दोस्तो,
सबसे पहले तो भाई अनिल जनविजय का आभार कि उन्होंने मुझे फैज़ अहमद फैज़ की आंदोलनकारी नज्म ‘हम देखेंगे’ सुनने का अवसर प्रदान किया। यह 24 की रात की बात है। तब से अब तक मैं बीसों बार उसे सुन चुका हूँ, लेकिन मन है कि भरता ही नहीं है। मैंने उस नज्म की तीन प्रतिलिपियाँ तैयार कीं और अगली सुबह रामलीला मैदान जा पहुँचा। उनमें से दो को मैंने रामलीला मैदान में प्रारम्भ से ही अन्ना हजारे जी के मंच का संचालन सँभाल रहे कुमार विश्वास व नितिन को भेज दिया। उस समय मुझे मालूम नहीं था कि हम इतनी जल्दी वह दिन देख लेंगे जिसका हमसे वादा था। आप सब देशवासियों को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे आम आदमी की इस जीत पर शतश: बधाइयाँ।
वृद्धाएँ ही नहीं नवजातों को लेकर युवा माँएँ भी आंदोलन में कूद पड़ीं चित्र:बलराम अग्रवाल |
इस जज्बे की अनदेखी करना किसी के लिए सम्भव नहीं चित्र:बलराम अग्रवाल |
दोस्तो, आज यह पूछने का दिन आ गया है कि कहाँ गये वो लोग जो कहते थे कि ‘10-15 हजार लोगों के इकट्ठा होकर गला फाड़ने से क्या होता है?’ तथा यह कि ‘सौ करोड़ से ऊपर जनसंख्या वाले इस देश में अन्ना के समर्थक कितने होंगे? ज्यादा से ज्यादा एक करोड़! बाकी 99 करोड़ का समर्थन तो उन्हें नहीं प्राप्त है।’
उपर्युक्त दो बातों के अलावा और भी बहुत-सी बातें राजनीतिकों और बुद्धिजीवियों की ओर से सुनने-पढ़ने को मिलीं जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि देश का न केवल राजनीतिक बल्कि बौद्धिक क्षेत्र भी ‘धृतराष्ट्रों’ के हाथ में खेल रहा है।
आज शाम नोएडा से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘पाखी’ द्वारा आयोजित ‘जे॰ सी॰ जोशी चतुर्थ शब्द साधक सम्मान’ समारोह था। कल पत्रिका के कार्यकारी संपादक भाई प्रेम भारद्वाज ने फोन करके आमन्त्रित किया था। मैं समय से करीब आधा घंटा पहले हिन्दी भवन पहुँच गया था। चहल-पहल महसूस न होने के कारण मैंने अन्दर जाने की बजाय बाहर ही बैठना उचित समझा और बस स्टॉप की बैंच पर बैठ गया। पाँच मिनट के अन्तराल पर ही भाई प्रेम भारद्वाज अपने परिवार के साथ आ पहुँचे। मुझे बाहर बैठा देखकर चौंक गये। पूछा,“यहाँ क्यों बैठे हैं?”
“अभी-अभी पहुँचा हूँ,”मैंने कहा,“सोचा, कुछ देर खुली हवा में बैठ लूँ।”
“आइए, अन्दर चलते हैं।” उन्होंने कहा। दरअसल, उन्हें अन्दर की तैयारियों का जायजा भी लेना था। इसलिए मेरी तरह वह बाहर नहीं बैठ सकते थे। मैं उनके साथ हो लिया। समय-पूर्व पहुँचने के कारण उपस्थिति का न होना स्वाभाविक था। फिर भी, हॉल को खाली देखकर भारद्वाज जी ने आशंका जताई—‘अन्ना जी के आंदोलन के चलते उपस्थिति कम रह सकती है।’
मुझे अच्छी तरह मालूम था कि दिल्ली के साहित्यकार कहे जाने वाले जीव गुट विशेष द्वारा प्रायोजित आंदोलन में तो उछल-कूद मचा सकते हैं; वे वर्ग और समुदाय तो बन सकते हैं; देश नहीं बन सकते। ऐसा मैं अपने मन से नहीं कह रहा हूँ, इस दौरान विभिन्न बौद्धिकों के चरित्रों के फेसबुक आदि पर आते रहे बयानों के मद्देनजर कह रहा हूँ। खैर, मैंने भारद्वाज जी की आशंका पर कोई टिप्पणी नहीं की। उनके पास से खिसक लिया, बिना कुछ कहे। चला, तो अपूर्व जोशी से भेंट हो गयी। वह हमेशा ही गले और हृदय से मिलते हैं, हाथ के पोरुओं से नहीं। अपनत्व से भिगो देते हैं। शिकायत की कि मैं इतने लम्बे अंतराल के बाद क्यों मिल रहा हूँ? फिर स्वयं ही बोले,“नहीं, आप तो एक-दो बार आये थे कार्यालय, मैं ही नहीं मिल पाया, प्रेम जी ने बताया था।” उपस्थिति कम रहने की