मंगलवार, 28 सितंबर 2010

द्वारका(गुजरात) से लौटकर

24 सितम्बर को मैं द्वारका(गुजरात)में था। वहाँ मुसलमानों की संख्या कम नहीं है। 25 सितम्बर को हमने भेंट द्वारका टापू, वहाँ की भाषा में जिसे बेट द्वारका कहा जाता है, की यात्रा की। टूरिस्ट बस में बतौर गाइड चल रहे पंडे ने बताया गया कि 'भेंट द्वारका की कुल आबादी लगभग 7000 है जिसमें मात्र 1000 हिन्दू हैं शेष 6000 मुसलमान।'
भेंट द्वारका में एक संकेतपट के निकट बैठा एक स्थानीय बुजुर्ग
भेंट द्वारका के  मुसलमानों का मुख्य व्यवसाय समुद्र से मछली पकड़ना है। पंडों का मुख्य व्यवसाय जमीन से मछली(यानी श्रद्धालु) पकड़ना है। इन दोनों ही तरह की मछलियों की उक्त क्षेत्र में कोई कमी ईश-कृपा से नहीं है। क्योंकि दोनों का व्यवसाय ठीक चल रहा है शायद इसीलिए दोनों ही स्थानों पर हमने अयोध्या-विवाद का कोई असर नहीं देखा जबकि 23 सितन्बर से ही टीवी पर लगातार लगभग भयावह खबरें आ रही थीं। 25 सितम्बर को दोपहर बारह बजे के आसपास अपने होटल से द्वारका रेलवे स्टेशन तक जिस ऑटो में बैठकर पहुँचे उसे मौहम्मद असलम चला रहे थे। द्वारकाधीश मन्दिर के मुख्य प्रांगण में घूमते हुए आठों याम पान-तम्बाखू-गुटखा गालों में दबाए घूमते और मन्दिर की किसी भी दीवार पर यहाँ तक कि फर्श पर भी जहाँ-तहाँ पीक थूकते पंडों से एकदम उलट उनका मुँह इन 'भगवत प्रसाद' तुल्य खाद्यों से रहित था। वे चार बेटियों के पिता थे। दो बेटियों की शादी कर चुके थे, दो अभी पढ़ रही हैं। मौहम्मद असलम का जन्म भी द्वारका में ही हुआ और पालन पोषण भी। डर अथवा संशय न उनके चेहरे पर था और न बातों में। कहने लगे ऊपर वाले की दुआ से दो रोटी चैन से कमा लेते हैं; बैंक से लोन लेकर ऑटो लिया था--सब चुका दिया, ऑटो अब अपना है। द्वारका से जामनगर पहुँचा। रेलवे प्लेटफॉर्म से ही सुनहरे रंग से सज्जित एक खूबसूरत मस्जिद दिखाई दी। समय काफी था इसलिए प्लेटफॉर्म से बाहर जाकर उसे देखने का लोभ संवरण न कर सका। जाकर देखा। वह थी--'मस्जिदे रोशन'। ज़िन्दगी में पहली बार मुझे मालूम हुआ कि मस्जिदें भी  सुन्नी और शिया में बँटी होती हैं। यह भी हो सकता है कि गुजराती-लिपि का पूर्ण अभ्यस्त न हो पाने के कारण मस्जिद के बाहरी गेट पर लगे सूचनापट का अर्थ मैं न समझ पाया होऊँ। बहरहाल, मुझे क्योंकि अपने सुन्नी या शिया होने का ज्ञान नहीं था इसलिए किसी भी अन्य जानकारी को पाने के लिए मेरी हिम्मत उसके अन्दर बैठे-घूमते लोगों के पास जाने की नहीं हुई। दोपहर के चार-साढ़े चार बजे का समय था। अयोध्या का फैसला आने से डरने या सावधान होने जैसी कोई हलचल मुझे मस्जिद के अन्दर-बाहर महसूस नहीं हुई।
मस्जिद-ए-रौशन, जामनगर
एक अधेड़ फकीर मस्जिद के बाहर अपना जामा फैलाए बैठा था। बेखौफ। स्टेशन के चारों ओर सड़कें बदहाल हैं या कहिए कि हैं ही नहीं। इस साल बारिश ने सड़क-ठेकेदारों का बहुत भला किया है। आगामी पाँच साल तक का प्रोजेक्ट मिल सकता है। दिल्ली हो या गुजरात सड़कें कहीं भी दुरुस्त हालत में नहीं बची हैं। वापसी में मैं मुख्य द्वार से प्लेटफॉर्म में प्रविष्ट नहीं हुआ। साइकिल स्टैंड की तरफ वाले खुले रास्ते से प्लेटफॉर्म पर गया। उस तरफ की सड़क अभी भी ठीक है। ठेकेदारों का दुर्भाग्य! इस तरह मैंने जामनगर रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नम्बर एक की जैसे परिक्रमा ही पूरी कर डाली। सब-कुछ सामान्य। रोज़ाना जैसा। गोरखपुर एक्सप्रेस में रात 9 बजकर 45 मिनट पर जामनगर से सवार हुए और सुबह 5 बजकर 10 मिनट पर अहमदाबाद पहुँच गए। निश्चिन्तता इतनी कि टी आई से कहना पड़ा कि 'सर, अहमदाबाद से कुछ पहले जगा देना। ऐसा न हो कि अहमदाबाद निकल जाए और हम सोते ही रह जाएँ।' टी आई हँसमुख व्यक्ति था। हिन्दू था या मुसलमान--यह जानने की हमें जरूरत ही महसूस नहीं हुई। हाँलाकि बैज पढ़कर हम आसानी से यह जान सकते थे।
'चिन्ता न कीजिए।' उसने कहा,'मैं भी अहमदाबाद तक ही जाऊँगा।'
बावजूद इसके हमने अपने मोबाइल सेट में 4 बजकर 30 मिनट का अलार्म सेट किया और सो गए। नींद गहरी आई। पता नहीं कितना बजा था कि उतरने वाली सवारियों की हलचल से आँख खुल गईं। खिड़की से झाँकने पर ट्रेन की स्थिति का कुछ पता नहीं चला।  बाहर, गेट पर खड़े एक सज्जन से पूछा तब पता चला कि अभी साबरमती से गुजर रही है, कुछ ही देर में अहमदाबाद आने वाला है। सुबह 5 बजे के आसपास हम अहमदाबाद के प्लेटफॉर्म नम्बर 6 पर उतर गए थे। वहाँ से चलकर प्लेटफॉर्म नम्बर एक पर स्थित प्रतीक्षालय में पहुँचे और सामान को किनारे लगाकर जैसी भी जिसको सुविधा मिली वह एक-एक सोफा घेरकर सो गया। वहाँ सोते हुए चोर-उचक्कों द्वारा सामान पर हाथ साफ न कर डालने का डर तो मन में था, किसी मुसलमान द्वारा हमला कर देने का विचार तक मन में नहीं था।
दस बजे के आसपास अपने कवि मित्र आईएएस अफसर श्रीयुत प्रवीण गढ़वी को फोन मिलाया। बोले--चले आओ। रेलवे स्टेशन के क्लॉक रूम में सामान जमा करने के बाद वहाँ से बाहर आकर गाँधीनगर जाने वाली लोकल बस के बारे में पूछने से पहले हमने एक भी व्यक्ति से यह नहीं जाना कि वह हिन्दू है या मुसलमान! और न ही बताने वाले ने बताने से पहले हमसे हमारा समुदाय पूछा।
भेंट द्वारका जाते हुए हिन्दू श्रद्धालुओं के साथ नाव पर सवार स्थानीय यात्री
तात्पर्य यह कि द्वारका से जामनगर, जामनगर से अहमदाबाद और अहमदाबाद से यहाँ दिल्ली-शाहदरा आ जाने तक मुझे सब कुछ सामान्य ही लगा। आज 28 सितम्बर है। बेशक आम आदमी, जो पवित्र द्वारका भूमि पर पैदा हुए भाई मौहम्मद असलम की तरह चैन से दो रोटी कमाने-खाने और बच्चों को पालने-पोसने को पहला धर्म समझता और मानता है, को बाबरी-अयोध्या से कोई मतलब नहीं है; लेकिन जिन्हें मतलब है वो असलम-जैसे (या अनिल-अशोक- सुनील जैसे) सीधे-सच्चे इन्सानों के दिमाग को संशय से भर देने का कुकृत्य करने से कभी भी बाज नहीं आयेंगे।
पूरे देश में घूम जाइए। बाबरी-अयोध्या आम आदमी के चिन्तन में नहीं हैं। अस्तित्व न हिन्दू का खतरे में नजर आता है, न मुसलमान का; न हिन्दुत्व का न इस्लाम का। वे और-ही लोग हैं जिनका अस्तित्व खतरे में है। वे न हिन्दू हैं और न मुसलमान।  जो लोग संशयभरी बातें करते हैं वे न तो सही अर्थ में इन्सान हैं न भारतीय।

