खुश रहना देश के प्यारो, अब हम तो सफ़र करते हैं…7 दिसम्बर 2011 को चले भी गए श्रीकृष्ण जी और हमको खबर तक नहीं!!! |
मैंने सोचा नहीं था कि मुझे इतनी जल्दी अपनी पूर्व पोस्ट के बारे लिखना पड़ेगा और वह भी दु:खद। वस्तुत: तो मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं किस तरह इस बात को शुरू करूँ। अनेक तरीके दिमाग में आ रहे हैं, लेकिन बेहतर यही है कि मैं खुद पर लानत भेजने से इसकी शुरूआत करूँ। लानत है…! लानत है…!! लानत है…!!!
गत एक वर्ष से ऊपर हो गया। अजय जी (मेधा बुक्स), जब भी मुलाकात होती, 11 जनवरी 2011 को श्रीकृष्ण जी से हुई मुलाकात को कलमबद्ध करके प्रकाशनार्थ किसी पत्र-पत्रिका में भेजने या नेट पर किसी ब्लॉग पर ही डाल देने की याद दिलाते; लेकिन संवेदनहीन दिल्ली में गत 20-22 वर्षों से खाते-पीते, साँस लेते मैं भी अब ‘दिल्लीवाला’ हो गया हूँ। उनका अनुरोध मेरी संवेदनहीनता और तज्जनित लापरवाही की भेंट चढ़ता रहा, टलता रहा। वर्तमान पुस्तक मेला शुरू होने से दो दिन पहले अन्तत: वे बोले—‘बलराम जी, अगर आपने आज ही श्रीकृष्ण जी वाला मेरा काम नहीं किया तो मैं समझूँगा कि आप भी उन बहुसंख्यक लेखकों की जमात में हैं जो केवल कागजों पर ही संवेदनशीलता की बातें करते हैं।’
मुझे उनकी बात लग गई हो, ऐसी बात नहीं थी। फिर भी, न जाने किस ताकत ने काम किया कि घर पहुँचते ही मैंने ‘पुस्तक, व्यवसाय और श्रीकृष्ण’ को ध्यान में रखकर लिखना शुरू कर दिया। अवसर क्योंकि 20वाँ विश्व पुस्तक मेला शुरू होने का था और श्रीकृष्ण जी पुस्तक व्यवसाय से जुड़ी महान हस्ती थे, इसलिए लेख का पूर्वार्द्ध अनायास ही पुस्तक व्यवसाय पर ही केन्द्रित रहा, श्रीकृष्ण जी का उल्लेख बाद में शुरू हुआ। 25 फरवरी की सुबह (रात लगभग 12॰15 बजे) उसे मैंने अपने ब्लॉग ‘अपना दौर’ में पोस्ट कर दिया। बावजूद इस कमी के, कि वह पूरी तरह श्रीकृष्ण जी पर केन्द्रित नहीं था, अनेक लेखकों द्वारा उनसे जुड़े प्रसंगों पर चिन्ताएँ व्यक्त की गईं। उन चिन्ताओं को पढ़-सुनकर यह विश्वास मन में जमा कि दिल्ली निरी संवेदनहीन नहीं है और इन्सानियत खुशबू की तरह है जो कब्रिस्तान को भी महकाए रखती है। रूपसिंह चन्देल और सुभाष नीरव ने तो फैसला सुनाया कि मुझे उन्हें लेकर इसी शनिवार यानी 3 मार्च को श्रीकृष्ण जी से मिलाने को जाना है (वह इसलिए कि उनका लिखित पता न उन्हें मालूम था, न मुझे)। बाइत्तफाक यह जिक्र पुस्तक मेले में मेधा बुक्स के स्टाल पर भी हो गया जिसे सुनकर अजय जी ने कहा कि मेला खत्म होने के बाद किसी भी दिन चलो तो मैं भी साथ जाना चाहूँगा। बात मेला समाप्त होने के बाद जाने की तय हो गई। यहाँ तक कि कल फोन पर भी चन्देल ने याद दिलाया कि श्रीकृष्ण जी के यहाँ जाने का कार्यक्रम ज्यादा आगे नहीं खिसकाना है। इसी दौरान वरिष्ठ कथाकार नरेन्द्र कोहली जी का भी फोन आया था। उन्होंने बताया कि विश्वास नगर स्थित अपने आवास को