शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

संयम के निहित-अर्थ/बलराम अग्रवाल


अयोध्या पर बीच का रास्ता निकालने-जैसा प्रशंसनीय फैसला सुनाया जा चुका है। बेशक सभी फैसले ऐसे होते हैं कि उनसे दोनों पक्षों का शत-प्रतिशत सहमत होना असम्भव रहता है।
मन्दिर-निर्माण के लिए तराशे गये पत्थर
फैसले के समय पक्ष-विपक्ष के सभी समझदार लोगों ने जनता से संयम बरतने की अपील की। यह संयम क्या है?इसे समझना जरूरी है। 6 दिसम्बर, 1992 को जिस समय बाबरी मस्जिद कहे जाने वाले ढाँचे को गिरा दिये जाने की खबर आई, मैं गाजियाबाद के नवयुग मार्केट स्थित प्रधान डाकघर में कार्यरत था। मुझे मालूम चला कि बुलन्दशहर के मेरे मुहल्ले के एक पड़ोसी जिन्हें हम चाचाजी सम्बोधित करते थे, अपनी बेटी के नेहरू नगर स्थित निवास पर थे और गम्भीर रूप से बीमार थे। घर से संदेश आया कि मैं उन्हें देख जरूर आऊँ। संदेश न आता तो भी उनसे इतनी आत्मीयता थी कि उन्हें देखने मैं अवश्य जाता। मैंने अपनी साइकिल उठाई और ऑफिस-प्रांगण से सड़क पर निकल आया। पोस्ट ऑफिस के सामने उन दिनों उर्वशी सिनेमाघर हुआ करता था जो काफी प्रसिद्ध था। सिनेमाघरों में घटती दर्शक-संख्या ने उसे ध्वस्त कर उस स्थान का अन्य व्यापारिक उपयोग करने हेतु उसके स्वामियों को उकसाया और आज वह जगह समतल पड़ी है। उसके पीछे वाली सड़क यानी नगर परिषद के मुख्य-द्वार के सामने से होकर जैसे ही मैं कुछ आगे बढ़ा, मैंने आसपास की दुकानों के कुछ लड़कों-युवकों को सड़क पर पटाखे छोड़ते देखा। यह बाबरी पर विजय का उल्लास था। ये वे लोग थे जो कभी भी अयोध्या नहीं गये थे और जिन्हें राम का अर्थ तक नहीं पता था। असलियत तो यह है कि उन्हें हिन्दु शब्द का भी तात्पर्य नहीं पता था। वे मूढ़ किस्म के ऐसे दोपाये थे जो उच्छृंखलता को उल्लास की संज्ञा देते है। अगर मैं यह कहूँ कि ऐसे अवयव सभी धर्मों में होते हैं, तो यह मेरी मूर्खता होगी क्योंकि धर्म से किसी भी प्रकार का संबंध न तो इनका होता है और न उनका जो इनकी पूँछें उमेठकर इनमें चाबी भरते हैं।
बहरहाल, मैंने सड़क के बीचोंबीच उन्हें पटाखों की लड़ियाँ बिछाते देखा और आराम से समझ गया कि कुछ ही देर में कर्फ्यू लगने वाला है। मैं इतना डर गया कि वहाँ से साइकिल चलाकर नेहरू नगर जाने और चाचाजी के पास आधा घंटा बैठ आने का खतरा मोल लेना मुझे मुनासिब न लगा। मेरे डरे हुए मन ने पता नहीं क्यों यह कल्पना कर ली कि बहुत जल्द पटाखों की ये लड़ियाँ कुछ खास लोगों की दुकानों के छप्परों पर फेंकी जाने लगेंगी और हालात बिना मतलब ही काबू से बाहर हो जाएँगे। पुलिस जब तक आयेगी, तब तक बहुत-कुछ स्वाहा हो चुका होगा। सड़कों पर नौ-नौ बाँस कूद  रहे ये बहादुर अपनी माँ-बहन-पत्नी के पहलू में जा छिपे होंगे इस दर्प के साथ कि इन्होंने बाबर और उसकी पुश्तों से कई सौ साल बाद ही सही, बदला ले लिया है। इन्हें एक बार भी यह याद नहीं आयेगा कि गाजियाबाद से लेकर गढ़ गंगा तक तमाम पट्टी के मुसलमान उनके अपने भाई हैं। उनकी रगों में भी वही गंगाजल बहता है जो इनकी रगों में। यों तों पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान अलग हैं ही नहीं, कुछेक ऐसे सम्भ्रांतों को छोड़कर जो अपने-आप को परिवर्तित न मानकर मूल मानते हैं। यहाँ उद्देश्य उनकी पवित्रता पर बहस करना नहीं हैं। बड़ी-बड़ी लड़ाइयों, लूटों और झगड़ों-फसादों की इस दुनिया में किसका लहू कितना अनछुआ और पवित्र रह गया है इसे बताने वाली माँएँ जब जिन्दा थीं, तभी उनकी किसी ने नहीं सुनी, अब तो वे स्वर्ग सिधार चुकी हैं।
