अयोध्या पर बीच का रास्ता निकालने-जैसा प्रशंसनीय फैसला सुनाया जा चुका है। बेशक सभी फैसले ऐसे होते हैं कि उनसे दोनों पक्षों का शत-प्रतिशत सहमत होना असम्भव रहता है।
मन्दिर-निर्माण के लिए तराशे गये पत्थर |
फैसले के समय पक्ष-विपक्ष के सभी समझदार लोगों ने जनता से संयम बरतने की अपील की। यह संयम क्या है?—इसे समझना जरूरी है। 6 दिसम्बर, 1992 को जिस समय बाबरी मस्जिद कहे जाने वाले ‘ढाँचे’ को गिरा दिये जाने की खबर आई, मैं गाजियाबाद के नवयुग मार्केट स्थित प्रधान डाकघर में कार्यरत था। मुझे मालूम चला कि बुलन्दशहर के मेरे मुहल्ले के एक पड़ोसी जिन्हें हम चाचाजी सम्बोधित करते थे, अपनी बेटी के नेहरू नगर स्थित निवास पर थे और गम्भीर रूप से बीमार थे। घर से संदेश आया कि मैं उन्हें देख जरूर आऊँ। संदेश न आता तो भी उनसे इतनी आत्मीयता थी कि उन्हें देखने मैं अवश्य जाता। मैंने अपनी साइकिल उठाई और ऑफिस-प्रांगण से सड़क पर निकल आया। पोस्ट ऑफिस के सामने उन दिनों उर्वशी सिनेमाघर हुआ करता था जो काफी प्रसिद्ध था। सिनेमाघरों में घटती दर्शक-संख्या ने उसे ध्वस्त कर उस स्थान का अन्य व्यापारिक उपयोग करने हेतु उसके स्वामियों को उकसाया और आज वह जगह समतल पड़ी है। उसके पीछे वाली सड़क यानी नगर परिषद के मुख्य-द्वार के सामने से होकर जैसे ही मैं कुछ आगे बढ़ा, मैंने आसपास की दुकानों के कुछ लड़कों-युवकों को सड़क पर पटाखे छोड़ते देखा। यह बाबरी पर विजय का उल्लास था। ये वे लोग थे जो कभी भी अयोध्या नहीं गये थे और जिन्हें ‘राम’ का अर्थ तक नहीं पता था। असलियत तो यह है कि उन्हें ‘हिन्दु’ शब्द का भी तात्पर्य नहीं पता था। वे मूढ़ किस्म के ऐसे दोपाये थे जो उच्छृंखलता को उल्लास की संज्ञा देते है। अगर मैं यह कहूँ कि ऐसे अवयव सभी धर्मों में होते हैं, तो यह मेरी मूर्खता होगी क्योंकि ‘धर्म’ से किसी भी प्रकार का संबंध न तो इनका होता है और न उनका जो इनकी पूँछें उमेठकर इनमें चाबी भरते हैं।
बहरहाल, मैंने सड़क के बीचोंबीच उन्हें पटाखों की लड़ियाँ बिछाते देखा और आराम से समझ गया कि कुछ ही देर में कर्फ्यू लगने वाला है। मैं इतना डर गया कि वहाँ से साइकिल चलाकर नेहरू नगर जाने और चाचाजी के पास आधा घंटा बैठ आने का खतरा मोल लेना मुझे मुनासिब न लगा। मेरे डरे हुए मन ने पता नहीं क्यों यह कल्पना कर ली कि बहुत जल्द पटाखों की ये लड़ियाँ कुछ खास लोगों की दुकानों के छप्परों पर फेंकी जाने लगेंगी और हालात बिना मतलब ही काबू से बाहर हो जाएँगे। पुलिस जब तक आयेगी, तब तक बहुत-कुछ स्वाहा हो चुका होगा। सड़कों पर नौ-नौ बाँस कूद रहे ये बहादुर अपनी माँ-बहन-पत्नी के पहलू में जा छिपे होंगे इस दर्प के साथ कि