छोड़कर गए श्रीकृष्ण जी का निश्चित पता-ठिकाना उन्हें उपलब्ध नहीं था, इसलिए वे उनकी कोई खैर-खबर नहीं ले पाए। पता मिल जाए तो वे उनसे मिलने जाना चाहते हैं। उनकी बात सही थी। श्रीकृष्ण जी ने अपने डूब जाने का अधिक प्रचार नहीं किया। वास्तविकता तो यह थी कि स्वयं मुझे भी श्रीकृष्ण जी के निवास की केवल लोकेशन ही मालूम थी, उनका लिखित पता या कोई फोन नम्बर नहीं मालूम था। कोहली जी मैंने उन्हें वह बाद में उपलब्ध करा देने का वादा कर दिया। अजय से जिक्र किया तो उन्होंने भी वही कहा कि हमें तो लोकेशन याद है, उसी के सहारे पहुँच जाते हैं। मैं कई दिनों तक इस शर्मिन्दगी को झेलता रहा कि कोहली जी को क्या जवाब दूँ? याद आया कि उनकी एक पुत्री का निवास नवीन शाहदरा में ही है। श्रीकृष्ण जी के आवास का पता और फोन नम्बर लेने के लिए आज सुबह मैं उधर चला गया। मकान की कॉल बेल अभी बजाने ही वाला था कि स्कूटर पर सवार एक नौजवान सज्जन वहाँ आकर रुके।
‘कहिए।’ उन्होंने पूछा।
‘श्रीकृष्ण जी की बेटी का यही मकान है?’ मैंने पूछा।
‘जी हाँ।’ उन्होंने कहा।
‘मुझे उनके नोएडा वाले घर का लिखित पता चाहिए।’ मैं बोला।
‘बाबूजी तो अब रहे नहीं।’ उन्होंने कहा। मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। अत: पूछा,‘मैं पराग प्रकाशन वाले श्रीकृष्ण जी की बात कर रहा हूँ।’
‘जी हाँ।’ उन्होंने कहा,‘मैं उनका दामाद हूँ। आप अन्दर आइए।’
यह सूचना इतनी दु:खद और अप्रत्याशित थी कि मैं भीतर तक हिल गया और मुझे तुरन्त बैठ जाने की जरूरत महसूस हुई। पता लिखवाकर लेने के लिए शायद न बैठना पड़ता; और अगर बैठना भी पड़ता तो उस बैठने और इस बैठने में घोर अन्तर था। बेटी और दामाद से ज्यादा बातें करने का माहौल मुझमें बचा नहीं था। श्रीकृष्ण जी के दामाद प्रिय राजेन्द्र जैन उनके नोएडा स्थित आवास का पता और फोन नम्बर एक कागज पर लिखने लगे।
‘7 दिसम्बर की सुबह वे चले गए।’ लिखते-लिखते उन्होंने बताया।
‘मम्मी जी की हालत भी खराब है।’ श्रीकृष्ण जी की बेटी सीमा बताने लगी,‘मैं भी जाती हूँ तो पहचान नहीं पाती हैं। पापाजी के जाने का उनके मन पर इतना गहरा सदमा है कि वे मान ही नहीं रही हैं कि पापाजी चले गए। कहती हैं—वे उधर दूसरी तरफ लेटे हुए हैं…’
इस बीच राजेन्द्र जी ने श्रीकृष्ण जी के नोएडा आवास का पता लिखा कागज मेरी ओर बढ़ा दिया। ‘इस पर अपने आवास का पता भी लिख दीजिए।’ मैं बोला।
‘जी।’ कहते हुए उन्होंने अपने आवास का पता भी उस पर लिख दिया।
मैं उक्त दोनों ही पतों और उनके फोन नम्बरों को नीचे लिख रहा हूँ—
1. Mrs. Nisha Gupta (daughter, Ph. 8800184598)
Mr. Neeraj Gupta (Son-in-law, Ph. 9810389687)
G-109, Sector 56,
Near Mother Dairy,
Janta Flats, Noida (UP)
2. Mrs. Seema Jain (daughter, Ph. 011-22321612)
Mr. Rajendra Jain (Son-in-law, Ph. 9310962206)
N-10, Gali No. 1, Uldhanpur,
Naveen Shahdara, Delhi-110032