अयोध्या में राम जन्मभूमि मन्दिर हेतु नक्काशी की हुई शिलाओं पर पहरा देता जवान
तात्पर्य यह कि मैं उन उच्छृंखलों की कारगुजारियों से भीतर तक डर गया और ऑफिस लौटकर वापस अपनी सीट पर जा बैठा। यह बताने की जरूरत नहीं है कि मेरी आशंका सच साबित हुई। नौनिहालों ने छप्परों पर पटाखों की लड़ियाँ फेकी और आग के सामने नाच-नाचकर जश्न मनाया। छप्परों के नीचे बोरियों में भुने आलू पहले भुने, फिर राख बन गए, किसी भूखे का निवाला न बन सके। सब्जियाँ, आटा, दाल, चावल… सबका एक ही हश्र थाराख में तब्दील हो जाना। बिहारी कालोनी स्थित कब्रिस्तान की चहारदीवारी ढा दी गई। सालों से वहाँ सोई रूहों को कहाँ पनाह मिली, इस सवाल का जवाब या तो अल्लाताला के पास है या उन रूहों के जिन्हें कुछ शैतानों के कारण कयामत से पहले ही अपनी जगह से उठ जाना पड़ा। नियत वक्त से पहले उन्हें इतना मज़बूर करने की सज़ा क्या होगी?यह भी ऊपर वाला ही जाने। पुलिस चौकी सिहानी गेट के निकट एक दर्ज़ी की दुकान के ताले तोड़कर उसके सिले-अनसिले सारे कपड़े ये बहादुर लोग लूट ले गए। वे सब-के-सब तो हिन्दुओं के ही थे। सब न सही, ज्यादातर सही।
हिन्दुओं की ओर से हो या मुसलमानों की ओर से, सिखों की ओर से हो या ईसाइयों की ओर से, एक सम्प्रदाय द्वारा दूसरे की ईमानदारी पर, उसकी निष्ठा पर सन्देह करना या एक सम्प्रदाय द्वारा कोई भी ऐसा काम करना जिसके कारण दूसरे समुदाय को उस पर, उसकी नीयत अथवा कार्यशैली/चिन्तनशैली पर सन्देह करने की गुंजाइश बनेराष्ट्रद्रोह है। इसे माफ नहीं किया जाना चाहिए। देश की दण्ड-व्यवस्था का इस दुविधा से बाहर आ जाना अति आवश्यक है।
दोस्तो, कुछ सांस्कृतिक संगठनों ने और एकाध राजनीतिक दिवालिये ने भी भड़काऊ बयान जारी किए हैं कि यह फैसला तथ्याधारित नहीं है इसलिए गलत है। तथ्य ठस होते हैं, संवेदना से उनका लेना-देना नहीं होता। तथ्यों के पीछे भागते-भागते कुछ लोग उनके-जैसे ही ठस और संवेदनहीन हो चुके हैं और नहीं चाहते कि भारत के लोग दुविधारहित जीवन जिएँ। इसका यह मतलब बिल्कुल न निकाला जाय कि फैसले से जो बहुसंख्यक आज सन्तुष्ट नजर आ रहे हैं, उन्हें देश और समाज में सन्तुलन की विशेष चिन्ता है। कल, माननीय सुप्रीम कोर्ट यदि वर्तमान फैसले पर अपना कुछ ऐसा दृष्टिकोण पेश कर दे जो उनके आज के मन्तव्य से किंचित भी भिन्न या मान्यता से इतर हो तो वे स्वयं भी भूल जाएँगे कि अभी कुछ ही दिन पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच का फैसला आने पर उन्होंने जनता से कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हुए संयम बरतने की अपील की थी।
अंत में, यह बता देना भी आवश्यक ही है कि 6 दिसम्बर, 1992 को उल्लास पर्व मना रहे कुछ उच्छृंखलों से डरकर जिन बीमार चाचाजी को देखने मैं उस समय नहीं जा सका था, फिर कभी भी नहीं जा सका। उच्छृंखलों की इस दुनिया से वे प्रयाण कर गए थे और ग़ज़ब की बात यह रही कि यह सूचना भी वातावरण शान्त हो जाने के बाद ही कभी मिल पाई।

