शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

क्रिकेट का महायुद्ध यानी ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ का नया संस्करण/ बलराम अग्रवाल

दोस्तो, इस लेख को मैं क्रिकेट विश्वकप 2011 के फाइनल से दो घंटे से भी कम समय पहले पोस्ट कर रहा हूँ। मैच का परिणाम जो भी हो, हमारी मानसिकता में इस विश्वकप के दौरान एक नकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास किया गया है जो अत्यन्त घिनौना और पीड़ादायक है।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा। मात्र इसलिए राष्ट्रगीत की दौड़ से बाहर हो गया बताते हैं कि इसमें विश्वविजय का सपना था जो हमारे न सिर्फ कायिक बल्कि वैचारिक अहिंसक चरित्र और पंचशील सिद्धांत के खिलाफ था। अब, जब से क्रिकेट विश्वकप 2011 का ताप बढ़ने लगा है, राजनीतिक गलियारों में बहुविधि पालित पंचशील सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ती नजर आ रही हैं। वस्तुत: तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जिस आध्यात्मिक सिद्धांत या नैतिक सद्वाक्य की धज्जियाँ न उड़ा दें, उसे परम सौभाग्यशाली ही समझना-मानना चाहिए।
सेमीफाइनल से पहले भारत-पाक टीमों के बीच होने वाले मैच को करगिल युद्ध की पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया। परिणाम जो भी रहा, यह तो तय है कि खेल के मैदान में पाक के साथ हमारा मीडिया हद दर्जे तक नापाक प्रस्तुति वाला है। अन्य खेलों की मैं नहीं जानता, लेकिन क्रिकेट के मामले में देश के दर्शक को उसने असामान्य संवेदना से युक्त कर लगभग मनस्तापी बना डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मुझे कथादेश के एक अंक में कवि व पत्रकार विष्णु खरे द्वारा लिखित फिल्म बॉर्डर की समीक्षा याद है जिसमें उन्होंने संभावना व्यक्त की थी कि इस फिल्म में पाक-कमांडर के खिलाफ प्रयुक्त सनी देओल के गालीभरे संवाद भारत में हिन्दू-मुसलमानों के बीच वैमनस्य का कारण बन सकते हैं। यद्यपि वैसा कुछ हुआ नहीं और उक्त संवादों के साथ बॉर्डर को सैकड़ों बार टी॰वी॰ पर दिखाया जा चुका है। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हमें कुछ विषयों की संवेदनशीलता के प्रति लापरवाह नहीं हो जाना चाहिए। खेल में जीत की भावना को बढ़ावा देने का तरीका इतना साफ-सुथरा होना चाहिए कि देश का बच्चा-बच्चा विश्व-नागरिक बनने की ओर अग्रसर हो सके; न कि इतना भद्दा कि वह अपने पड़ोसी से नफरत करने लगे या फिर उससे नजरें चुराने लगे।
आज जिस अखबार, जिस चेनल को देखो, वह जुनून से भरा है। दु:खी करने वाली बात यह है कि यह जुनून सकारात्मक और गुणात्मक लेशमात्र भी नजर नहीं आता है। यह सकारात्मक और गुणात्मक हो सकता है यदि जीतने की यह भावना हम सभी खेलों में सभी देशों के विरुद्ध अपने खिलाड़ियों और देशवासियों में समान रूप से पनपायें, लेकिन यह हो नहीं रहा है। हालत यह है कि मीडिया दो देशों ही नहीं, दो सम्प्रदायों के बीच वैमनस्य बोने का ऐसा आत्मघाती खेल खेल रहा है जिसके परिणाम तुरन्त तो किसी को भी दिखाई दे ही नहीं रहे। जो परिणाम दिखाई दे रहा है वो यह किअमेरिका ने भारत-पाक क्रिकेट कूटनीति की प्रशंसा की है। इस प्रशंसा से ही आभास मिलता है कि कुछेक टुकड़े हमारी ओर फेंकते रहकर साम्राज्यवादी अमेरिका हमें किस कीचड़ की ओर धकेल रहा है! अभी कुछ वर्षों पहले उसने हमें—‘गर्व से कहो हम हिन्दू(यह उद्बोधन देते समय स्वामी विवेकानन्द ने इस शब्द का प्रयोग समस्त भारतवासियों के लिए किया था) हैं की ओर धकेला था, जिसकी ओर चलते हुए हमने कितनी सामाजिक समरसता खोई, यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
मोहाली के पंजाब क्रिकेट एसोसिएशन स्टेडियम के क्लब हाउस में उस वक्त, जब पाक दो  विकेट गँवा चुका था, पाक के प्रधानमंत्री यूसुफ रज़ा गिलानी, भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी आदि राजनयिक गोश्त बर्रा, तंदूरी पिंक सालम, मुर्ग लजीज़,गोश्त पालक साग, चाँप बिरयानी, तवे की मछली, भरवाँ मीट, शाही इडली, गाजर का सूप और कई अन्य व्यंजनों का आनन्द ले रहे थे। बकौल अकबर इलाहाबादी:
क़ौम के ग़म में डिनर करते हैं हुक्काम के साथ।
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ॥
जो भी हो, देश के मीडिया से यही दरख्वास्त है कि वहखेल को खेल ही रहने दे कोई नाम न दे।
फोटो साभार:नई दुनिया,दिल्ली 31 मार्च 2011



4 टिप्‍पणियां:

राजेश उत्‍साही ने कहा…

बिलकुल सही बात है। सहमत हूं। मैंने गुल्‍लक पर भी कुछ इसी तरह की बात की है।

प्रदीप कांत ने कहा…

खेल को खेल ही रहने देना होगा

सुभाष नीरव ने कहा…

दुख तो यही है भाई कि मीडिया की भूमिका ऐसे मामलों में बहुत ही नकारात्मक होकर उभरती है। हर चैनल कुछ इस तरह से अपनी भूमिका निभाता है कि लगता है, खेल खेल न हो, वास्तव में दो देशों के बीच युद्ध हो ! तुमने इस संबंध में जो कुछ लिखा है, उससे असहमत नहीं हुआ जा सकता।

ਸ਼ਿਆਮ ਸੁੰਦਰ ਅਗਰਵਾਲ ने कहा…

आपने बिलकुल ठीक लिखा। हमारा मीडीया बहुत गैर जिम्मेवार होता जा रहा है। एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में वह इस देश की जनता व विशेष रूप से नौजवानों को बहुत गलत संदेश दे रहा है। एक टी.वी.चैनल पर तो ‘सहवाग व युवराज के सिर फोड़ने की तैयारी’ ‘पाकिस्तान को कुचल दो’, ‘आज लंका दहन की तैयारी’ जैसी भद्दी बातें देखने को मिली।
खेल का काम जोड़ना है, तोड़ना नहीं। खेल खेल होता है जंग नहीं। खेल में हुई जीत या हार पर बहुत असहज नहीं हो जाना चाहिए।
-श्याम सुन्दर अग्रवाल