खुश रहना देश के प्यारो, अब हम तो सफ़र करते हैं…7 दिसम्बर 2011 को चले भी गए श्रीकृष्ण जी और हमको खबर तक नहीं!!! |
मैंने सोचा नहीं था कि मुझे इतनी जल्दी अपनी पूर्व पोस्ट के बारे लिखना पड़ेगा और वह भी दु:खद। वस्तुत: तो मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं किस तरह इस बात को शुरू करूँ। अनेक तरीके दिमाग में आ रहे हैं, लेकिन बेहतर यही है कि मैं खुद पर लानत भेजने से इसकी शुरूआत करूँ। लानत है…! लानत है…!! लानत है…!!!
गत एक वर्ष से ऊपर हो गया। अजय जी (मेधा बुक्स), जब भी मुलाकात होती, 11 जनवरी 2011 को श्रीकृष्ण जी से हुई मुलाकात को कलमबद्ध करके प्रकाशनार्थ किसी पत्र-पत्रिका में भेजने या नेट पर किसी ब्लॉग पर ही डाल देने की याद दिलाते; लेकिन संवेदनहीन दिल्ली में गत 20-22 वर्षों से खाते-पीते, साँस लेते मैं भी अब ‘दिल्लीवाला’ हो गया हूँ। उनका अनुरोध मेरी संवेदनहीनता और तज्जनित लापरवाही की भेंट चढ़ता रहा, टलता रहा। वर्तमान पुस्तक मेला शुरू होने से दो दिन पहले अन्तत: वे बोले—‘बलराम जी, अगर आपने आज ही श्रीकृष्ण जी वाला मेरा काम नहीं किया तो मैं समझूँगा कि आप भी उन बहुसंख्यक लेखकों की जमात में हैं जो केवल कागजों पर ही संवेदनशीलता की बातें करते हैं।’
मुझे उनकी बात लग गई हो, ऐसी बात नहीं थी। फिर भी, न जाने किस ताकत ने काम किया कि घर पहुँचते ही मैंने ‘पुस्तक, व्यवसाय और श्रीकृष्ण’ को ध्यान में रखकर लिखना शुरू कर दिया। अवसर क्योंकि 20वाँ विश्व पुस्तक मेला शुरू होने का था और श्रीकृष्ण जी पुस्तक व्यवसाय से जुड़ी महान हस्ती थे, इसलिए लेख का पूर्वार्द्ध अनायास ही पुस्तक व्यवसाय पर ही केन्द्रित रहा, श्रीकृष्ण जी का उल्लेख बाद में शुरू हुआ। 25 फरवरी की सुबह (रात लगभग 12॰15 बजे) उसे मैंने अपने ब्लॉग ‘अपना दौर’ में पोस्ट कर दिया। बावजूद इस कमी के, कि वह पूरी तरह श्रीकृष्ण जी पर केन्द्रित नहीं था, अनेक लेखकों द्वारा उनसे जुड़े प्रसंगों पर चिन्ताएँ व्यक्त की गईं। उन चिन्ताओं को पढ़-सुनकर यह विश्वास मन में जमा कि दिल्ली निरी संवेदनहीन नहीं है और इन्सानियत खुशबू की तरह है जो कब्रिस्तान को भी महकाए रखती है। रूपसिंह चन्देल और सुभाष नीरव ने तो फैसला सुनाया कि मुझे उन्हें लेकर इसी शनिवार यानी 3 मार्च को श्रीकृष्ण जी से मिलाने को जाना है (वह इसलिए कि उनका लिखित पता न उन्हें मालूम था, न मुझे)। बाइत्तफाक यह जिक्र पुस्तक मेले में मेधा बुक्स के स्टाल पर भी हो गया जिसे सुनकर अजय जी ने कहा कि मेला खत्म होने के बाद किसी भी दिन चलो तो मैं भी साथ जाना चाहूँगा। बात मेला समाप्त होने के बाद जाने की तय हो गई। यहाँ तक कि कल फोन पर भी चन्देल ने याद दिलाया कि श्रीकृष्ण जी के यहाँ जाने का कार्यक्रम