते थे!!” उन्होंने तर्क दिया।
“ऐसा
तो कहीं नहीं लिखा कि वे कब्र में लेटे होते थे।”
“वे
जवान होते थे, यह भी तो कहीं नहीं लिखा।”
मैं
समझ गया कि वे असहमति के बिंदु मुझसे जरूर पूछते हैं, मेरी असहमतियों से सहमत हो नहीं
पाते हैं। मैं उनसे कहता भी था, “यादव जी, दरअसल जिस संस्कार में मैं पला हूँ उसके
चलते, आपके स्वच्छंद काम से असहमति के अलावा आप में कुछ-और मुझे मिलता ही नहीं है।”
"फिर आप हंस को पढ़ते क्यों हैं?"
"असहतियों से परिचित रहने के लिए।"
"फिर आप हंस को पढ़ते क्यों हैं?"
"असहतियों से परिचित रहने के लिए।"
उन्ही
दिनों ‘बीमार आदमी के स्वस्थ विचार’ या ‘स्वस्थ आदमी के बीमार विचार’ जैसी कोई पुस्तक
भी उनकी विचारधारा पर केंद्रित आई थी, मैं पढ़ नहीं पाया। उन्हें स्वयं बदनाम होकर भी
दूसरों को चर्चा में लाने का आत्मघाती रोग लग गया महसूस होता था। मुझे लगता है कि उनके
चले जाने के पीछे इसी रोग का हाथ अधिक है। यह रोग न लगता तो चौबीसों घंटे उनकी देखभाल
में खटने वाला अटैंडेंट उनसे अलग न हो पाता और उसके रहते वे शायद समय पर इलाज पा जाते।
लेकिन यम के दूत अपने ऊपर कोई आँच नहीं आने देते। मौत का बहाना वे किसी न किसी व्यक्ति
या हालात के मत्थे मढ़ देने में पारंगत हैं।
कुल मिलाकर राजेंद्र यादव ने अपने युग को अपने तरीके से जिया और वैसे ही जीने वाला समाज बनाने की भरसक कोशिश भी की। हिन्दी कथा समाज को उन्होंने एक अलग विचार से जोड़ने की कोशिश की और हजार विरोध के बावजूद वे अपनी उस विचारधारा पर डटे रहे।
कुल मिलाकर राजेंद्र यादव ने अपने युग को अपने तरीके से जिया और वैसे ही जीने वाला समाज बनाने की भरसक कोशिश भी की। हिन्दी कथा समाज को उन्होंने एक अलग विचार से जोड़ने की कोशिश की और हजार विरोध के बावजूद वे अपनी उस विचारधारा पर डटे रहे।
राजेंद्र
यादव पर उनके देहांत के बाद अलग-अलग कोणों से उनके अंतरंग पुरुष व महिला मित्रों के
द्वारा बहुत-कुछ लिखा जायेगा। बहुत-कुछ ऐसा भी होगा जो कभी भी लिखा नहीं जायेगा। कुछेक
को तो तहेदिल से ताउम्र उनका शुक्रगुजार रहना चाहिए कि वे उन्हें ‘महान’ कथाकार बना
गये, हालाँकि कथाकार या कलाकार कोई किसी को तब तक नहीं बना सकता जब तक कि स्वयं उसके
भीतर ही कुछ दाने न हों। खैर।
वे शायद ईश्वर और आत्मा में विश्वास नहीं करते थे, इसलिए उनके बारे में वे परम्परागत वाक्य बोलने-लिखने का कोई अर्थ नहीं है। फिर भी, यह वक्त राजेंद्र जी को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करने का है। आमीन।
वे शायद ईश्वर और आत्मा में विश्वास नहीं करते थे, इसलिए उनके बारे में वे परम्परागत वाक्य बोलने-लिखने का कोई अर्थ नहीं है। फिर भी, यह वक्त राजेंद्र जी को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करने का है। आमीन।