गत कई दशकों से दिल्ली यों भी पुस्तक व्यवसायियों के लिए ही नहीं, साहित्य व्यवसायियों के लिए भी लाभदायक मंडी है। कितने ही ऐसे लोग, जिनका साहित्य अथवा पत्रकारिता की दुनिया से क्या, पठन-पाठन से भी कोई गम्भीर रिश्ता नहीं है, दिल्ली की कृपा से साहित्य के अनेक विदेशी गलियारों में जाने-घूमने का पारपत्र पाते रहे हैं। ‘अहो रूपम् अहो ध्वनि’ की तर्ज पर मित्रों के जरिए उनमें से कुछेक फोटो समेत फेसबुक पर प्रचारित भी होते रहते हैं। हम जैसे आलसी और लापरवाह लोग, ऐसे लोग जो घर में पड़े-पड़े यह सोचते रहते हैं कि बुद्धिमत्ता और श्रम का सम्मान ईश्वरीय चमत्कार की तरह एक न एक दिन होगा ही, साहित्य के जौहरियों(!) के इन्तज़ार में पुस्तकों और पत्रिकाओं के पन्ने पलटते हुए पलक पाँवड़े बिछाए खाट-कुर्सी-मूढ़े में धँसे-पड़े रहते हैं। हम वे हैं जो जुगाड़ लगाने में अपनी हेटी समझते हैं और जुगाड़ के खुद-ब-खुद लग जाने का सपना देखते रहते हैं। फेसबुक पर दूसरों का सुसमाचार पढ़कर हम उनके ‘जुगाड़ू’ होने सम्बन्धी मोटी-मोटी गालियाँ मन में जपते हुए औपचारिकतावश या तो ‘लाइक’ को क्लिक करके आगे बढ़ चुके होते हैं या बधाई अथवा शुभकामना जैसा कामचलाऊ ‘कमेंट’ टाइप करके सम्बन्ध और जान-पहचान को बनाए-बढ़ाए रखने का चतुर रवैया अपनाते हैं।
फेसबुक और ई-मेल, दोनों पर, आजकल ऐसे संदेशों की बहार आई हुई है जिनमें लेखक और प्रकाशक दोनों ही कॉलर खड़े करके उपस्थित नजर आते हैं। लेखक इस संदेश के साथ कि उसकी अमुक किताब पुस्तक मेले में आ रही है और प्रकाशक इस संदेश के साथ कि वह इन-इन लेखकों की कुल इतनी पुस्तकों के साथ विश्व पुस्तक मेले में अवतरित हो रहा है। दोनों की ओर से ऐसे संदेश भी आ रहे हो सकते हैं कि अमुक-अमुक किताबों का लोकार्पण हॉल नं॰ अमुक के अमुक नं॰ स्टाल पर अमुकश्री के कर-कमलों से हो रहा है, आप सादर आमन्त्रित हैं। ऐसा लगता है कि 25 फरवरी से 4 मार्च तक जितनी किताबें लोकार्पित हो जाएँगी, वही पढ़ी जाने लायक समझी जाएँगी। इन तारीखों के आगे-पीछे बाज़ार में आने वाली, लोकार्पण के बहाने चार सजातीय भाइयों का मुँह कड़वा-मीठा कराने की हैसियत न रखने वाले टटपूँजिया लेखकों की किताबें लोकार्पित यानी लोक में पढ़ने योग्य नहीं मानी जाएँगी। यह ऐसा अवसर है जब बड़े-बड़े विचारकों द्वारा लेखक-प्रकाशक-पाठक सम्बन्ध पर एकदम नए सिरे से सोचा जाता है और बातचीत का दूसरा-तीसरा-चौथा सिरा आगामी मेले में विचार के लिए स्वतन्त्र छोड़ दिया जाता है।
बातचीत के इस सिरे को यहीं छोड़कर अब हम उस सिरे पर आते हैं जहाँ बात लेखक-प्रकाशक-पाठक सम्बन्ध पर नहीं, प्रकाशक-प्रकाशक सम्बन्ध पर होगी। जितने कद्दावर और
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शरीर का बायाँ हिस्सा 2010 में पक्षाघात का शिकार हो चुका है |
नामवर लोग लेखकों-आलोचकों की दुनिया में हैं, प्रकाशकों की दुनिया में उससे कई गुना कद्दावर और नामवर मौजूद हैं। दो प्रकाशक मित्र मुस्कराते हुए जब गले मिल रहे हों या हाथ मिला-हिला रहे हों, तब उनके अन्दर उतरकर देखिए। वे आँखें तरेरते हुए एक-दूसरे पर सींग तानते नजर आएँगे।