ज्यादा आगे नहीं खिसकाना है। इसी दौरान वरिष्ठ कथाकार नरेन्द्र कोहली जी का भी फोन आया था। उन्होंने बताया कि विश्वास नगर स्थित अपने आवास को छोड़कर गए श्रीकृष्ण जी का निश्चित पता-ठिकाना उन्हें उपलब्ध नहीं था, इसलिए वे उनकी कोई खैर-खबर नहीं ले पाए। पता मिल जाए तो वे उनसे मिलने जाना चाहते हैं। उनकी बात सही थी। श्रीकृष्ण जी ने अपने डूब जाने का अधिक प्रचार नहीं किया। वास्तविकता तो यह थी कि स्वयं मुझे भी श्रीकृष्ण जी के निवास की केवल लोकेशन ही मालूम थी, उनका लिखित पता या कोई फोन नम्बर नहीं मालूम था। कोहली जी मैंने उन्हें वह बाद में उपलब्ध करा देने का वादा कर दिया। अजय से जिक्र किया तो उन्होंने भी वही कहा कि हमें तो लोकेशन याद है, उसी के सहारे पहुँच जाते हैं। मैं कई दिनों तक इस शर्मिन्दगी को झेलता रहा कि कोहली जी को क्या जवाब दूँ? याद आया कि उनकी एक पुत्री का निवास नवीन शाहदरा में ही है। श्रीकृष्ण जी के आवास का पता और फोन नम्बर लेने के लिए आज सुबह मैं उधर चला गया। मकान की कॉल बेल अभी बजाने ही वाला था कि स्कूटर पर सवार एक नौजवान सज्जन वहाँ आकर रुके।
‘कहिए।’ उन्होंने पूछा।
‘श्रीकृष्ण जी की बेटी का यही मकान है?’ मैंने पूछा।
‘जी हाँ।’ उन्होंने कहा।
‘मुझे उनके नोएडा वाले घर का लिखित पता चाहिए।’ मैं बोला।
‘बाबूजी तो अब रहे नहीं।’ उन्होंने कहा। मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। अत: पूछा,‘मैं पराग प्रकाशन वाले श्रीकृष्ण जी की बात कर रहा हूँ।’
‘जी हाँ।’ उन्होंने कहा,‘मैं उनका दामाद हूँ। आप अन्दर आइए।’
यह सूचना इतनी दु:खद और अप्रत्याशित थी कि मैं भीतर तक हिल गया और मुझे तुरन्त बैठ जाने की जरूरत महसूस हुई। पता लिखवाकर लेने के लिए शायद न बैठना पड़ता; और अगर बैठना भी पड़ता तो उस बैठने और इस बैठने में घोर अन्तर था। बेटी और दामाद से ज्यादा बातें करने का माहौल मुझमें बचा नहीं था। श्रीकृष्ण जी के दामाद प्रिय राजेन्द्र जैन उनके नोएडा स्थित आवास का पता और फोन नम्बर एक कागज पर लिखने लगे।
‘7 दिसम्बर की सुबह वे चले गए।’ लिखते-लिखते उन्होंने बताया।
‘मम्मी जी की हालत भी खराब है।’ श्रीकृष्ण जी की बेटी सीमा बताने लगी,‘मैं भी जाती हूँ तो पहचान नहीं पाती हैं। पापाजी के जाने का उनके मन पर इतना गहरा सदमा है कि वे मान ही नहीं रही हैं कि पापाजी चले गए। कहती हैं—वे उधर दूसरी तरफ लेटे हुए हैं…’
इस बीच राजेन्द्र जी ने श्रीकृष्ण जी के नोएडा आवास का पता लिखा कागज मेरी ओर बढ़ा दिया। ‘इस पर अपने आवास का पता भी लिख दीजिए।’ मैं बोला।
‘जी।’ कहते हुए उन्होंने अपने आवास का पता भी उस पर लिख दिया।
मैं उक्त दोनों ही पतों और उनके फोन नम्बरों को नीचे लिख रहा हूँ—
1. Mrs. Nisha Gupta (daughter, Ph. 8800184598)