इसके साथ ही ‘पुस्तक, व्यवसाय और श्रीकृष्ण’ शीर्षक अपने पूर्व लेख के श्रीकृष्ण जी पर केन्द्रित उस हिस्से को पुन: यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ जिसे मैंने ‘एक बदहाल प्रकाशक की कहानी’ शीर्षक से 25 फरवरी को ‘नुक्कड़’ पर पोस्ट किया था।
कई दशक पहले निर्माता-निर्देशक-अभिनेता मनोज कुमार ने कहा था कि फिल्मों में अंडरवर्ल्ड का पैसा लग रहा है। यह ईमानदार फिल्म निर्माता-निर्देशकों के सिरों पर शनै: शनै: छाते जाते अंडरवर्ल्ड आतंक की ओर इशारा भर था, जिसे शायद ही गम्भीरतापूर्वक सुना-समझा गया हो। विभिन्न प्रकाशक मित्रों के बीच बैठकर इधर-उधर से बहुत-सी बातें सुनाई देती हैं तो आज बल्क पुस्तक खरीद का माहौल लगभग वैसा ही महसूस होता है। किसी दूसरे को क्या, आज स्वयं को भी ईमानदार कहना अपने साथ बेईमानी करने जैसा है लेकिन यह सच है कि भ्रष्टाचार के दलदल में फँसे होने के बावजूद, अधिकतर लोग ईमानदारी से व्यवसाय करने के पक्षधर हैं, बशर्ते वैसा माहौल उपलब्ध कराया जाए। बेईमान माहौल में केवल बेईमान और पूँजीवादी ही पनपते हैं, ईमानदार और मेहनतकश नहीं। यही कारण है कि इन दिनों मेहनतकश और ईमानदार पुस्तक व्यवसायी स्वयं को बेहद विवश महसूस कर या भ्रष्टाचार के दलदल में कूद पड़े हैं या बाज़ार से मालो-असबाब समेटने और बाहर खिसकने के रास्ते पर पड़ चुके हैं। राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय स्तर के अनेक पत्रकार, सम्पादक-लेखक-आलोचक और नौकरशाह बल्क पुस्तक खरीद केन्द्रों और प्रकाशकों के बीच कमीशन-एजेंट का लाभकारी धन्धा अपनाए हुए हैं। ऐसे माहौल में लेकिन कितने लेखकों, पत्रकारों, प्रकाशकों और पुस्तक व्यवसायियों को आज पता है कि अमृता प्रीतम की ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कृति ‘रसीदी टिकट’ की रूपसज्जा आदि के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित, पराग प्रकाशन को समग्र स्तरीयता प्रदान करने वाले तथा बाल नाटककार के रूप में विभिन्न राज्यों की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक बार पुरस्कृत श्रीकृष्ण आज कहाँ हैं और किस हालत में हैं? गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के स्कूल पाठ्य-पुस्तकों में उनके बाल नाटक संकलित होते रहे हैं।
व्यावसायिक दृष्टि से देखें तो पराग प्रकाशन का डूबना वैसा ही है जैसा व्यावसायिक कूटदृष्टि से हीन किसी भी संस्थान का डूबना होता है। एक व्यवसायी कभी भी दूसरे व्यवसायी की व्यावसायिक मौत पर नहीं रोता। लेकिन श्रीकृष्ण द्वारा संचालित पराग प्रकाशन का डूबना मेरी दृष्टि में हिन्दी प्रकाशन व्यवसाय के एक ‘टाइटेनिक’ का डूबना है। उसके डूबने पर उसके हर लेखक, संपादक को रोना चाहिए था, परन्तु किसी ने उफ् तक नहीं की। मेधा प्रकाशन ने श्रीकृष्ण जी के कुछ बाल नाटकों का एक संग्रह ‘अभिनेय बाल नाटक’ शीर्षक से प्रकाशित किया था। तब मुझे साथ लेकर अजय भाई उनके नोएडा स्थित निवास पर गए थे। 