3 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

वे और-ही लोग हैं जिनका अस्तित्व खतरे में है। वे न हिन्दू हैं और न मुसलमान। जो लोग संशयभरी बातें करते हैं वे न तो सही अर्थ में इन्सान हैं न भारतीय।
बहुत अच्छी लगा आपका संस्मरण । धन्यवाद।

बलराम अग्रवाल ने कहा…

S R Harnot
to me

Priy Bhai sahab,
aapki mail mili aur lekh bahut accha laga................bas kisi tarah hum yah samj viksit kar lein ki in muddon se jaroori aur bahaut si cheejein fan failakar hamara peecha kar rahi hai.....

S.R.HARNOT
098165 66611
HP Tourism Development Corporation,
Ritz Annexe, Shimla-171001

बलराम अग्रवाल ने कहा…

ILA PRASAD to me
show details 1:53 AM (10 hours ago)

avinash vachaspati ki report bhi padi. aaapke blog par aapaki 28th sept ki report par tippani daalane ki koshish ki . nahi gayi.
आपकी सोच सही है | वे और लोग हैं जिनका अस्तित्व खतरे में है और अपने को बचाने के लिए वे लड़ाइयाँ लगवाते हैं | वे भारतीय तो बिलकुल नहीं हैं क्योंकि भारतीयता की पहचान ही यही है - सबसे पहले इंसान होना |
इला