Mr. Neeraj Gupta (Son-in-law, Ph. 9810389687)
G-109, Sector 56,
Near Mother Dairy,
Janta Flats, Noida (UP)
2. Mrs. Seema Jain (daughter, Ph. 011-22321612)
Mr. Rajendra Jain (Son-in-law, Ph. 9310962206)
N-10, Gali No. 1, Uldhanpur,
Naveen Shahdara, Delhi-110032
इसके साथ ही ‘पुस्तक, व्यवसाय और श्रीकृष्ण’ शीर्षक अपने पूर्व लेख के श्रीकृष्ण जी पर केन्द्रित उस हिस्से को पुन: यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ जिसे मैंने ‘एक बदहाल प्रकाशक की कहानी’ शीर्षक से 25 फरवरी को ‘नुक्कड़’ पर पोस्ट किया था।
कई दशक पहले निर्माता-निर्देशक-अभिनेता मनोज कुमार ने कहा था कि फिल्मों में अंडरवर्ल्ड का पैसा लग रहा है। यह ईमानदार फिल्म निर्माता-निर्देशकों के सिरों पर शनै: शनै: छाते जाते अंडरवर्ल्ड आतंक की ओर इशारा भर था, जिसे शायद ही गम्भीरतापूर्वक सुना-समझा गया हो। विभिन्न प्रकाशक मित्रों के बीच बैठकर इधर-उधर से बहुत-सी बातें सुनाई देती हैं तो आज बल्क पुस्तक खरीद का माहौल लगभग वैसा ही महसूस होता है। किसी दूसरे को क्या, आज स्वयं को भी ईमानदार कहना अपने साथ बेईमानी करने जैसा है लेकिन यह सच है कि भ्रष्टाचार के दलदल में फँसे होने के बावजूद, अधिकतर लोग ईमानदारी से व्यवसाय करने के पक्षधर हैं, बशर्ते वैसा माहौल उपलब्ध कराया जाए। बेईमान माहौल में केवल बेईमान और पूँजीवादी ही पनपते हैं, ईमानदार और मेहनतकश नहीं। यही कारण है कि इन दिनों मेहनतकश और ईमानदार पुस्तक व्यवसायी स्वयं को बेहद विवश महसूस कर या भ्रष्टाचार के दलदल में कूद पड़े हैं या बाज़ार से मालो-असबाब समेटने और बाहर खिसकने के रास्ते पर पड़ चुके हैं। राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय स्तर के अनेक पत्रकार, सम्पादक-लेखक-आलोचक और नौकरशाह बल्क पुस्तक खरीद केन्द्रों और प्रकाशकों के बीच कमीशन-एजेंट का लाभकारी धन्धा अपनाए हुए हैं। ऐसे माहौल में लेकिन कितने लेखकों, पत्रकारों, प्रकाशकों और पुस्तक व्यवसायियों को आज पता है कि अमृता प्रीतम की ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कृति ‘रसीदी टिकट’ की रूपसज्जा आदि के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित, पराग प्रकाशन को समग्र स्तरीयता प्रदान करने वाले तथा बाल नाटककार के रूप में विभिन्न राज्यों की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक बार पुरस्कृत श्रीकृष्ण आज कहाँ हैं और किस हालत में हैं? गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के स्कूल पाठ्य-पुस्तकों में उनके बाल नाटक संकलित होते रहे हैं।
