मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

केरल यात्रा-6













बड़े-से-बड़ा कलर-इंजिनियर किसी रंग के अगर हजार शेड्स तैयार कर सकता है तो प्रकृति में उसके दस हजार शेड्स पहले से ही मौजूद हैं, इस सत्य का आभास व्यक्ति को प्रकृति के समीप जाए बिना और उसके सान्निध्य में समय बिताये बिना नहीं हो पाता है।





केवल हरा रंग और उसके शेड्स ही मुन्नार में देखने को मिलते हों, ऐसा नहीं है। सूरजमुखी के पुष्पों को जंगली झाड़ियों की तरह नदी के किनारे-किनारे दूर तक जाते, हँसते-खिलखिलाते सबसे पहले हमने मुन्नार में ही देखा। अपने मैदानी इलाकों में तो सूरजमुखी की व्यावसायिक-स्तर पर खेती की जाती है, उस पर पसीना बहाया जाता है, पैसा कमाया जाता है।











लगता है कि अपने चित्रकूट निवास के दिनों में कुछ ऐसे ही दृश्य से अभिभूत भगवान श्रीराम ने सीता से यों कहा था—‘सीते! यद्यपि मैं राज्य से भ्रष्ट हो गया हूँ तथा मुझे अपने हितैषी सुहृदों से विलग होकर रहना पड़ रहा है, तथापि जब मैं इस रमणीय पर्वत की ओर देखता हूँ, तो मेरा सारा दु:ख दूर हो जाता है। …गुफाओं से निकली हुई वायु नाना प्रकार के पुष्पों की प्रचुर गन्ध लेकर नासिका को तृप्त करती हुई किस पुरुष के पास आकर उसका हर्ष नहीं बढ़ा रही है।…यदि तुम्हारे और लक्ष्मण के साथ मैं यहाँ अनेक वर्षों तक रहूँ तो भी नगर-त्याग का शोक मुझे कभी नहीं होगा।





[यहाँ पर मैंने अपने हितैषी मित्र श्रीयुत सुरेश यादव की इस सलाह को कि इन संस्मरणों अथवा यात्रा-विवरणों में विद्वता-प्रदर्शन नहीं होना चाहिए, सम्मान देते हुए सम्बन्धित श्लोकों को उद्धृत न करके उनका मात्र अर्थ ही प्रस्तुत किया है।]






