सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

रह गया ‘हंस’ अकेला / बलराम अग्रवाल

                                                                      चित्र:बलराम अग्रवाल


आप अभी बिस्तर में ही पड़े हों, फोन आये, आप उठायें, इधर से ‘हलो’ करें और उधर से ‘यार, बुरी खबर है’ सुनाई दे तो एक पल के लिए दिमाग का सुन्न और धड़कन का ठहर-सा जाना स्वाभाविक है।
यही हुआ आज सुबह। भाई रूपसिंह चंदेल का फोन था।
“क्या हुआ?” मैंने पूछा तो बोले, “राजेंद्र जी चले गये, रात बारह बजे।”
“ओह!” गले से अचानक निकला। फिर पूछा, “अन्त्येष्टि कितने बजे है?”
“यह अभी पता नहीं चल पाया, दरअसल किसी को अभी कुछ मालूम नहीं है।” उन्होंने कहा, “मैं मन्नू जी को फोन करके पूछता हूँ, तुम भी किसी से पता करो।” और फोन काट दिया।
मैंने तुरंत ही हरिनारायण जी को फोन मिलाया। अन्त्येष्टि के समय और स्थान के बारे में उन्हें भी कुछ पता नहीं था। समाचार चैनल्स को उलटा-पलटा। राजेंद्र जी के निधन का समाचार तो था; कहीं-कहीं यह स्ट्रिप भी चल रही थी कि अन्त्येष्टि 3 बजे होगी, लेकिन स्थान के बारे में सूचना शायद उन तक भी नहीं पहुँची थी। बहरहाल, कुछ देर बाद चंदेल जी का ही फोन आया, “हलो बलराम, अन्त्येष्टि लोदी रोड श्मशान पर होगी, तीन बजे। बताओ, किस तरह चलोगे?”
“इधर अजय और उमेश जी से बात करके मैं आपको कुछ देर बाद फोन करके बताता हूँ।” मैंने कहा और फोन कट गया।
पिछले कुछ वर्षों से राजेंद्र जी ने अपने-आप को साहित्य की दुनिया का खलनायक बनाया हुआ था। अपने खिलाफ माहौल बनाने और उसका आनंद लेने की कला में उन्होंने पारंगतता हासिल कर ली थी। दो-तीन माह में एकाध बार मैं जब भी उनसे मिलता, वे पूछते—“हंस में आपको क्या ऐसा लगता है जिससे आपकी असहमति बनती हो?”
उन्होंने हमेशा असहमतियों के बारे में जानना चाहा, गोया कि प्रशंसा करने वाले तो उनके पास आते ही रहते होंगे। उनसे पिछली मुलाकात अगस्त 2013 की किसी तारीख को हुई थी। पूछा, “यह बताओ कि ‘हंस’ में हम बेहतर और-क्या कर सकते हैं?”
“मैंने कभी भी इस बारे में नहीं सोचा।” मैंने कहा।
“क्यों?”
“मुझे कभी लगा नहीं कि आप इसे बेहतर बनाने के बारे में कभी सोचते हैं।”
“पूछ तो रहा हूँ।”
“अगली बार आऊँगा तो इस बारे में सोचकर आऊँगा। मैं सच कह रहा हूँ कि मैंने कभी भी यह महसूस नहीं किया कि जिस ढर्रे पर आपने कुछ वर्षों से हंस को डाला हुआ है, उससे हटने के बारे में आप कभी सोचते हैं।”
ये वे दिन थे जब एक महिला का मसला काफी तूल पकड़ चुका था। सुधीश पचौरी ‘हिन्दुस्तान’ के अपने कॉलम में उनकी बखिया उधेड़ चुके थे और उनका अपना स्टाफ अन्दर ही अन्दर उस महिला के खिलाफ उनसे सुलग रहा था। उस जैसे बेहूदा और कन्ट्रोवर्शियल मुकदमों पर बात करना मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगता इसलिए राजेंद्र जी से इस बारे में कोई चर्चा नहीं हुई थी।
पिछले साल, मार्च 2012 में उनका स्वास्थ्य जानने के लिए मैं और चंदेल मयूर विहार स्थित उनके निवास पर गये थे। उनका अटैंडेंट अभी उन्हें तैयार कर ही रहा था, इसलिए हमसे कुछ देर बाहर ही रुकने को कहा गया। हमें जब अंदर बुलाया गया तब वे खिड़की के सहारे छोटे आकार के एक पलंग पर लेटे थे। काफी अस्वस्थ थे। किसी का फोन आने पर वे सुनने लगे तो मैंने अपने कैमरे को क्लिक कर दिया। फ्लश कौंधी तो उन्होंने अनुरोध किया, “फोटो मत खीचिए।” मैंने कैमरा अपने बैग में रख लिया; लेकिन फोटो तो