व्यावसायिक दृष्टि से देखें तो पराग प्रकाशन का डूबना वैसा ही है जैसा व्यावसायिक कूटदृष्टि से हीन किसी भी संस्थान का डूबना होता है। एक व्यवसायी कभी भी दूसरे व्यवसायी की व्यावसायिक मौत पर नहीं रोता। लेकिन श्रीकृष्ण द्वारा संचालित पराग प्रकाशन का डूबना मेरी दृष्टि में हिन्दी प्रकाशन व्यवसाय के एक ‘टाइटेनिक’ का डूबना है। उसके डूबने पर उसके हर लेखक, संपादक को रोना चाहिए था, परन्तु किसी ने उफ् तक नहीं की। मेधा प्रकाशन ने श्रीकृष्ण जी के कुछ बाल नाटकों का एक संग्रह ‘अभिनेय बाल नाटक’ शीर्षक से प्रकाशित किया था। तब मुझे साथ लेकर अजय भाई उनके नोएडा स्थित निवास पर गए थे। 2010 में श्रीकृष्ण जी से हम दो बार मिलकर आए थे, उसके बाद जनवरी 2011 में जा पाए; लेकिन अफसोस की बात है कि उसके बाद हम पुन: उनसे मिलने जाने का समय नहीं निकाल पाए जबकि हमें जाते रहना चाहिए था। 11 जनवरी 2011 को हमारे जाने से कुछ ही माह पहले उन्हें पक्षाघात हुआ था और उनके शरीर के बाएँ हाथ-पैर ने काम करना बन्द कर दिया था। सुनने की ताकत तो उनकी काफी समय पहले क्षीण हो गयी थी, अब स्मृति भी क्षीणता की ओर है। शारीरिक रूप से अक्षमता की ऐसी हालत में वे पति-पत्नी समीप ही रह रही अपनी एक बेटी ‘रजनी’ पर आश्रित हैं। परिवार सहित वही उनकी देखभाल करती है।
श्रीकृष्ण जी पर कथाकार-पत्रकार बलराम और उपन्यासकार रूपसिंह चन्देल ने अपने-अपने संस्मरण लिखे हैं। इनके अलावा भी कुछ लोगों ने लिखे हो सकते हैं, लेकिन वे मेरी दृष्टि से नहीं गुजरे, क्षमा चाहता हूँ। 15 अक्टूबर, 1934 को जन्मे श्रीकृष्ण जी छ: पुत्रियों के पिता हैं। सभी पुत्रियाँ विवाहित हैं, सुखी हैं। मिलने आने वालों की बात चली तो पति-पत्नी दोनों को मात्र एक नाम याद आया—योगेन्द्र कुमार लल्ला जी। रजनी ने भी कहा कि लल्ला जी अंकल कभी-कभार आते हैं। उनके अलावा तो श्रीकृष्ण जी ने कहा कि—‘जिस-जिस की भी अपने भले दिनों में खूब मदद की थी, उनमें से कोई नहीं मिलने आता है। किसी और की क्या कहूँ, खुद मेरा सगा भाई भी अभी तक मुझे देखने नहीं आया है। ठीक ही कहा है कि जो पेड़ कितने ही परिन्दों को आश्रय और पथिकों को छाया व फल देता है, बुरे वक्त में वे सब उसका साथ छोड़ जाते हैं। आप लोग मिलने आ गये, यह बहुत बड़ी बात है…कौन आता है!…नरेन्द्र कोहली कहते थे कि मेरा नाम पराग प्रकाशन की देन है, लेकिन अब वे भी…।’
प्रकारान्तर से रामकुमार भ्रमर का नाम भी उनकी जुबान पर आया। बहुत तरह से वे पति-पत्नी बहुत लोगों को याद करते हैं। उनके अनुसार, हिमांशु जोशी आदि अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों के वे प्रथम प्रकाशक रहे हैं। अतीत की बातें सुनाते हुए कभी वे खुश होते हैं, कभी उदास। यहाँ बहुत अधिक न कहकर तभी लिए गए उनके कुछ फोटो दे रहा हूँ। इन्हीं से उनकी स्थिति का किंचित अन्दाज़ा आप लगा सकते हैं।