बुधवार, 25 नवंबर 2009

केरल यात्रा-5


यात्रा के अपने अनेक अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि यात्रा पर निकलने से पहले व्यक्ति को अपने सामान में रोजमर्रा काम में आने अथवा आ सकने वाली वस्तुओं की एक लिखित सूची पहले-से ही अपनी निजी डायरी में लिख लेनी चाहिए। ऐसी वस्तुओं की आम तौर पर दो श्रेणियाँ होती हैंपहली, दिनभर में कई बार अथवा अनेक बार काम में आने वाली वस्तुएँ तथा दूसरी, गंतव्य पर पहुँच जाने पर काम आने वाली। दोनों प्रकार की वस्तुओं को उनकी श्रेणी के अनुरूप ही अलग-अलग बैग्स में ही रखना भी चाहिए, ताकि किसी वस्तु की आवश्यकता पड़ने पर सारे बैग्स को खोलना व सारे सामान को उलट-पुलट करना न पड़े। साथ ले चलने वाले सामान में इन वस्तुओं को अवश्य रख लेना अथवा अपनी लिस्ट के साथ मिलान कर लेना लाभदायक सिद्ध हो सकता हैमौसम के अनुरूप कपड़े, छाता, जो दवाइयाँ रोजाना लेनी पड़ती हों उनका घर-वापसी तक का पूरा कोर्स तथा अपने डॉक्टर से सलाह करके पाचन व थकान आदि की दृष्टि से आवश्यकता पड़ने पर ली जा सकने वाली दवाइयाँ, बैंड-एड्स, कॉटन(मेडिकल स्टोर वाली रुई), कैमरा(हो सके तो स्टैंड सहित, ताकि कभी-कभार अपना ही फोटो खींचने-खिंचवाने के लिए आपको किसी अन्य का मुँह न ताकना पड़े), पीने वाले पानी की बोतल(हालाँकि यह अब हर जगह आसानी से उपलब्ध है, फिर भी एक-दो बोतलें साथ रखकर चलना बुरी बात नहीं है), हल्का-फुल्का नाश्ते का सामान, कागज की प्लेटें व फेंक देने योग्य चम्मचें, पेपर नेपकिन्स, टिश्यू पेपर्स, एक-दो पुराने अखबार व डस्टर, अन्दर से प्लास्टिक चढ़े छोटे आकार के लिफाफे(ताकि यात्रा के समय सदस्यों में से किसी को आने वाली उल्टियाँ उनमें करायी जा सकें अथवा उनके द्वारा तैयार कूड़े को उनमें रखकर फेंका जा सके), दूरबीन, परा-बैंगनी सूर्य-किरणों से बचाव के लिए अच्छी किस्म का धूप-चश्मा, रुमाल व हल्के रहने वाले तौलिए जिन्हें हर समय अपने साथ रखा जा सके, सुई-धागा, जेबी-चाकू, नेल-कटर जिसमें कॉर्क-ओपनर भी संलग्न हो, प्रत्येक बैग-ब्रीफकेस-अटैची के लिए अलग-अलग चेन व ताले, अच्छे किस्म की एक टॉर्च, साथ रखे अपने विद्युत-उपकरणों व मोबाइल आदि को चार्ज करने के काम आने वाले चार्जर्स व अडेप्टर्स, 5-7 मीटर लम्बी एक मजबूत बारीक रस्सी, नहाने व कपड़े धोने के साबुन, पेपर-सोप, टूथ-ब्रश व टूथ-पेस्ट, एक जोड़ी वाटर-प्रूफ चप्पलें, पेन-पेन्सिल व डायरी-नोटबुक, अपने विजिटिंग-कार्ड्स। अगर बच्चे भी साथ जा रहे हैं तो उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप वस्तुओं का निर्धारण माता-पिता को स्वयं करना होता है। सामान वाले प्रत्येक बैग के अन्दर तथा साथ जाने वाले बच्चे-बूढ़े प्रत्येक सदस्य की जेब में अपना नाम-पता-मोबाइल नम्बर-ईमेल आईडी लिखा एक कार्ड रखना कभी न भूलें। आजकल मोबाइल एक आम साधन है। कोशिश करें कि घर के हर सदस्य के पास अपना निजी मोबाइल हो। यह सूची एक निम्न-मध्यवर्गीय भारतीय व्यक्ति के द्वारा सुझाई जाने के कारण क्रेडिट कार्ड का खुला उपयोग कर सकने वालों को काफी बोझिल प्रतीत हो सकती है। सोचा जा सकता है कि बाजार और बैंकदोनों ही अब व्यक्ति के बहुत निकट आ गए हैं और जरूरत की हर वस्तु अब हर जगह उपलब्ध हो जाती है, उसे लादने की क्या जरूरत है। बेशक, भ्रमणशील व्यक्ति को बहुत हल्के और कम सामान के साथ निकलना चाहिए; लेकिन यह भी ठीक है कि सम्भावित जरूरत के हर सामान को साथ लेकर निकलना मूर्खता बिल्कुल नहीं है। यों भी, इस सूची को यहाँ इसलिए नहीं दिया गया है कि इसे अपने नौकर या पत्नी को पकड़ाकर आप जिम्मेदारी से अपने-आप को मुक्त मान लें। इसमें से क्या ले जाना है, क्या नहीं यह तय करना और एकत्र करके सँजोना भी आपका ही दायित्व है।


आदमी का हर अनुभव उसकी गलती की कोख से जन्म लेता है। जितनी ज्यादा गलतियाँ, उतने ज्यादा अनुभव। इस सम्बन्ध में एक मुख्य बात यह अवश्य याद रखें कि गलतियाँ की नहीं जातीं, हो जाती हैं और मूर्ख वह नहीं जो गलतियाँ करता है; बल्कि मूर्ख वह है जो एक ही प्रकार की गलती को बार-बार दोहराता है।