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

स्‍वतंत्र सिनेमा के रास्‍ते के संकट कटने चाहिए/संजय झा

(यमुनानगर से अविनाश वाचस्पति द्वारा प्रेषित विशेष रपट)
 अक्टूबर,१ यमुनानगर। सरकार ऐसी नीति बनाए, जिससे नए फिल्मकार के सामने फंड और प्रोड्यूसर की दिक्कतें खत्म हों और स्वतंत्र सिनेमा को बढ़ावा मिल सके। यह विचार स्ट्रींग्स बाउंड बाई फेथ के निर्माता संजय झा व बिओंड बॉडर्स की निर्मात्री शर्मिला मैती ने प्रेस कांफे्रंस के दौरान पत्रकारों से कहे।
संजय झा ने कहा कि वे लोग भाग्यशाली होते हैं,जिन्हें आसानी से प्रोड्यूसर व फंड मिल जाता है। स्वतंत्र सिनेमा को बढ़ावा मिलने से फिल्म निर्माण के क्षेत्र में ऐसे लोगों का पदार्पण होगा, जो फिल्म बनाने के इच्छुक हैं। हालांकि आज डिजिटल मीडिया का युग है, जिसमें नित नए प्रयोग किए जा रहे हैं। अब मोबाइल पर भी फिल्में देखी और बनाई जा सकती है। एक अन्य सवाल के जवाब में झा ने कहा कि बिहार के भागलपुर जिले के सुल्तानगंज जैसे छोटे शहर से होने के बावजूद भी उन्होंने लक्ष्य को नहीं भुलाया है। छोटे शहरों से भी अच्छे फिल्मकार सामने आ रहे हैं जिनके मन में इस विधा के प्रति सच्ची चाहत है अपनी फिल्म के बारे में बतलाते हुए उन्होंने कहा कि मेरी फिल्म एक यात्रा वृतांत है। जिसमें कुंभ मेले के माध्यम से आस्था का पर्व दिखाया है। इस फिल्म की कहानी वारेन हास्टिंग नाम के एक ब्रिटिश युवक की है, जो नासिक मेले में एक पुजारी के घर ठहरता है और पुजारी की बेटी कृष्णा से पे्रम कर बैठता है। फिल्म की कहानी इसी विषय पर केंद्रित हो आगे बढ़ती है। उन्होंने बताया कि 2003 में 20 लाख लोगों के बीच जाकर एक महीने में इस फिल्म को फिल्माया गया है। । फिल्म बनाते समय उन्होंने व्यावसायिकता से समझौता नहीं कि और ज्वलंत मुद्दे पर फिल्म बनाई है। यह फिल्म कवि बाबा नागार्जुन को समर्पित है। फिल्म कमर्शियल सिनेमा को छूती है। फिल्म का संगीत आसाम के जुबीन गर्ग का है। इस फिल्म के निर्माता मैथ्यू वर्गीस ने कहा कि रजनल क्षेत्र में बनी फिल्में भी विश्व में ख्याति अर्जित कर रही है। उन्होंने कहा कि कहानी व भाषा में ताकत होनी चाहिए,फिल्म हिट होना लाज़मी है।   
फिल्म निर्मात्री शर्मिला मैती ने बताया उनकी फिल्म बिओड बॉडर्स बंगाल व पूर्वी पाक विभाजन पर आधारित है। इस फिल्म में विभाजन के बाद तीन महिलाएं अपनी अनुभवों को बांटती है। हालांकि यह एक डाक्यूमेंट्री फिल्म है,जिसमें गीता घटक व गीता डे मुख्य किरदारों में है। विभाजन का असर औरतों के जीवन पर क्या प्रभाव डालता है, इस बारे में फिल्म में दिखाया गया है।

यमुनानगर में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का आयोजन अमूल्य उपलब्धि/अडूर गोपालकृष्णन