इन्होंने बाबर और उसकी पुश्तों से कई सौ साल बाद ही सही, बदला ले लिया है। इन्हें एक बार भी यह याद नहीं आयेगा कि गाजियाबाद से लेकर गढ़ गंगा तक तमाम पट्टी के मुसलमान उनके अपने भाई हैं। उनकी रगों में भी वही गंगाजल बहता है जो इनकी रगों में। यों तों पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान अलग हैं ही नहीं, कुछेक ऐसे सम्भ्रांतों को छोड़कर जो अपने-आप को परिवर्तित न मानकर मूल मानते हैं। यहाँ उद्देश्य उनकी पवित्रता पर बहस करना नहीं हैं। बड़ी-बड़ी लड़ाइयों, लूटों और झगड़ों-फसादों की इस दुनिया में किसका लहू कितना अनछुआ और पवित्र रह गया है इसे बताने वाली माँएँ जब जिन्दा थीं, तभी उनकी किसी ने नहीं सुनी, अब तो वे स्वर्ग सिधार चुकी हैं।
अयोध्या में राम जन्मभूमि मन्दिर हेतु नक्काशी की हुई शिलाओं पर पहरा देता जवान |
हिन्दुओं की ओर से हो या मुसलमानों की ओर से, सिखों की ओर से हो या ईसाइयों की ओर से, एक सम्प्रदाय द्वारा दूसरे की ईमानदारी पर, उसकी निष्ठा पर सन्देह करना या एक सम्प्रदाय द्वारा कोई भी ऐसा काम करना जिसके कारण दूसरे समुदाय को उस पर, उसकी नीयत अथवा कार्यशैली/चिन्तनशैली पर सन्देह करने की गुंजाइश बने—राष्ट्रद्रोह है। इसे माफ नहीं किया जाना चाहिए। देश की दण्ड-व्यवस्था का इस दुविधा से बाहर आ जाना अति आवश्यक है।
दोस्तो, कुछ सांस्कृतिक संगठनों ने और एकाध राजनीतिक दिवालिये ने भी भड़काऊ बयान जारी किए हैं कि यह फैसला तथ्याधारित नहीं है इसलिए गलत है। तथ्य ‘ठस’ होते हैं, संवेदना से उनका लेना-देना नहीं होता। तथ्यों के पीछे भागते-भागते कुछ लोग उनके-जैसे ही ठस और संवेदनहीन हो चुके हैं और नहीं चाहते कि भारत के लोग दुविधारहित जीवन जिएँ। इसका यह मतलब बिल्कुल न निकाला जाय कि फैसले से जो बहुसंख्यक आज ‘सन्तुष्ट’ नजर आ रहे हैं, उन्हें देश और समाज में सन्तुलन की विशेष चिन्ता है। कल, माननीय सुप्रीम कोर्ट यदि वर्तमान फैसले पर अपना कुछ ऐसा दृष्टिकोण पेश कर दे जो उनके आज के मन्तव्य से किंचित भी भिन्न या मान्यता से इतर हो तो वे स्वयं भी भूल जाएँगे कि अभी कुछ ही दिन पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच का फैसला आने पर उन्होंने जनता से कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हुए संयम बरतने की अपील की थी।
अंत में, यह बता देना भी आवश्यक ही है कि 6 दिसम्बर, 1992 को ‘उल्लास पर्व’ मना रहे कुछ उच्छृंखलों से डरकर जिन बीमार चाचाजी को देखने मैं उस समय नहीं जा सका था, फिर कभी भी नहीं जा सका। उच्छृंखलों की इस दुनिया से वे प्रयाण कर गए थे और ग़ज़ब की बात यह रही कि यह सूचना भी वातावरण शान्त हो जाने के बाद ही कभी मिल पाई।