शुक्रवार, 27 मई 2011

शाह लेखक, चोर लेखक/बलराम अग्रवाल


बेशक, डॉक्टर भी इन्सान ही होता है। वह भी आम आदमी की तरह शारीरिक और मानसिक रुग्णता का शिकार हो सकता है।
                                 चित्र : बलराम अग्रवाल
हुआ यों कि हंस के मई 2011 में छपी एक लघुकथा पढ़ी। उसका कथानक लगभग वैसा था जैसे को केन्द्र में रखकर मैं एक कहानी लिखने की योजना कई माह से बना रहा था। यद्यपि ट्रीटमेंट की दृष्टि से भिन्नता थी, फिर भी उक्त लघुकथा को पढ़कर मैंने उसे न लिखना ही तय किया, यह सोचकर कि कहानी पर पूर्व-प्रकाशित किसी रचना से प्रेरित होने का आरोप न लगे। मैं यों भी कहानियाँ लिखता ही कब हूँ!
अब, आप इसे मेरा अव्यावहारिक होना समझिए या जरूरत से ज्यादा मूर्ख या चालाक होना(इस मूर्खता या चालाकी का पता व्यक्ति को स्वयं नहीं चलता है) कि मैंने हंस में छपी उक्त लघुकथा के लेखक को फोन पर बधाई दे दी और अपनत्व के नाते यह भी बता दिया कि इसी विषय को केन्द्र में रखकर जिस कहानी की मैं योजना बना रहा था, वह अब नहीं लिखी जा सकेगी। और-भी बहुत-सी बातें, जो एक ही विधा के लेखकों के बीच सामान्यत: होती हैं, हुईं।
इस बातचीत के चार-छ: दिन बाद पहली लघुकथा, पहला लघुकथाकार, कहानी व लघुकथा के मध्य विभाजन बिंदु आदि जैसे शोधार्थियों द्वारा  बार-बार पूछे जाने वाले कुछ सवालों के जवाबों को एक लेख के रूप में व्यक्त कर मैंने उनकी पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेज दिया। गलती शायद यह की कि यह पहल मैंने अपनी ओर से कर दी, लेख-आदि माँगने के उनके अनुरोध का इंतज़ार नहीं किया। बहरहाल, लेख मिल जाने पर उन्होंने उसकी प्राप्ति की सूचना देने का मैत्रीभाव निभाया। नमस्कार आदि औपचारिकताओं के बाद बात यों शुरू की:
लेख कुछ एम॰ए॰-शैम॰ए॰ टाइप का है! वह बोले। मैं चौंका। मुझे याद आया कि एक बार उन्होंने बात करते-करते यह टिप्पणी भी की थी कि लोग कहानी की आलोचना वाले लेखों में लघुकथा शब्द फिट करके अपने नाम से नये-नये लेख लिख रहे हैं। बेशक, यह बात तो स्वयं मैंने भी कुछेक लेखों पर सही पाई थी। और यह बात न केवल लघुकथा-आलोचना बल्कि हर विधा की आलोचना के कुछेक लेखों पर लागू हो सकती है क्योंकि पहली बात तो यह कि आलोचना या समीक्षा लिखने वाले सभी लोग मौलिक चिन्तक नहीं होते; दूसरी यह कि मौलिक चिन्तक भी कुछेक बिन्दुओं पर अन्य चिन्तकों से एकरूपता रखते हैं। लेकिन लेख अथवा चिन्तन का अमौलिक होना अलग बात है और स्तरहीन अथवा सामान्य स्तर का होना अलग। सभी जानते हैं कि अकादमिक स्तर के सवाल आम तौर पर फ्रेम-वर्क जैसे होते हैं और उनके उत्तर भी कमोबेश वैसे ही होते हैं।
इधर आपकी एक लघुकथा छपी है। वह आगे बोले।
किसमें? मैंने पूछा।
यह पश्चिम बंगाल से छपनेवाला एक आठ-पेजी अखबार-सा है…
नई दिशाएँ?
हाँ-हाँ। वह बोले।
पता नहीं। मैंने कहा। नई दिशाएँ पत्र का उक्त अंक मुझे वस्तुत: तब तक मिला नहीं था। अब तक भी नहीं मिला है।
इसमें आपकी बीती सदी के चोंचले छपी है। उन्होंने कहा। फिर बजाय यह बताने के कि बीती सदी के चोंचले उन्हें कैसी लगी, उन्होंने बताया,इस सब्जेक्ट पर काफी साल पहले मैंने भी एक लघुकथा लिख रखी है। यह सुनकर मेरा चौंकना स्वाभाविक था क्योंकि जब से लेखन शुरू किया है, तब से एक भी लघुकथा, कहानी या कविता मैंने उधार के विषय पर नहीं लिखी, हमेशा मौलिक चिन्तन ही किया।
उसमें क्या था? मैंने पूछा।
उसमें कुछ ऐसा था कि एक मन्दिर की सीढ़ियों पर कोई असामाजिक तत्व गाय का खून-मांस डाल गया था। पुजारी जल्दी-जल्दी उस स्थान को धोता है और उपस्थित लोगों से कहता है कि किसी को बताना नहीं। उन्होंने बताया।
इस लघुकथा से मेरी लघुकथा का ट्रीटमेंट तो एकदम भिन्न है, मैंने कहा,एक-जैसी लगती हैं लेकिन स्थितियाँ भी अलग हैं।
हाँ, ट्रीटमेंट भी थोड़ा भिन्न है… किंचित संकोच के साथ वे बोले,मैं तो ऐसे ही कह रहा था। दरअसल हम सब एक-जैसे सूचना-तन्त्र में रहते हैं इसलिए विचारों और कथानकों में थोड़ी-बहुत समानता का आ जाना आम बात है।
अब, अगर मैं यह कहता कि उनकी कही हुई यह बात तो एक दशक पहले अपने एक लेख में मैं कह चुका हूँ, तो कैसा रहता? अभी हाल-फिलहाल की बात हैगुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150वीं जयन्ती के अवसर पर एक कार्यक्रम में बोलते हुए सुप्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने कहा था—“टैगोर को भगवान न बनाएँ, इन्सान ही रहने दें। उनसे दो दिन पहले ही साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित प्रेमचंद कहानी रचनावली के लोकार्पण के अवसर पर उसके संपादक डॉ॰ कमल किशोर गोयनका ने कहा था—“प्रेमचंद को इन्सान ही रहने दें, देवता न बनाएँ। 1997 में प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ की भूमिका मैंने प्रेमचंद निहायत आम आदमी हैं, अवतार नहीं शीर्षक से लिखी थी। नि:संदेह उससे पूर्व भी अनेक विचारकों ने ऐसे विचार व्यक्त कर रखे होंगे। तो क्या हम सब के सब एक दूसरे के विचारों की चोरी कर रहे हैं?
आपकी एक और लघुकथा है… वह कुछ याद करते-से बोले,वैसी भी मैंने काफी साल पहले लिखी थी।
कौन-सी? मैं पुन: चौंका।
वह…जिसमें एक माँ लड़की को थाने ले जाने की बात करती है… वह बोले।
बचावघर मैंने कहा।
हाँ, यह मेरी एक पुरानी लघुकथा से मिलती है…उसमें… इससे आगे उन्होंने क्या-क्या कहा मैं सुनकर भी समझ नहीं पाया क्योंकि मेरे लिए यह हैरानी की बात थी कि मैं आज से नहीं कई दशकों से अमौलिक लेखन कर रहा हूँ। हालाँकि मैं आज भी अपनी रचनाओं पर उनके लेखन-प्रकाशन संबंधी नोट नहीं लगा पाता, लगा देता हूँ तो सहेज नहीं पाता। इसलिए पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि मेरी कौन-सी रचना कब लिखी गई और पहले-पहल कहाँ छपी। बचावघर, जहाँ तक मुझे याद है, मैंने 1984-85 के दौरान लिखी होगी।
हालाँकि अन्य लेखकों की भी अनेक लघुकथाओं को वे अपनी पूर्व-प्रकाशित रचना से प्रभावित होकर लिखने की बात बताते रहते थे। पुस्तक-समीक्षा के मामले में भी मित्र-विशेष के बारे में उनका यह कहना कि आठ-दस पत्रिकाओं से मैटर उठाकर समीक्षा लिख मारता है मैं कई बार सुन चुका था। इस बार हमला मुझ पर था, वह भी पीठ-पीछे नहीं, सीधे मुझी से। मुझे लगता है कि हंस में छपी उनकी रचना को देखकर प्रशंसा करने और निरुद्देश्य ही स्पष्ट कहने की जो दरियादिली मैंने दिखाई थी, उसने उनको कुछ सच उगलने के लिए प्रोत्साहित कर दिया। सोचा होगा कि जब यह एक अनलिखी रचना के बारे में स्वयं अपना स्पष्टीकरण दे रहा है तो इसकी कुछ लिखित और प्रकाशित रचनाओं के बारे में अपनी ओर से क्यों न बता दिया जाए?
जब से मित्रवर से बात हुई है, अपने लेखन और चिन्तन की अमौलिकता व स्तरहीनता को लेकर चिन्तित हो गया हूँ।