2010 में श्रीकृष्ण जी से हम दो बार मिलकर आए थे, उसके बाद जनवरी 2011 में जा पाए; लेकिन अफसोस की बात है कि उसके बाद हम पुन: उनसे मिलने जाने का समय नहीं निकाल पाए जबकि हमें जाते रहना चाहिए था। 11 जनवरी 2011 को हमारे जाने से कुछ ही माह पहले उन्हें पक्षाघात हुआ था और उनके शरीर के बाएँ हाथ-पैर ने काम करना बन्द कर दिया था। सुनने की ताकत तो उनकी काफी समय पहले क्षीण हो गयी थी, अब स्मृति भी क्षीणता की ओर है। शारीरिक रूप से अक्षमता की ऐसी हालत में वे पति-पत्नी समीप ही रह रही अपनी एक बेटी ‘रजनी’ पर आश्रित हैं। परिवार सहित वही उनकी देखभाल करती है।
श्रीकृष्ण जी पर कथाकार-पत्रकार बलराम और उपन्यासकार रूपसिंह चन्देल ने अपने-अपने संस्मरण लिखे हैं। इनके अलावा भी कुछ लोगों ने लिखे हो सकते हैं, लेकिन वे मेरी दृष्टि से नहीं गुजरे, क्षमा चाहता हूँ। 15 अक्टूबर, 1934 को जन्मे श्रीकृष्ण जी छ: पुत्रियों के पिता हैं। सभी पुत्रियाँ विवाहित हैं, सुखी हैं। मिलने आने वालों की बात चली तो पति-पत्नी दोनों को मात्र एक नाम याद आया—योगेन्द्र कुमार लल्ला जी। रजनी ने भी कहा कि लल्ला जी अंकल कभी-कभार आते हैं। उनके अलावा तो श्रीकृष्ण जी ने कहा कि—‘जिस-जिस की भी अपने भले दिनों में खूब मदद की थी, उनमें से कोई नहीं मिलने आता है। किसी और की क्या कहूँ, खुद मेरा सगा भाई भी अभी तक मुझे देखने नहीं आया है। ठीक ही कहा है कि जो पेड़ कितने ही परिन्दों को आश्रय और पथिकों को छाया व फल देता है, बुरे वक्त में वे सब उसका साथ छोड़ जाते हैं। आप लोग मिलने आ गये, यह बहुत बड़ी बात है…कौन आता है!…नरेन्द्र कोहली कहते थे कि मेरा नाम पराग प्रकाशन की देन है, लेकिन अब वे भी…।’
प्रकारान्तर से रामकुमार भ्रमर का नाम भी उनकी जुबान पर आया। बहुत तरह से वे पति-पत्नी बहुत लोगों को याद करते हैं। उनके अनुसार, हिमांशु जोशी आदि अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों के वे प्रथम प्रकाशक रहे हैं। अतीत की बातें सुनाते हुए कभी वे खुश होते हैं, कभी उदास। यहाँ बहुत अधिक न कहकर तभी लिए गए उनके कुछ फोटो दे रहा हूँ। इन्हीं से उनकी स्थिति का किंचित अन्दाज़ा आप लगा सकते हैं।
9 टिप्पणियां:
साहित्य जगत के शिरोमिणी श्री कृष्ण जी को हार्दिक श्रद्धांजलि ।
भाई बलराम, आज दिन में सवा तीन बजे चन्देल का फोन आया और फोन पर श्रीकृष्ण जी के निधन का समाचार सुनकर अवाक रह गया…तुरन्त कंप्यूटर खोल कर 'अपना दौर' पर तुम्हारी पोस्ट पढ़ने बैठ गया। पढ़ना शुरू किया तो आगे पढ़ना कठिन हो गया…आँखों में आँसुओं का गुबार सामने कंप्यूटर स्क्रीन पर लिखे अक्षरों को पढ़ने नहीं दे रहा था। जैसे तैसे पूरा पढ़ा और भीतर तक एक अवसाद और दु:ख की लहर दौड़ गई। यार, तुमने श्रीकृष्ण जी पर पिछली पोस्ट बहुत ही विलम्ब से लगाई। 