आशंका उन्होंने भी जताई। कहा,“कुमार विश्वास को मंच संचालन करना था, लेकिन वह रामलीला मैदान का मंच सँभालने में व्यस्त हैं। सीताराम येचुरी जी को आना था, लेकिन दोनों संदनों में महत्वपूर्ण बहस चल रही है। उन्होंने बताया है कि अभी 22 वक्ता और बाकी हैं, मैं नहीं आ सकता।” तात्पर्य यह कि टीम ‘पाखी’ टीम ‘अन्ना’ के आंदोलन से खासी चिंतित नजर आ रही थी। लेकिन यह चिंता अपने कार्यक्रम में आने वाले श्रोताओं और वक्ताओं की कम उपस्थिति के मद्देनजर ही थी। कार्यक्रम का समापन राष्ट्रगान से हुआ, यह बेहद भला लगा।
तय समय पर चाय-पान शुरू हुआ। मैं अपने हिस्से का डिब्बा लेकर विन्डो के किनारे जा खड़ा हुआ। कुछ देर बाद, ‘साहित्यकारों’ की आमद शुरू हुई। विन्डो में खड़े मुझको सबसे पहले प्रो॰ नामवर सिंह आते दिखाई दिये। उनके बाद तो अशोक मिश्र, प्रदीप पंत, प्रो॰ निर्मला जैन, प्रेमपाल शर्मा, कुसुम कुमार, सुशील सिद्धार्थ, मन्नू भंडारी, गीताश्री, अशोक गुप्ता, रमणिका गुप्ता, राजेन्द्र यादव, प्रो॰ मैनेजर पाण्डे आदि-आदि दिखाई देते गये। ये केवल कुछ नाम हैं। सभी को न मैं जानता हूँ, न पहचानता हूँ। लब्बोलुआब यह कि कार्यक्रम शुरु होते-होते हॉल लगभग आधा तो भर ही चुका था। मैंने तुरन्त उपन्यासकार रूपसिंह चन्देल को व्यंजनापरक एक एस॰एम॰एस॰ भेजा—‘इस समय पाखी के कार्यक्रम में आये होते तो आपका यह सन्देह मिट जाता कि हिन्दी के साहित्यकार घर से बाहर नहीं निकलते हैं।’ उनका जवाब आया—‘मैं इस समय सी॰पी॰ में हूँ। वहाँ तो लेखक होंगे ही। उन्हें अपनी प्राथमिकताएँ मालूम हैं। भाड़ में जायें अन्ना उनके लिए।’
देशभर की जनता के हस्ताक्षरों से युक्त अन्ना-समर्थक एक बैनर चित्र:बलराम अग्रवाल |
मज़े की बात यह रही कि अपने-अपने तरीके से अपूर्व जोशी, प्रो॰ निर्मला जैन और प्रो॰ नामवर सिंह ने अन्ना के आंदोलन का जिक्र अपने वक्तव्यों में किया लेकिन तीनों के सरोकार अलग-अलग थे। मुझे याद है कि 7 अगस्त को जन्तर-मन्तर पर ‘सरकारी लोकपाल बिल’ को जलाए जाने वाले कार्यक्रम में जब जन्तर-मन्तर पर ही प्रदर्शन कर रहे रुचि भट्टल के परिजनों ने टीम अन्ना से यह अनुरोध किया था कि वे उनका साथ दें तो अरविन्द केजरीवाल ने मंच से घोषणा की थी कि ‘आप अपने-आप को हमसे अलग न समझें। हम सब आपके साथ हैं और आपके साथ कैंडिल-मार्च करते हुए इंडिया गेट तक जायेंगे।’ और वे गये भी। हिन्दी भवन में उपस्थित ‘साहित्यकारों’ ने उस वक्त जब संसद के दोनों सदनों में एक ऐतिहासिक निर्णायक बहस चल रही थी और पूरे देश को मथ डालने वाला एक 74 वर्षीय योद्धा गत 12 दिनों से रामलीला मैदान में भूखा बैठा था, यह आह्वान करने की आवश्यकता नहीं समझी कि साहित्यकारों की यह बिरादरी हर प्रकार के ‘भ्रष्टाचार’ का विरोध करती है और यहाँ से निबटकर रामलीला मैदान जायेगी। दरअसल, जैसा कि चन्देल जी ने अपने जवाब में लिखा था—यह उनकी प्राथमिकता में नहीं था।
संतोष की बात है दोस्तो, कि संसद के दोनों सदनों ने अन्ना जी की माँगों पर गम्भीरतापूर्वक बहस की और उन्हें लगभग मान लिया। माननीय प्रधानमंत्री ने इस आशय का पत्र लिखकर विलासराव देशमुख और संदीप दीक्षित के हाथों रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे अन्ना जी के पास भेजकर अनुरोध किया कि वे कृपया अब अपना अनशन तोड़ दें। विलासराव देशमुख ने स्वयं उस पत्र को पढ़कर सुनाया। उसके जवाब में अन्ना जी ने अनशन तोड़ने की अपनी सहमति दे दी। उन्होंने कहा कि यह वास्तव में भारत की गरीब जनता की जीत है। फिलहाल इतना ही, बाकी कल।