उनकी खिंच ही चुकी थी। ऊपर वही फोटो मैं आज उनके बाद पहली बार सार्वजनिक कर रहा हूँ। मैं जब भी मिला, मुझे यही लगा कि वे करीने से उठने-बैठने वाले व्यक्ति थे। अपने बारे में वे ब्यूटी-सेंसिटिव भी थे। पिछले साल मौत के मुँह में जा ही बैठे थे; लेकिन साफ-सफ्फाक तरीके से जाना उन्हें शायद पसंद नहीं था इसीलिए लौट आये। हंस में अप्रैल 2012 का उनका संपादकीय पढ़कर मैं चौंक-सा गया था—जिस आदमी को मौत ने अपने मज़बूत जबड़ों में जकड़ा हुआ है, वह ‘बुर’ की बातें कर रहा है!! रहा नहीं गया। मई माह में, जब वे ऑफिस जाने लगे तो एक दिन जाकर उनसे मिला। उनकी ओर से वही शाश्वत सवाल आया, “हंस के किस तरह के आर्टिकल से आपकी असहमति बनती है?”
“सबसे पहले तो आपके संपादकीय से ही मेरी असहमति बनती है।” मैंने कहा।
“किस तरह की असहमति?” उन्होंने पूछा।
“यादव जी, पिछले महीने जब मैं और चंदेल आपसे मिलने आपके घर गये थे, तब आप ताबूत में लेटे थे।” मैंने कहा, “बहुत मुमकिन है कि अप्रैल का संपादकीय भी आपने उसी में लेटे-लेटे लिखा हो।…”
वह मेरी ओर देखते रहे।
“ताबूत में लेटकर भी कोई आदमी 'बुर' और 'भग' ही सोचेगा, यह मेरी समझ से बाहर है।” मैने कहा।
“पुराण काल के ॠषि-मुनि, जो नियोग के लिए जाते थे, वे जवान होते थे!!” उन्होंने तर्क दिया।
“ऐसा तो कहीं नहीं लिखा कि वे कब्र में लेटे होते थे।”
“वे जवान होते थे, यह भी तो कहीं नहीं लिखा।”
मैं समझ गया कि वे असहमति के बिंदु मुझसे जरूर पूछते हैं, मेरी असहमतियों से सहमत हो नहीं पाते हैं। मैं उनसे कहता भी था, “यादव जी, दरअसल जिस संस्कार में मैं पला हूँ उसके चलते, आपके स्वच्छंद काम से असहमति के अलावा आप में कुछ-और मुझे मिलता ही नहीं है।”
"फिर आप हंस को पढ़ते क्यों हैं?"
"असहतियों से परिचित रहने के लिए।"
उन्ही दिनों ‘बीमार आदमी के स्वस्थ विचार’ या ‘स्वस्थ आदमी के बीमार विचार’ जैसी कोई पुस्तक भी उनकी विचारधारा पर केंद्रित आई थी, मैं पढ़ नहीं पाया। उन्हें स्वयं बदनाम होकर भी दूसरों को चर्चा में लाने का आत्मघाती रोग लग गया महसूस होता था। मुझे लगता है कि उनके चले जाने के पीछे इसी रोग का हाथ अधिक है। यह रोग न लगता तो चौबीसों घंटे उनकी देखभाल में खटने वाला अटैंडेंट उनसे अलग न हो पाता और उसके रहते वे शायद समय पर इलाज पा जाते। लेकिन यम के दूत अपने ऊपर कोई आँच नहीं आने देते। मौत का बहाना वे किसी न किसी व्यक्ति या हालात के मत्थे मढ़ देने में पारंगत हैं।
कुल मिलाकर राजेंद्र यादव ने अपने युग को अपने तरीके से जिया और वैसे ही जीने वाला समाज बनाने की भरसक कोशिश भी की। हिन्दी कथा समाज को उन्होंने एक अलग विचार से जोड़ने की कोशिश की और हजार विरोध के बावजूद वे अपनी उस विचारधारा पर डटे रहे।
राजेंद्र यादव पर उनके देहांत के बाद अलग-अलग कोणों से उनके अंतरंग पुरुष व महिला मित्रों के द्वारा बहुत-कुछ लिखा जायेगा। बहुत-कुछ ऐसा भी होगा जो कभी भी लिखा नहीं जायेगा। कुछेक को तो तहेदिल से ताउम्र उनका शुक्रगुजार रहना चाहिए कि वे उन्हें ‘महान’ कथाकार बना गये, हालाँकि कथाकार या कलाकार कोई किसी को तब तक नहीं बना सकता जब तक कि स्वयं उसके भीतर ही कुछ दाने न हों। खैर। 
वे शायद ईश्वर और आत्मा में विश्वास नहीं करते थे, इसलिए उनके बारे में वे परम्परागत वाक्य बोलने-लिखने का कोई अर्थ नहीं है। फिर भी, यह वक्त राजेंद्र जी को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करने का है। आमीन।    
       