बुधवार, 18 नवंबर 2009

केरल यात्रा-4















रोमन
से अनुवाद के सम्बन्ध में मेरा एक छोटा-सा उदाहरण यह अनुभव भी प्रस्तुत कर देना विषय से अलग नहीं माना जाना चाहिए
2005 की बात है। कर्नाटक एक्सप्रेस के द्वितीय श्रेणी स्लीपर में बैठा मैं बंगलौर से दिल्ली की यात्रा पर था। मेरी बर्थ के आसपास ही एक नौजवान की भी बर्थ थी। वह बंगलौर स्थित किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में इटेलियन से हिन्दी या अंग्रेजी भाषा में अथवा हिन्दी या अंग्रेजी से इटेलियन भाषा में अनुवादक के पद पर कार्यरत था। उसने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से इटेलियन में स्नातक की उपाधि ली थी और इटली से स्कॉलरशिप भी उसे मिली थी। उससे मुझे पता चला कि इटेलियन में वर्ण नहीं है और न ही उच्चारण है।
लेकिन हिन्दी के सारे अखबार क्वात्रोच्चि नाम दशकों से छाप रहे हैं? मैंने कहा।
वे सब उसके नाम के अंग्रेजी स्पेलिंग्स को अनुवाद करके छाप रहे हैं। उसने बताया,सही इटेलियन नाम क्वात्रोक्कि है।
वाकई, बाद में जैसे-जैसे हिन्दी पत्रकार इस सत्य से परिचित होते गए, वैसे-वैसे क्वात्रोच्चि को क्वात्रोक्कि लिखा और पढ़ा जाने लगा था। समाचार-माध्यमों में इस तरह के अनगिनत उदाहरण भरे पड़े हैं। यह एकदम अलग बात है कि कुछ लोग यह (कु)तर्क पेश करें कि क्वात्रोक्कि लिखा जाय या क्वात्रोच्चि क्या अन्तर पड़ता है, समाचार का असल उद्देश्य तो घटना(अथवा दुर्घटना) से आम आदमी को परिचित कराना होता है, न कि नामों की शुद्धता या अशुद्धता से परिचित कराना; सो हम करा ही देते हैं।

जिस समय अपनी टैक्सी के साथ अरुण उपस्थित हुआ, सबसे पहले उसने हमसे यही कहा—“सर, आपके पास अगर ऑडियो सीडीज़ हों तो रख लीजिए, मेरी गाड़ी में प्लेयर है।…और अगर वीसीडी हो तो वह भी आप रख सकते हैं…।
ऑडियो-प्लेयर्स का या मिनी-साइज़ टीवी सेट्स का होना तो मैंने दिल्ली की कुछ गाड़ियों में देखा था, लेकिन वीसीडी-प्लेयर भी होता हैयह नहीं मालूम था। वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में कुछ भी असंभव नहीं है। नई बातों को सुनकर या नई चीजों को देखकर किसी का भी पहली बार चौंकना अस्वाभाविक नहीं है। हमारी उम्र के लोगों ने अपनी किशोरावस्था में कब यह कल्पना की थी कि एक दिन सारी दुनिया हमारी गोद में टिकी होगी! कम से कम मैंने तो घर की मेज या अलमारी के ऊपर एक अदद रेडियो के रखे होने से अधिक की न कल्पना की थी, न इच्छा। आज मेरे आठ वर्षीय भतीजे की गोद में भी दुनिया(लैपटॉप) है, और अपनी तर्जनी के हल्के-से एक इशारे से वह उसके जिस हिस्से को चाहे अपने सामने आ उपस्थित होने को विवश कर सकता है।

नोट:इस पोस्ट में संलग्न सभी फोटो मेरे कनिष्ठ पुत्र आदित्य अग्रवाल द्वारा खींचे गए हैं। इस बार के तीनों फोटो चाय-बाग़ानों के हैं।



शनिवार, 14 नवंबर 2009

केरल यात्रा-3


बुधवार की सुबह बेटी के यहाँ से जब यह फोन आया कि वे लोग हमारे साथ नहीं जा पाएँगे तो आकाश को आश्चर्य हुआ और मुझे कष्ट।

जीजाजी ने शाम को बड़े सकारात्मक मूड में विचार करने को कहा था…ऐसा नहीं लग रहा था कि वह मना कर देंगे। उसके मुँह से निकला, लेकिन मैं समझ चुका था कि उन्हें उस वक्त परखने में या तो उसने वाकई गलती की या वह जानबूझकर यह गलती करना चाह रहा था। वे लोग हमारे साथ न जाएँमेरी इस इच्छा के पीछे जो कारण था, जाने से मना करने के पीछे विपिन का कारण वह नहीं था इसीलिए मुझे कष्ट महसूस हुआ। उस कारण को विपिन भी समझते थे और हम सब भी, लेकिन उस पर बहस नहीं कर सकते थेन तब, न अब। इस कष्ट के दौरान एक क्षण को मेरे मन में समूचे टूर को ही कैंसिल कर देने का विचार भी आया, लेकिन अपनी उस मन:स्थिति पर मैंने काबू पाया और अपने आप को सामान्य बनाए रखने का प्रयत्न किया। अपनी कोशिश में मैं सफल भी रहा।