जनवरी 2012 के ‘हंस’ में राजेन्द्र यादव ने सम्पादकीय को प्रकाशकों की कलाकारी पर केन्द्रित किया है और उसे संयोजित-नियंत्रित करने को कुछ सुझाव भी दिए हैं। वे चाहें तो उन सुझावों को कार्यान्वित करने-कराने की पहल भी कर सकते हैं, लेकिन यह उनकी प्राथमिकता का अंग नहीं है। उन्होंने रॉयल्टी-फ्री लेखकों की पुस्तकें छापने वाले प्रकाशकों से उनकी 10% धनराशि रॉयल्टी के तौर पर उस कोष-विशेष में जमा कराने का सुझाव दिया है जिससे गरीब लेखकों को आर्थिक मदद दी जा सके। गरीबी का पैमाना क्या होगा और लेखक होने का पैमाना क्या होगा—ये बातें विस्तार से विचार करने योग्य हैं। वे कौन-से लेखक होंगे जिन्हें ‘गरीबी रेखा के नीचे’ यानी बीपीएल कार्ड इश्यू किया जा सकेगा और किनके द्वारा? अलग-अलग लेखक संगठनों का पैमाना स्पष्टत: इस बारे में अलग-अलग ही होगा, राजनीतिक संगठनों की तरह।
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दास्ताने-ग़म ही नहीं, दास्ताने-खुशी भी हैं उनके पास; सुनने वाला चाहिए |
कई दशक पहले निर्माता-निर्देशक-अभिनेता मनोज कुमार ने कहा था कि फिल्मों में अंडरवर्ल्ड का पैसा लग रहा है। यह ईमानदार फिल्म निर्माता-निर्देशकों के सिरों पर शनै: शनै: छाते जाते अंडरवर्ल्ड आतंक की ओर इशारा भर था, जिसे शायद ही गम्भीरतापूर्वक सुना-समझा गया हो। विभिन्न प्रकाशक मित्रों के बीच बैठकर इधर-उधर से बहुत-सी बातें सुनाई देती हैं तो आज बल्क पुस्तक खरीद का माहौल लगभग वैसा ही महसूस होता है। किसी दूसरे को क्या, आज स्वयं को भी ईमानदार कहना अपने साथ बेईमानी करने जैसा है लेकिन यह सच है कि भ्रष्टाचार के दलदल में फँसे होने के बावजूद, अधिकतर लोग ईमानदारी से व्यवसाय करने के पक्षधर हैं, बशर्ते वैसा माहौल उपलब्ध कराया जाए। बेईमान माहौल में केवल बेईमान और पूँजीवादी ही पनपते हैं, ईमानदार और मेहनतकश नहीं। यही कारण है कि इन दिनों मेहनतकश और ईमानदार पुस्तक व्यवसायी स्वयं को बेहद विवश महसूस कर या भ्रष्टाचार के दलदल में कूद पड़े हैं या बाज़ार से मालो-असबाब समेटने और बाहर खिसकने के रास्ते पर पड़ चुके हैं। राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय स्तर के अनेक पत्रकार, सम्पादक-लेखक-आलोचक और नौकरशाह बल्क पुस्तक खरीद केन्द्रों और प्रकाशकों के बीच कमीशन-एजेंट का लाभकारी धन्धा अपनाए हुए हैं। ऐसे माहौल में लेकिन कितने लेखकों,
पत्रकारों,
प्रकाशकों और पुस्तक व्यवसायियों को आज पता है कि अमृता प्रीतम की ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कृति ‘
रसीदी टिकट’
की रूपसज्जा आदि के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित, पराग प्रकाशन को समग्र स्तरीयता प्रदान करने वाले तथा बाल नाटककार के रूप में विभिन्न राज्यों की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक बार पुरस्कृत श्रीकृष्ण आज कहाँ हैं और किस हालत में हैं?
गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के स्कूल पाठ्य-पुस्तकों में उनके बाल नाटक संकलित होते रहे हैं।व्यावसायिक दृष्टि से देखें तो पराग प्रकाशन का डूबना वैसा ही है जैसा व्यावसायिक कूटदृष्टि से हीन किसी भी संस्थान का डूबना होता है। एक व्यवसायी कभी भी दूसरे व्यवसायी की व्यावसायिक मौत पर नहीं रोता। लेकिन श्रीकृष्ण द्वारा संचालित पराग प्रकाशन का डूबना मेरी दृष्टि में हिन्दी प्रकाशन
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अतीत की यादें ही अब इनकी धरोहर हैं |
व्यवसाय के एक ‘
टाइटेनिक’
का डूबना है। उसके डूबने पर उसके हर लेखक, संपादक को रोना चाहिए था, परन्तु किसी ने उफ् तक नहीं की। मेधा प्रकाशन ने श्रीकृष्ण जी के कुछ बाल नाटकों का एक संग्रह ‘
अभिनेय बाल नाटक’
शीर्षक से प्रकाशित किया था। तब मुझे साथ लेकर अजय भाई उनके नोएडा स्थित निवास पर गए थे। 2010 में श्रीकृष्ण जी से हम दो बार मिलकर आए थे, उसके बाद जनवरी 2011 में जा पाए; लेकिन अफसोस की बात है कि उसके बाद हम पुन: उनसे मिलने जाने का समय नहीं निकाल पाए जबकि हमें जाते रहना चाहिए था। 11 जनवरी 2011 को हमारे जाने से कुछ ही माह पहले उन्हें पक्षाघात हुआ था और उनके शरीर के बाएँ हाथ-पैर ने काम करना बन्द कर दिया था। सुनने की ताकत तो उनकी काफी समय पहले क्षीण हो गयी थी, अब स्मृति भी क्षीणता की ओर है। शारीरिक रूप से अक्षमता की ऐसी हालत में वे पति-पत्नी समीप ही रह रही अपनी एक बेटी ‘
निशा’
पर आश्रित हैं। अपने पति नीरज व परिवार सहित वही उनकी देखभाल करती है। श्रीकृष्ण जी पर कथाकार-पत्रकार बलराम और उपन्यासकार रूपसिंह चन्देल ने अपने-अपने संस्मरण लिखे हैं। इनके अलावा भी कुछ लोगों ने लिखे हो सकते हैं, लेकिन वे मेरी दृष्टि से नहीं गुजरे, क्षमा चाहता हूँ। 15 अक्टूबर, 1934 को जन्मे श्रीकृष्ण जी छ: पुत्रियों के पिता हैं। सभी पुत्रियाँ विवाहित हैं, सुखी हैं। मिलने आने वालों की बात चली तो पति-पत्नी दोनों को मात्र एक नाम याद आया—योगेन्द्र कुमार लल्ला जी। रजनी ने भी कहा कि लल्ला जी अंकल कभी-कभार आते हैं। उनके अलावा तो श्रीकृष्ण जी ने कहा कि—‘जिस-जिस की भी अपने भले दिनों में खूब मदद की थी, उनमें से कोई नहीं मिलने आता है। किसी और की क्या कहूँ, खुद मेरा सगा भाई भी अभी तक मुझे देखने नहीं आया है। ठीक ही कहा है कि जो पेड़ कितने ही परिन्दों को आश्रय और पथिकों को छाया व फल देता है, बुरे वक्त में वे सब उसका साथ छोड़ जाते हैं। आप लोग मिलने आ गये, यह बहुत बड़ी बात है…कौन आता है!…नरेन्द्र कोहली कहते थे कि मेरा नाम पराग प्रकाशन की देन है, लेकिन अब वे भी…।’
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श्रीकृष्ण जी की धर्मपत्नी सभी चित्र : बलराम अग्रवाल |
प्रकारान्तर से रामकुमार भ्रमर का नाम भी उनकी जुबान पर आया। बहुत तरह से वे पति-पत्नी बहुत लोगों को याद करते हैं। हिमांशु जोशी आदि अनेक प्रतिष्ठित लेखकों के वे प्रथम प्रकाशक रहे हैं। अतीत की बातें सुनाते हुए कभी वे खुश होते हैं, कभी उदास। यहाँ बहुत अधिक न कहकर तभी लिए गए उनके कुछ फोटो दे रहा हूँ। इन्हीं से उनकी स्थिति का किंचित अन्दाज़ा आप लगा सकते हैं।