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

योग दिवस समारोह

छ्त्रसाल स्टेडियम:2अक्टूबर, 2013
आज, 2 अक्टूबर 2013 को देश ने महात्मा गाँधी का तथा लाल बहादुर शास्त्री का जन्म दिन तो मनाया ही, एक और महत्त्वपूर्ण पर्व भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के योग-प्रबुद्ध वासियों ने मनाया।  यह पर्व था--भारतीय योग संस्थान द्वारा आयोजित '47वाँ योग दिवस समारोह'। किसी को पता चला? मुझे भी न चलता अगर भारतीय योग संस्थान' से गहरे जुड़े मेरे मित्र श्री बनारसीदास गुप्ता कल रात मुझे यह सूचना न देते। उन्होंने मुझसे कहा कि--नई दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में आसन और प्राणायाम पर केन्द्रित बहुत बड़ा समारोह आयोजित होगा, आपको अवश्य आना है। उनका आदेश मैं टाल न सका; सो आज सवेरे, उनके निर्देशानुसार ठीक 05:15 बजे नवीन शाहदरा के 'मुस्कान चौक' कहे जाने वाले स्थान पर जा पहुँचा था और उपस्थित लोगों के साथ संस्थान की ओर से निर्धारित बस में जा बैठा जिसने कुछ ही मिनटों में छत्रसाल स्टेडियम पहुँचा दिया। फरीदाबाद आदि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अन्य नगरों से भी बसों द्वारा बड़ी संख्या में लोग वहाँ पहुँचे हुए थे। 
छत्रसाल स्टेडियम:16 अगस्त, 2011
              छत्रसाल स्टेडियम पहुँचकर मुझे अचानक, अगस्त 2011 का वह दिन याद आ गया, जब अन्ना हजारे  जी के समर्थन में राजघाट पहुँचे हुए अनेक लोगों को गिरफ्तार करके बसों द्वारा यहाँ पहुँचाया गया था। स्वयं मैं और मेरे अग्रज श्रीयुत प्राण जोशी राजघाट से गिरफ्तार किए गये लोगों में शामिल थे। पुलिस ने शाम तक हमें बन्धक रखा और शाम को बोले--अब आप घर जाइये। शाम को भी बारिश हो रही थी। अन्ना जी के बारे में स्पष्ट सूचनाएँ नहीं मिल पा रही थीं। कुमार विश्वास वहाँ पर हमारे अगुआ थे। तय हुआ कि हम कहीं नहीं जायेंगे, रातभर यहीं रहेंगे। उस समय ड्यूटी पर तैनात पुलिस अधिकारियों व सिपाहियों की बेचारगी देखने वाली थी। हमें गिरफ्तार करके जो संतोष उन्होंने महसूस किया होगा, स्टेडियम न छोड़ने का हमारा फैसला सुनकर वह संतोष पूरी तरह ग़ायब हो चुका था। स्टेडियम में हमारे जमे रहते वे आखिर, अपनी ड्यूटी से मुक्त कैसे हो सकते थे? जैसे-जैसे रात गहराई, उनके चेहरे पर अपने घर न जा पाने की चिंता और तनाव साफ-साफ झलकने लगे थे। 
कुश्ती आदि के अभ्यास-कक्ष का द्वार
                     आज की तरह, वह भी सुबह का ही समय था। अन्तर केवल यह था कि उस समय झमाझम तेज बारिश हो रही थी और इस समय सूर्यदेव प्रसन्न मुद्रा में विराजमान थे। उस समय स्टेडियम के बाहर-भीतर पुलिस ही पुलिस  और मीडियाकर्मी ही मीडियाकर्मी थे लेकिन आज…आज नज़ारा बदला हुआ था। टोपी पर 'मैं अन्ना हूँ' का स्थान 'मैं आम आदमी हूँ' ने ले लिया है। केजरीवाल समर्थक आज स्टेडियम के अन्दर नहीं, बाहर खड़े थे--उनके द्वारा संयोजित 'आम आदमी पार्टी' के लिए चन्दा और समर्थन जुटाने की कवायद में।
                    एक और बात आज देखने में आई--खेलों के माध्यम से देश की सेवा में जुटी किशोर और युवा पीढ़ी के दर्शन हुए। इस पीढ़ी की जितनी प्रशंसा की जाये, कम है। नि:स्वार्थ भाव से देश की गरिमा की रक्षा करने हेतु प्राणपण से श्रम करती इस किशोर व युवा पीढ़ी को मेरा नमन!
                सारी स्थितियों की तुलना स्वरूप एक-दो चित्र यहाँ और शेष को अपनी फेसबुक एलबम में पोस्ट कर रहा हूँ। देखिए:

पकड़ मज़बूत बनाने का अभ्यास




मित्रों के लिए बादाम आदि खरल में पीसता किशोर

आम आदमी पार्टी के कार्यकर्त्ता



शनिवार, 20 जुलाई 2013

जितेन्द्रनाथ दास को याद करते हुए…/हंसराज रहबर


दोस्तो, फेसबुक पर भाई पंकज चतुर्वेदी द्वारा पोस्ट किये गये अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त के चित्र देखकर हंसराज रहबर द्वारा लिखित कुछ बातें अनायास ही याद हो आयीं। हंसराज रहबर (जन्म : 9 मार्च, 1913) का यह शताब्दी वर्ष चल रहा है। उन्हें याद करते हुए प्रस्तुत है उनकी आत्मकथा ‘मेरे सात जन्म’ दूसरे भाग से यह उल्लेखनीय अंश:

हंसराज रहबर
जितेन्द्रनाथ का नाम सुनकर अपढ़ से अपढ़ व्यक्ति के भी, जिसने कभी अख़बार छुआ तक नहीं था, कान खड़े हो जाते थे। इसीलिए मैं यह नाम बार-बार दोहरा रहा था और लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। अख़बार, जो बिकने थे, बिक चुके थे। लोग सिर्फ़ चुप खड़े सुन रहे थे और मेरी ओर देख रहे थे। मेरे शरीर में बिजली-सी कौंध गयी और मैं जोश में भरकर चिल्लाया, “हड़ताल का तिरसठवाँ दिन…जितेन्द्रनाथ दास की हालत नाज़ुक।”
      लोग देख रहे थे, सुन रहे थे और मैं उत्साह में भरा बोल रहा था। शायद मेरे अन्तर्मन में यह भाव काम कर रहा था कि अख़बार बिकें न बिकें, पर देशवासियों तक यह ख़बर पहुँच जाय कि हड़ताल तिरसठ दिन से चल रही है और क्रांतिकारी जान पर खेल रहे हैं।
स्टेशन से तीन हॉकर अख़बार लेकर एक-साथ चलते थे और वे तीनों एक अलिखित संधि अथवा परस्पर समझौते के अनुसार अलग-अलग रास्तों से शहर पहुँचते थे और अलग-अलग क्षेत्रों में अख़बार बेचते थे। इस संधि अथवा समझौते के अनुसार, मैं घंटाघर की ओर जाने की बजाय केसरगंज को घूम गया। बस अड्डे से चौक तक फर्लांग-डेढ़ फर्लांग का फासला था और सड़क बिल्कुल सूनी थी। कहीं-कहीं कोई आवारा ख़ारिशज़दा कुत्ता घूम रहा था अथवा कौवे, चिड़ियाँ इत्यादि पंछी उड़ रहे थे। बीच में एक सिनेमाघर था, व्ह भी इस समय बंद पड़ा था। प्राय: सड़क का यह टुकड़ा मैं चुपचाप पार कर लिया करता था; पर जब-से हड़ताल लंबी खिंची थी और जेल में जितेन्द्रनाथ दास और शिव वर्मा की हालत नाज़ुक होती जा रही थी, मुझ पर कुछ ऐसा जुनून-सा सवार हो गया था कि मैं यहाँ भी हाँक लगाता रहता था और आज भी लगा रहा था, “हड़ताल का तिरसठवाँ दिन…जितेन्द्रनाथ दास की हालत नाज़ुक।”
कोलतार की सड़क, सितम्बर का महीना और टीक दोपहरी की चिलचिलाती धूप। गालों से पसीना बहने लगा तो भी बायें बाजू पर अख़बार का बंडल रखे और बायें हाथ से पसीना पोंछते हुए मैं तेज़-तेज़ चल रहा था और हाँक लगा रहा था, “अख़बार! आज का ताज़ा अख़बार!!”  
साबुन बाज़ार पार करके जब मैं बड़े बाज़ार के चौक में आया तो मेरे पास चौदह-पंद्रह अख़बार ही शेष रह गये थे। इस बाज़ार में आठ-दस दुकानदार स्थायी ग्राहक थे। इसलिए चलते-फिरते ग्राहकों की की बजाय मुझे उन्हें अख़बार देना था। लेकिन हड़ताल का तिरेसठवाँ दिन था, जितेन्द्र(नाथ दास) और शिव वर्मा की हालत नाज़ुक थी और लोग क्रांतिकारियों के इस महान उत्सर्ग की कहानी पढ़ने-जानने के लिए उतावले थे। अख़बार का महत्व बढ़ गया था। पढ़ने वाले मेरे पीछे लपक रहे थे।