25 फरवरी 2012 से हम(तुम, मैं, चन्देल और अजय) लगातार उन्हें स्मरण करते रहे और भीतर एक बेचैनी महसूस करते रहे और उनसे जल्द से जल्द मिलने की योजना बनाते रहे। हम उस शख्स से मिलना चाह रहे थे, जो अब इस दुनिया में था ही नहीं, वह तो गत वर्ष 7 दिसम्बर 11 को ही दुनिया को अलविदा कह गया… एक और तकलीफ़देह और त्रासद सच सामने आया कि बेशक आज हम संचारक्रांति और इंटर नेट के युग में जी रहे हैं जिसने हमारी भौगोलिक दुरियां कम कर दी हैं,परन्तु हम अभी भी आपस में कोसों दूर हैं। वह शख्स हमारे बिल्कुल बगल में रह रहा था, गुमनाम सा, और कैसे गुमनाम सा चुपके से चला भी गया, हमें पता भी नहीं चला। किसी अखबार, पत्र -पत्रिका में कोई खबर नहीं। पूरी संचार क्रांति एक तरफ़ धरी की धरी रह गई।
हम दूसरों को क्या कहें, अपने भीतर भी जब झांकते हैं तो पाते हैं कि घर-परिवार, दफ़्तर और अन्य कामों की भागमभागी ने हमारे भीतर की संवेदना पर ही सबसे पहले हमला किया है। हमारे पास आपस में मिलने जुलने का थोड़ा-सा भी समय नहीं है। भाई चन्देल ने जो लिखा है, वह भी बहुत तीखा सच है। जिन लेखकों को उनकी प्रारंभिक साहित्य यात्रा में छाप कर श्रीकृष्ण जी ने उनको नाम और यश दिलाया और आज वे बड़े लेखक होने का तमगा लगाए हुए हैं, उनका भी श्रीकृष्ण जी से सिर्फ़ और सिर्फ़ रायल्टी के पैसे तक ही संबंध रहा। लेखकों और प्रकाशकों के बीच किताबों की रायल्टी को लेकर मतभेद, शिकवे-शिकायतें तो रहती ही हैं, परन्तु क्या इनके चलते हम मनुष्यता को भूल जाएं? कोई तो कारण रहा होगा कि वह व्यक्ति अपने दुर्दिनों में अज्ञातवास में चला गया और यूँ ही चुपचाप दुनिया से कूच कर गया। कोई लेखक-प्रकाशक मित्र उसकी मृत्यु की खबर तक न पा सके और उसकी अंतिम यात्रा तक में शरीक न हो सके। कितनी दु:खद बात है ! हम किस तरह के आधुनिक हैं, हम किस आधुनिक दुनिया में जी रहे हैं ? जहाँ हमें हमारे भीतर की खत्म होती संवेदना की परवाह नही है, जहाँ हम मनुष्यता से अमनुष्यता की ओर बढ़ रहे हैं…हम उस मनुष्य, उस लेखक का साहित्य क्यों पढ़ते हैं, जो मनुष्य अब रहा ही नहीं। जो दूसरे के दु:ख-तकलीफ़ से कोई वास्ता नहीं रखता…
भीतर तक दुखी और उद्वेलित हूँ और भाई बलराम, मैं भी तुम्हारी तरह सबसे पहले अपने पर लानत भेजता हूँ…कि मैं किस असंवेदनशील दुनिया में जी रहा हूँ…
सुभाष नीरव
भाई रूपसिंह चन्देल ने एक लम्बी टिप्पणी छोड़ी है जो प्रकाशित नहीं हो पा रही है। उस टिप्पणी को दो बार में पोस्ट करना पड़ रहा है अत: जोड़कर पढ़ने का कष्ट करें--(टिप्पणी का पूर्वार्द्ध)
रूपसिंह चन्देल roopchandel@gmail.com via blogger.bounces.google.com
2:11 PM (9 hours ago)
to balram.agarwal.
बलराम,
नेट खोलते ही तुम्हारा यह मेल देखकर हत्प्रभ रह गया. इस पर हम कई दिनों से चर्चा कर रहे हैं.कितने ही लोगों को मैंने तुम्हारा पहले वाला आलेख पढ़ने के लिए कहा. कई उन मित्रों को भेजा जिनके पास तुम नहीं भेज पाए होगे.