(यमुनानगर से अविनाश वाचस्पति द्वारा प्रेषित विशेष रपट)
 अक्टूबर-१, यमुनानगर। दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित मशहूर फिल्मकार अडूर गोपालकृष्णन ने कहा कि बड़े शहरों में सुविधाओं की वजह से फिल्मोत्सव आसानी से आयोजित हो जाते हैं। लेकिन यमुनानगर जैसे शहर में फिल्म फेस्टिवल का आयोजन एक अमूल्य उपलब्धि है। आने वाले वर्षो में यह समारोह अपने और बेहतर स्वरुप में निखरकर सामने आएगा। अडूर ने तीसरे हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म
समारोह के अवसर पर दीप प्रज्वलित करते हुए यह उद्गार प्रकट किए। उन्होंने कहा कि गंभीर सिनेमा लोगों की समझ को परिपक्व करता है। इस भव्य कार्यक्रम की अध्यक्षता कालेज प्रिंसिपल डा. सुषमा आर्य ने की। फिल्मकार के. बिक्रम सिंह विशिष्ठ अतिथि के तौर पर उपस्थित रहे।
अडूर गोपाल कृष्णन ने यह भी कहा कि विश्व सिनेमा को हरियाणा की धरती पर उतारने का प्रयास प्रशंसनीय है। सिनेमा को सर्वाधिक ख्याति मीडिया से मिली है। हालांकि कॉमर्शियल फिल्में इतनी ज्यादा अपील नहीं करती,जितनी कला फिल्में करती हैं।
दुनिया भर में अनेक मीडिया स्कूल फिल्म से जुड़ी हुई विधाओं की ट्रेनिंग दे रहे हैं, जहां से निर्देशक, कैमरामैन और अन्य तकनीकी के जानकार सामने आ रहे हैं।
उन्होंने कहा कि जिसे संस्कृति की समझ होती है। वही अच्छी फिल्म बनाता है। इस समय क्षेत्रीय भाषा में बनी फिल्में देश विदेशों में खूब लोकप्रिय हो रही है।
हरियाणा फिल्म समारोह के डायरेक्टर अजीत राय ने कहा कि सिनेमा लोगों की सोच को सही दिशा देता है, जो समाज को बदलने में सक्षम होते हैं। सिनेमा की असली पहचान भारतीय जन जीवन में गहरे जुड़ी हुई है। जिसके प्रभाव के आगे दुनिया नतमस्तक है।
हमारे लिए गर्व का विषय है कि तीसरे हरियाणा फिल्म समारोह में देश के दो बड़े विश्व प्रसिद्ध फिल्मकार अडूर गोपालकृष्णन व श्याम बेनेगल अपनी फिल्मों के साथ शामिल हुए हैं। फिल्म समारोह को ठोस आकार देने के लिए कोशिशें जारी रहेंगी।
जिसमें श्याम बेनेगल जी का दर्शकों के साथ सीधा संवाद करवाया जाएगा। इसके अतिरिक्त फिल्म अभिनेता ओमपुरी भी लोगों से रू-ब-रू होंगे। फिल्मोत्सव में श्याम बेनेगल की दो और मूल रुप से हरियाणा के कलाकार यशपाल शर्मा की चार फिल्में इस महोत्सव में प्रदर्शित की जाएंगी।
उन्होंने बताया कि यमुनानगर में आयोजित फिल्म फेस्टिवल आम आदमी का फेस्टिवल है। बड़े शहरों में फिल्मोत्सव पर 250 करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं, जबकि यहां पर पांच लाख रुपए में ही इस समारोह का आयोजन किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि अच्छे सिनेमा खुद ब खुद लोगों के दिलों में जगह बना लेता है। उन्होंने सभागार में उपस्थित लोगों से आह्वान किया कि वे सिनेमा का जश्न मनाएं। इस फिल्म
फेस्टिवल से सभी को यादगार अनुभव मिलेंगे।
कालेज प्रिंसिपल डा. सुषमा आर्य ने कहा कि तीसरे हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के दौरान उच्च क्वालिटी का सिनेमा लोगों को दिखाया जाएगा। 10 देशों की फिल्में समारोह के दौरान दिखाई जाएंगी। समारोह में नौ फिल्मों का हरियाणा प्रीमियर होगा। जबकि 30 शॉर्ट फिल्म भी दिखाई जाएगी। समारोह में चाइल्ड फिल्म व डाक्यूमेंट्ररी फिल्म सेक्शन को भी शामिल किया गया है। समारोह में उन फिल्मों
को दिखाया जा रहा है, जिसमें आम आदमी के जन जीवन को उकेरा गया है। कालेज प्रिंसिपल ने अडूर गोपालकृष्णन व के. बिक्रम सिंह जी को पुष्प गुच्छ व प्रतीक चिंह देकर सम्मानित किया। अडूर गोपालकृष्णन की फिल्म शैडो किल से समारोह में फिल्मों के प्रदर्शन की शुरूआत हुई।