“अख़बार वाले, एक अख़बार मुझे देना।”
“और मुझे भी देना।”
कोई दस-बारह ग्राहक एक-साथ अख़बार माँग रहे थे। मैं चलते-चलते रुका और विनीत भाव से उत्तर दिया, “अब अख़बार नहीं है।”
“क्यों, ये हैं तो सही!”
“सिर्फ़ दो हैं।” मैंने अलग-अलग करके अख़बार दिखाये और कहा, “ये मुझे स्थायी गाहकों को देने हैं।”
“दुकान पर होंगे?” किसी ने पूछा।
“यह आप वहाँ जाकर मालूम कर लीजिए।” मैंने उत्तर दिया। साथ ही मेरे मन में विचार उठा कि चटपट दुकान पर पहुँचूँ। शायद बेचने के लिए कुछ अख़बार और मिल जायँ। वैसे इसकी संभावना कम थी। बढ़ रही माँग से स्पष्ट था कि अख़बार अब दुकान पर भी नहीं होंगे। तो भी, हाथ के अख़बार स्थायी ग्राहकों को दिये और मैं लंबे-लंबे डग भरता हुआ दुकान की ओर चला। दुकान बाज़ार के अंत में, बाइबिल सोसाइटी के सामने वाली नुक्कड़ पर स्थित थी। उस पर अमरसिंह नाम का अधेड़ व्यक्ति बैठता था।
मैं दुकान पर पहुँचा तो देखा कि वहाँ ग्राहकों की भीड़ लगी है। सभी एक स्वर में चिल्ला रहे थे, “हमें अख़बार दो, हमें अख़बार दो।”
“अख़बार अब नहीं रहे, नहीं रहे।” अमरसिंह के बार-बार समझाने का उन पर कुछ भी असर नहीं हो रहा था। जैसे उन्होंने अख़बार खरीद ले जाने की शपथ ग्रहण कर ली हो।
“तुम्हारे पास अख़बार है?” चार-पाँच व्यक्ति एक-साथ मेरी ओर लपके।
“सब बिक गये।” मैंने हाथ फैला दिये।
एक हफ्ता पहले हालत यह थी कि सारे बाज़ार में घूम जाने के बाद भी अख़बार काफी संख्या में बच जाते थे और मैं उन्हें बस-अड्डे, होटलों और अदालत में घूम-फिरकर बेचा करता था। कोई इक्का-दुक्का ग्राहक मिल जाता था तो बड़ी खुशी होती थी। आम तौर पर लोग मेरी आवाज़ पर कोई ध्यान नहीं देते थे, पास से यों चुपचाप गुज़र जाते थे जैसे अख़बार उनके लिए बेकार की चीज़ हो, अख़बार और देश की राजनीति से उनका कोई संबन्ध न हो! लेकिन यकायक हवा बदली तो ऐसी बदली कि लोगों के पास जाने की बजाय लोग खुद अख़बार खरीदने आते थे। दुकान के सामने भीड़ लगी थी। जानते थे कि अख़बार नहीं है और लाख माँगने पर भी नहीं मिलेगा। फिर भी, समवेत स्वर में चिल्ला रहे थे, “अख़बार दो, अख़बार दो।” और अमरसिंह उसी स्वर में सिर हिलाकर उत्तर दे रहा था, “नहीं है, नहीं है।”
दरअसल, यह देशभक्ति का, भूख हड़ताली क्रांतिकारियों के प्रति स्नेह और लगाव का प्रदर्शन था। जनसमूह की मुद्रा इस समय देखते ही बनती थी।
“देशवासियो!” एक तीखी आवाज़ ने सबको चौंका दिया।
बाईं ओर से एक ताँगा आता दिखाई पड़ा। ताँगे पर लाऊडस्पीकर लगा था और तिरंगा फहरा रहा था।
“देशवासियो! अभी-अभी ख़बर आयी है कि भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के साथी जितेन्द्रनाथ दास जेल में शहीद हो गये। उनकी भूख हड़ताल का यह तिरसठवाँ दिन था। फिरंगी के अत्याचार ने देश के एक-और सपूत की जान ले ली। इस अत्याचार के विरुद्ध शहर में हड़ताल रहेगी और शाम को रामलीला ग्राउंड में शोकसभा होगी।”
लोगों के चेहरे झुक गये और वे जाने किस सोच में डूब गये।
देखते ही देखते दुकानें बंद हो गयीं।
                                                                                                                             (प्रस्तुति:बलराम अग्रवाल)