4 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई बलराम, क्यों तुम ऐसे कलमकार की बातों से परेशान हो रहे हो… कुछ लोग अपने को सदैव कुछ ऊँचाई पर रखकर दूसरों से बात करते हैं… तुम अपनी रचनाओं की मौलिकता और उसके स्तर को लेकर ज्यादा चिंतित न हो, ऐसे लोग तो चाहते ही हैं ईर्ष्यावश, दूसरे के लेखन को अवरुद्ध करना… तुम बस लिखते रहो… और ऐसे लोगों की बातों को तरज़ीह न दो… हाँ, तुमने अपने ब्लॉग के माध्यम से अपने इस मित्र (?) की बातचीत शेयर की, अच्छा किया, दूसरे भी ऐसे मित्रों से सतर्क हो जाएंगे…

बलराम अग्रवाल ने कहा…

उपन्यासकार रूपसिंह चन्देल ने निम्न टिप्पणी मेल द्वारा प्रेषित की है:
Roop Singh Chandel to me

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भाई बलराम,

हंस के उन स्वनामधन्य लेखक का नाम भी बताना चाहिए था. बात इतनी लंबी लिखी, लेकिन नाम नहीं बताया. नाम नहीं तो उस लघुकथा का ही जिक्र कर दिया होता. ऎसे महान और आत्ममुग्ध लेखकों की कमी नहीं जो स्वयं दूसरॊं की थीम उधार लेकर या कहूं कि चोरी करके रचनाएं लिख रहे हैं और अपनी चोरी न पकड़ी जाए इसलिए दूसरों को चोर सिद्ध करने के अवसर नहीं खोना चाहते. उनकी निकृष्टता और धृष्टता को धिक्कार--.

रूप चन्देल
९८१०८३०९५७

राजेश उत्‍साही ने कहा…

मौलिकता और स्‍तर को लेकर चिन्तित होना तो अच्‍छी बात है, पर इस तरह नहीं। और ऐसे मित्रवरों से दूर ही रहना बेहतर। वैसे वे सब जगह हैं। अलग अलग रूपों में।

प्रदीप कांत ने कहा…

काश ऐसे मूर्धन्य लेखक का नाम हमे भी पता लगता