हम सभी के सामने कभी-न-कभी ऐसी परिस्थितियाँ प्रस्तुत हो जाती हैं जो हमारी आकांक्षाओं से मेल नहीं खातीं। उन पर काबू पाने का प्रयत्न करने की बजाय हम उनसे किनारा करने का गलत निर्णय लेते हैं। फ्रायड ने इसे मृत्यु-वृत्ति(Death Instinct) कहा है। यह एक नकारात्मक वृत्ति है और कभी-कभी मन और मस्तिष्क को इस प्रकार अपनी गिरफ्त में ले लेती है कि भीतर से निकलने वाले सारे तर्क गर्त में चले जाने को उचित ठहराने लगते हैं। किसी भी कारण से कुछ क्षोभ हुआ नहीं कि आगे का सारा प्रोग्राम चौपट। मृत्यु-वृत्ति के भी दो रूप बताए गए हैं। पहला वह, जिसमें व्यक्ति स्वयं को कष्ट देकर सन्तोष का अनुभव करता है और दूसरा वह जिसमें दूसरों को कष्ट देकर सन्तोष का अनुभव करता है।  कई बार व्यक्ति इसलिए भी स्वयं को कष्ट देने की वृत्ति अपना सकता है कि उसको देखकर उससे लगाव रखने वालों को कष्ट होगा जिसे देखकर वह सन्तोष का अनुभव कर सकता है। मनस्ताप के कुल मिलाकर इतने प्रकार मनोविश्लेषण-विज्ञान ने प्रस्तुत कर डाले हैं कि उनसे परिचित व्यक्ति को अक्सर स्वयं अपने भी  मनस्तापी होने का सन्देह-सा होने लगता है। किताबों में ज्यादा डूबना शायद इसीलिए अच्छी आदत नहीं मानी जाती है। लेकिन यह भी तो सही है कि हम अगर मानव-व्यवहार के विश्लेषण की समझ रखते हैं और कोई भी कार्य करते हुए स्व-विवेक का प्रयोग करने के अभ्यस्त हो जाते हैं तो बहुत-से नकारात्मक निर्णय लेने से बच जाते हैं। बहरहाल, मन पर से हर प्रकार के बोझ को दरकिनार करके हमने यात्रा पर निकलने का निश्चय किया। मन पर बोझ के साथ कोई किसी भी यात्रा में आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता। बिगड़े हुए हालात को सुधारने के लिए प्रयत्नशील हमारे तत्कालीन हालात ने एकाएक ऐसा रुख अपना लिया था कि हम अगर सभी साथ जाते तो वह बोझ यात्रा के दौरान कभी-भी आ उपस्थित हो सकता था। 
सभी के साथ चलना हमेशा ही सुखदायी नहीं होता। सुख का अनुभव करने के लिए आदमी को कभी-कभी अकेले भी निकलना पड़ता हैघर से भी, देह से भी।

नोट:इस पोस्ट में संलग्न सभी फोटो मेरे कनिष्ठ पुत्र आदित्य अग्रवाल द्वारा खींचे गए हैं। इस बार का पहला व तीसरादो फोटो करीमुट्टी फॉल्स के हैं तथा दूसरा मरयूर-क्षेत्र के आसपास चाय-बाग़ानों का है।
 


शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

केरल यात्रा-2



केरल के एलेप्पी(Alleppey) कहे जाने वाले नगर का पूरा नाम एलप्पुझा(Alappuzha) है—‘एलेप्पी निकनेम है, इस बात का पता मुझे मुन्नार(Munnar) पहुँचने के बाद वहाँ के एक टूर-एजेंट के ऑफिस में लगे केरल के नक्शे में उसके पूरे नाम को पढ़ने के बाद चला और उसका सही उच्चारण अलप्पुषा अथवा आलपुष्षा है, इस तथ्य को मैंने एलेप्पी नगर अथवा राज्य प्रशासन की ओर से राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे जगह-जगह पर लगाए गए नामपटों पर नगर के नाम को देवनागरी में पढ़ने के बाद जाना। अन्य अनेक ऐसे राज्यों की अपेक्षा जो हिन्दी-भाषी राज्यों के बहुत निकट स्थित हैं, केरल राज्य की विशेषता यह है कि यहाँ पर मार्ग आदि से सम्बन्धित नामपटों पर मलयालम के साथ-साथ देवनागरी व रोमन में भी देखने-पढ़ने को मिल जाते हैं। पंजाब के नामपटों पर मात्र गुरुमुखी जैसा तालिबानी चरित्र आपको यहाँ नहीं मिलेगा। मुन्नार कहे जाने वाले स्थान का भी सही उच्चारण मन्नार है, इस बात को मुन्नार इन(होटल व रेस्टोरेंट) के अपने कमरे में रखे टेलिविजन सेट पर चल रही किसी वार्ता को अचानक सुनते हुए 6 नवम्बर 09 की सुबह मैंने तब जाना जब राज्य के किसी निवासी ने स्थान के नाम का उच्चारण अपने मुख से किया। इन दोनों ही घटनाओं ने मेरी इस धारणा को और अधिक पुष्ट कर दिया कि इस देश के हर नगर, हर कस्बे और हर गाँव, हर वस्तु और व्यक्ति ही नहीं कण-कण के नाम के सही उच्चारण को प्रस्तुत करने वाली एक वृहत् कोश-श्रंखला की देवनागरी में नितान्त आवश्यकता है। अब से कुछ वर्ष पहले, जब मैं पहली बार केरल-यात्रा पर निकला था, तब विभिन्न रेलवे-स्टेशनों से गुजरते हुए कुछ ऐसे स्थानों से भी गुजरना हुआ था जिनका नाम मैंने उससे पहले कभी पढ़ रखा था। मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं थी कि जिस स्थान को मैं पिछले चालीस-पेंतालीस सालों से त्रिचूर नाम से जानता था, उसका सही उच्चारण त्रिश्शूर है! कोचीन वास्तव में कोच्चि है और त्रिचनापल्ली का सही उच्चारण त्रिश्नापल्लि है। नामों के उच्चारण में भिन्नता का अब तक मेरी समझ में एक और सिर्फ एक ही जो कारण मेरी नजर आता है, वह है उनका रोमन में लिखा जाना। रोमन में देवनागरी के कई वर्ण जैसे किण, ड़, ढ़, ष, आदि या तो पूरी तरह से गायब हैं या फिर कुछेक सहायक चिह्नों की सहायता से बनाए जाते हैं अथवा कॉमन सेंस के आधार पर पढ़ लिए जाते हैं। देवनागरी के द, ड के लिए रोमन में डी, त, ट के लिए रोमन में टी का प्रयोग होता है। दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में के लिए टीएच दो अक्षरों का प्रयोग करते हैं जबकि तमिलनाडु में के लिए डीएच का प्रयोग देखने को मिलता है। दक्षिण भारत में ह्रस्व को दीर्घ बनाकर लिखने का तथा शब्द के अन्त में स्वर(Vowel) लगाकर उच्चरित करने का चलन है, यथाआदित्य को रोमन में उत्तर भारतीय क्षेत्रों की तरह ‘Aditya’ की बजाय ‘Adithya’ तथा सीता को ‘Sita’ की बजाय ‘Sitha’ लिखने का तथा आदित्य को आदित्या बोलने का चलन है। नामवाचक शब्दों के हिज्जे अर्थात स्पेलिंग्स अलग-अलग स्थानों पर स्थानीय उच्चारण के अनुरूप अलग-अलग देखने को मिलते हैं तथापि ब्रिटिश उपनिवेश रहे इस देश के राज्यों के, नगरों के, गाँवों के व व्यक्तिगत नामों तक के हिज्जे(स्पेलिंग्स) अंग्रेजों ने जो तय कर दिये थे, अधिकांशत: अभी भी वही के वही चले आ रहे हैं। उनके उच्चारण कुछ-और हैं और हिज्जे कुछ-और। उत्तर भारत के दिल्ली(Delhi), लखनऊ(Lucknow), मेरठ(Meerut) आदि कितने ही नगर ऐसे हैं।



बेटी-दामा भी चलेंगे तो पूरा परिवार ही एक साथ हो जाएगा न। मीरा ने कहा—‘ऐसा मौका बार-बार कहाँ आता है।
ओजस ठंड पकड़ गया तो बहुत मुसीबत हो जाएगी। मैंने दबाव डाला—‘बचपन की बीमारियाँ बड़ी उम्र तक दु:ख देती हैं।
तुम टाँग मत अड़ाओ और चुप रहो। वह बोली। मैं चुप हो गया। वास्तविकता तो यह थी कि यात्रा के आनन्द को वह बेटी-दामाद और दौहित्र के साथ भोगना चाहती थी और इस उल्लास में बच्चे के स्वास्थ्य-सम्बन्धी सुरक्षा की ओर अतिरिक्त विश्वास से भर उठी थी। वस्तुत: ऐसा होना नहीं चाहिए। सुरक्षा-सम्बन्धी मामलों में हमारे पैर हमेशा जमीन पर ही रहने चाहिएँ।
नोट:इस पोस्ट में संलग्न सभी फोटो मेरे कनिष्ठ पुत्र आदित्य अग्रवाल द्वारा खींचे गए हैं। इस बार के दो फोटो मुन्नार-क्षेत्र के आसपास चाय-बाग़ानों के तथा एक ओजस का है।