बुधवार, 16 जनवरी 2013

बापू कहे जाने के योग्य नहीं है आसाराम/बलराम अग्रवाल

 आज शब्द साधकआदरणीय अरविंद जी का जन्मदिन है। कल उनका एस॰एम॰एस॰ मिला था। लिखा था—‘बापू आसाराम के कहने का मतलब है कि अपहरण करके लंका ले जाते समय सीता रावण को यदि भैय्या कह देतीं तो लंका का युद्ध टल सकता था।
                                                                                                                   गूगल से साभार
दरअसल दिल्ली गैंगरेप के संदर्भ में टीवी पर आसाराम की टिप्पणी को देखकर उसके लिए सम्मान की भावना मन में रह जाने का कोई सवाल ही नहीं रह जाता। मैं उसके और स्त्रीविरोधी उसके समस्त अनुयायियों के अवलोकनार्थ वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड से यह प्रकरण उद्धृत कर रहा हूँ जो तत्कालीन रावण के चरित्र को अंशत: उद्घाटित करता है। मेरा मानना है कि हर बलात्कारी रावण का ही अंश है और उसके लिए मृत्युदण्ड से कम की सज़ा का प्रावधान भारतीय दण्ड संहिता में नहीं होना चाहिए:
                                                                                                                  गूगल से साभार
स्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित निशाचरों की वह विशाल सेना कुछ ही देर में गहरी नींद में सो गई। परंतु महापराक्रमी रावण उस पर्वत के शिखर पर चुपचाप बैठकर चन्द्रमा की चाँदनी से चमकते उस पर्वत के विभिन्न स्थानों की नैसर्गिक छटा को निहारने लगा। इसी बीच समस्त अप्सराओं में श्रेष्ठ सुन्दरी रम्भा उस मार्ग से आ निकली। वह पूरी तरह सजी हुई थी। वह सेना के बीच से होकर जा रही थी, इसलिए रावण ने उसे देख लिया। देखते ही वह काम के अधीन हो गया और खड़ा होकर उसने जाती हुई रम्भा का हाथ पकड़ लिया। वह लाज से गड़ गई, परन्तु रावण मुस्कराता हुआ बोला—“सुन्दरी! किसके भाग्य के उदय का समय आया है, जो तुम स्वयं चलकर जा रही हो? इन्द्र, उपेन्द्र या अश्विनीकुमार ही क्यों न हों, इस समय कौन पुरुष मुझ रावण से बढ़कर है? इस समय तुम रावण को छोड़कर कहीं और जाओ, यह अच्छी बात नहीं है। 