फिल्‍म उद्योग में हिंदू-मुस्लिमों के बीच भाईचारा कायम है/अडूर गोपालकृष्‍णन



[यमुनानगर (हरियाणा) से अविनाश वाचस्पति द्वारा प्रेषित विशेष रपट]
दादा साहेब फाल्के अवार्ड से अलंकृत विश्‍वविख्यात  फिल्मकार अडूर गोपालकृष्णन ने 30 सितम्‍बर की  सांय  डी ए वी गर्ल्‍स  कालेज,  यमुनानगर(हरियाणा) में आयोजित तीसरे हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्‍म समारोह  की पूर्व-संध्या पर विशेष प्रेस  कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए कहा कि  उनके द्वारा निर्देशित फिल्मेंशैडो किल आदि  सत्य-घटना पर आधारित हैं। इस फिल्म में एक जल्लाद की मन:स्थिति को दर्शाया गया  है। जिसमें उन्‍होंने एक जल्लाद के इंटरव्यू से प्रेरित होकर फिल्‍म का निर्माण  किया। 

अपनी फिल्मों के लिए आठ बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित फिल्‍मकार अडूर का मानना है कि हिंदू-मुसलमानों के बीच जितना सौहार्द भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के अंदर है, उतना किसी अन्य क्षेत्र में नहीं है। मुसलमान  होने के बावजूद सुप्रसिद्ध अभिनेता (यूसुफ खान) ने अपना हिन्दू नाम दिलीप कुमार रखा,  इससे उन्हें ख्याति भी खूब मिली और दोनों ही वर्गों द्वारा उन्हें स्वीकार भी किया गया। एक अन्य प्रश्न के उत्तर में अडूर ने कहा कि वे केरल की जिंदगी को मुंबइया फिल्मों की तुलना में बेहतर तरीके से जानते हैं।  मुंबईया फिल्में भारत की जिंदगी की  असलियत नहीं दिखलातीं। फिल्मों में सिर्फ भाषा ही नहीं, अपितु ऐसी बहुत-सी चीजें होती हैं, जिन्हें समझने की जरुरत है। उन्होंने बतलाया कि कोई फिल्म निर्माता  स्थानीय होने के बाद ही यूनिवर्सल बनने की ओर कदम बढ़ाता है, जिसके जीवंत  उदाहरण सत्यजीत राय व श्याम बेनेगल हैं।
बायें से:सर्वश्री अडूर गोपालकृष्णन,  के बिक्रमसिंह तथा अजित राय
कान, वेनिस व बर्लिन फिल्म समारोह में मिलने पुरस्कारों को  ऑस्कर अवार्ड से कहीं बड़ा बतलाते हुए उन्‍होंने कहा कि ऑस्‍कर  सिर्फ अमेरिकन फिल्म इंडस्ट्री की देन है। अडूर ने छोटे फिल्‍म समारोहों की उपयोगिता को सार्थक बतलाते हुए जोड़ा कि बड़े व छोटे फिल्मोत्सव दोनों ही समान रुप से महत्वपूर्ण होते हैं। छोटे फिल्मोत्सव में फिल्मों के शिल्प व शैली की ओर सदैव अधिक ध्यान दिया जाता है और बड़े उत्सवों में ग्लैमर और चकाचौंध पर फोकस किया जाता है। फिल्मकार को हमेशा  जिन्दगी की असलियत ही दिखानी चाहिए और किसी को भी इसमें शर्म महसूस नहीं करनी चाहिए। लोगों की यह धारणा गलत है कि कला-फिल्में पैसा नहीं कमातीं। इसके प्रमाणस्वरूप उन्होंने सत्यजीत राय की उन फिल्मों के नाम गिनाए, जिन्होंने लागत से अधिक पैसा कमाने का रिकार्ड कायम किया है। प्रेस कांफ्रेंस के दौरान अडूर गोपालकृष्णन ने यह भी बताया कि उन्होंने जितनी भी फीचर फिल्में बनाई हैं, उनकी फिल्म ट्रांसक्राइब करके स्क्रिप्ट तैयार की जा रही है और शीघ्र ही  अंग्रेजी पुस्तक के रूप में प्रकाशित की जा रही है।
प्रेस कान्फ्रेंस में बोलते हुए के बिक्रमसिंह
प्रेस कांफ्रेंस के दौरान फिल्मकार के. बिक्रम सिंह ने  कहा कि आजादी के 60 साल बीत जाने के बाद भी देश में 40 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिन्हें दो वक्त की रोटी नहीं मिल पाती जबकि हम कॉमनवेल्थ गेम्स पर 70 हजार करोड़  रुपए से अधिक की राशि खर्च करने के लिए तैयार हैं।