केरल यात्रा-1



मित्रो, पिछले माह यानी अक्तूबर 2009 की 16 तारीख से मैं सपत्नीक अपने बेटों के पास बंगलौर में हूँ। इस दौरान हम सबने कर्नाटक की कुर्ग-घाटी, जो कि कॉफी की खेती के लिए विश्व में प्रसिद्ध है तथा केरल के कुछ स्थानों की यात्रा की। इस दौरान देश में और विश्व में अनेक प्रिय-अप्रिय घटनाएँ घटीं। इस दौरान कवि-कथाकार मित्र सुभाष नीरव के पिताश्री ने देह का त्याग किया तो मेरे प्रिय पत्रकार जनसत्ता के यशस्वी संपादक प्रभाष जोशी भी इस संसार को विदा कह गए। अभी तक मैं जनगाथा, कथायात्रा तथा लघुकथा-वार्ता के माध्यम से लघुकथा-साहित्य आपके समक्ष प्रस्तुत करता रहा हूँ। अपना दौर के माध्यम से प्रयास रहेगा कि समय और समाज से जुड़े अपने मित्रों के अनुभवों को आपके साथ बाँट सकूँ। इसकी पहली किश्त के रूप में प्रस्तुत है केरल-यात्रा से जुड़ा यह अनुभव:





सरकारी आँकड़ों की बात करें तो केरल भारत का पहला ९१ प्रतिशत साक्षर प्रदेश है। स्कूल स्तर से ही यहाँ पर मलयालम और अँग्रेजी पढ़ाने का प्रावधान है। मलयालम यहाँ की प्रांतीय भाषा है और घोषित रूप से प्रशासकीय भाषा भी। मलयालम को भारत की संवैधानिक भाषा के रूप में मान्यता-प्राप्त है। केरल में रहने वाले मूल द्रविण सामान्यत: तमिल भाषा बोलते हैं जो कि चेर शासकों के समय में राज-काज की भाषा थी। मलयालम ने अपना प्रभाव 10वीं सदी के आसपास फैलाना शुरू किया। आम आदमी द्वारा आसानी से समझे जा सकने वाले आसान शब्दों से लैस होने के कारण यह तेजी से अपनायी जाने लगी। आज मलयालम की अपनी लिपि तथा अपना लिखित साहित्य है। ऐसा माना जाता है कि आर्यों द्वारा प्रसारित संस्कृत के प्रभाव के कारण मलयालम को किंचित क्षति पहुँची थी। नम्बूदिरियों द्वारा भी समाज में संस्कृत का खुला प्रयोग किया गया, लेकिन मलयालम की लोकप्रियता और शब्द-भंडार इस सबसे कम होने के स्थान पर बढ़े ही। स्थानीय लोगों ने संस्कृत के शब्दों को मलयालम में ढालकर प्रयोग करना शुरू कर दिया। इसी से इसे मणिप्रवलम भी कहा जाता है। वर्तमान मलयालम में लगभग 53 अक्षर हैं जिनमें से 20 दीर्घ व ह्रस्व स्वर हैं तथा शेष 33 व्यंजन। सन् 1981 से मलयालम को की-बोर्ड के उपयुक्त बनाने की दृष्टि से इसकी लिपि में कुछ सुधार किए गए। यही कारण है कि टाइप की दृष्टि से इन दिनों मलयालम में 90 अक्षर हैं।


























ऐसा बहुत बार होता है कि हम अपने मददगार के तरकश को उन तीरों से खाली समझने की गलती कर बैठते हैं जो हमारी जान बचाने के लिए बहुत जरूरी होते हैं और नकारात्मक अनुमानों के सहारे बड़ी आसानी से उस जंग को हार जाते हैं जिसे जीता जा सकता था।






नोट:इस पोस्ट में संलग्न सभी फोटो मेरे कनिष्ठ पुत्र आदित्य अग्रवाल द्वारा खींचे गए हैं। इस बार के फोटो एलेप्पी(Alleppey) स्थित बैक-वॉटर्स के हैं।