रावण का नाम सुनने मात्र से रम्भा के रोंगटे खड़े हो गए। वह काँप उठी और हाथ जोड़कर बोली—“प्रभो! मुझ पर कृपा कीजिए। आपको ऐसी बात मुँह से नहीं निकालनी चाहिए क्योंकि आप मेरे पिता के समान हैं। यदि कोई दूसरा पुरुष मेरा तिरस्कार करे तो उससे भी आपको मेरी रक्षा करनी चाहिए। मैं धर्मत: आपकी पुत्रवधू हूँयह आपसे सच्ची बात बता रही हूँ।
उसकी बात सुनकर रावण ने उससे कहा—“यदि यह सिद्ध हो जाय कि तुम मेरे पुत्र की पत्नी हो, तभी मेरी पुत्र-वधू हो सकती हो, अन्यथा नहीं।
इस पर रम्भा ने कहा—“राक्षसशिरोमणि! धर्म के अनुसार मैं आपके पुत्र की ही पत्नी हूँ। आपके बड़े भाई कुबेर के पुत्र नलकूबर मेरे प्रियतम हैं। इस समय मैं उन्हीं से मिलने जा रही हूँ।
रम्भा की इस बात पर रावण ने उससे कहा—“रम्भे! पुत्र-वधू वाला नाता उन स्त्रियों पर लागू होता है, जो किसी एक पुरुष की पत्नी हों। तुम्हारे देवलोक की स्थिति ही दूसरी है। वहाँ सदा से यही नियम चला आ रहा है कि अप्सराओं का कोई पति नहीं होता। वहाँ कोई एक स्त्री के साथ विवाह करके नहीं रहता।
यों कहकर राक्षस ने रम्भा को जबर्दस्ती एक शिला पर बैठा लिया और उसके साथ समागम किया। रम्भा के पुष्पहार टूटकर गिर गए, सारे आभूषण अस्त-व्यस्त हो गए। उपभोग के बाद रावण ने रम्भा को छोड़ दिया। वह अत्यन्त व्याकुल हो उठी। उसके हाथ काँपने लगे। लज्जा और भय से काँपती हुई वह नलकूबर के पास गई और हाथ जोड़कर उसके पैरों पर गिर पड़ी। उसे इस अवस्था में देखकर नलकूबर ने पूछा—“रम्भे! क्या बात है? तुम इस तरह क्यों मेरे पैरों पर पड़ गयीं?
थर-थर काँपती उस अबला ने लंबी साँस खीचकर पुन: हाथ जोड़ लिए और जो कुछ हुआ था, सब ठीक-ठीक बताना शुरू कर दिया—“देव! बहुत बड़ी सेना साथ लेकर दशमुख रावण देवलोक पर आक्रमण करने के लिए आया है। उसने आज की रात यहीं डेरा डाला है। आपके पास आते हुए उसने मुझे देख लिया और मेरा हाथ पकड़कर पूछने लगातुम किसकी स्त्री हो? मैंने सब-कुछ उसे सच-सच बता दिया, लेकिन उसने मेरी वह बात नहीं सुनी। मैं बार-बार कहती रही कि मैं आपकी पुत्र-वधू हूँ; लेकिन मेरी सारी बातें अनसुनी करके उसने बलपूर्वक मेरे साथ अत्याचार किया।