रविवार रात सुधा अरोड़ा जी का फोन आया और उन्होंने श्रीकृष्ण जी के बारे लंबी बातें की. वह पराग प्रकाशन (बाद में अभिरुचि) की लेखिका रही हैं उन्होंने बताया कि जब उन्हें आबिद सुरती जी के माध्यम से उन्हें पता चला कि श्रीकृष्ण जी की आर्थिक स्थिति खराब हो गयी है तब उन्होंने (सुधा जी ने) उन्हें तीन हजार रुपयों का चेक भेजा, लेकिन श्रीकृष्ण जी यह कहकर लेने से इंकार कर दिया कि वह यूँ ही वे पैसे नहीं लेंगे. वह उन्हें रायल्टी नहीं दे पा रहे और उनसे उल्टे पैसें लें उचित नहीं. अंततः वह इस शर्त पर तैयार हुए कि सुधा जी उन्हें कोई पांडुलिपि दें और सुधा जी ने उन्हें ’तेरह कहानियां’ दीं. उनकी ईमानदारी और सहृदयता की प्रशंसा करते हुए सुधा जी बेहद भावुक हो गयी थीं. श्रीकृष्ण जी थे ही ऎसे.
लेकिन यहां मैं उन दो लेखकों का भी उल्लेख करना चाहता हूं जिनके श्रीकृष्ण पहले प्रकाशक रहे और जिन्होंने साहित्य में भरपूर यश पाया. बेशक बाद में वे उनके प्रकाशन से बाहर हो गये थे. एक हैं डॉ. नरेन्द्र कोहली और दूसरे हिमांशु जोशी. जिन दिनों श्रीकृष्ण जी की आर्थिक स्थिति खराब हुई उन्हीं दिनों जोशी जी ने उन्हें 32,000/- का रायल्टी का नोटिस भेजवाया था. श्रीकृष्ण जी ने कई बार मुझसे कहा कि उनके पास प्रमाण हैं कि उन्होंने उनकी रायल्टी का भुगतान कर दिया था. लेकिन बात बनी नहीं. दोनों के कामन मित्र श्री सत्येन्द्र शरत ने बीच में पड़कर 16,000/ में समझौता करवाया था. इसके लिए श्रीकृष्ण जी ने मुझे भी कहा था, लेकिन मैं जानता था कि हिमांशु जी मेरी बात नहीं मानेंगे.
……(यह टिप्पणी आगे जारी है)
्……(रूपसिंह चन्देल की टिप्पणी का उत्तरार्द्ध)
और नरेन्द्र कोहली जी--बलराम, तुम्हारा पहला आलेख कोहली को उनके बेटे ने अमेरिका से भेजकर उन्हें पढ़ने के लिए कहा. और उनके बारे में न मिलने जाने की तुम्हारी टिप्पणी से कोहली जी कितना नाराज हुए यह कल विश्वपुस्तक मेला में उन्होंने मुझसे स्पष्ट किया. उन्होंने कहा कि तुमने श्रीकृष्ण और उनकी पत्नी का पक्ष जाना और लिख दिया. उनका पक्ष भी जान लेते तो अच्छा था. उनका पक्ष था कि जब श्रीकृष्ण जी की आर्थिक स्थिति खराब हुई तब श्रीकृष्ण जी की पत्नी ने कोहली से कहा था, "भाई साहब, अब तक हम आपको बहुत रायल्टी दे चुके--अब बची पुस्तकें आप हमारे लिए छोड़ दें, क्योंकि अब हम रायल्टी दे सकने की स्थिति में नहीं हैं." और कोहली जी के अनुसार-- "मैंने पुस्तकें भी छोड़ीं और उनके घर जाना भी छोड़ दिया."
कोहली जी का उपरोक्त कथन यह स्पष्ट करता है कि वह मात्र रायल्टी के लिए श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखे हुए थे. दूसरी एक और बात--कोहली जी ने दोनों के एक कामन मित्र से जब इस बारे में चर्चा की तो उनके अनुसार, उन मित्र ने कोहली जी से कहा कि--"उस 'जाहिल' महिला के यह कहने पर आपको श्रीकृष्ण के घर जाना नहीं छोड़ना चाहिए था." जिन कामन मित्र का उन्होंने नाम लिया वे मेरे भी घनिष्ठ मित्र हैं और श्रीकृष्ण के तो तब से मित्र थे जब दोनों ने आत्माराम एंड संस में एक साथ काम करना शुरू किया था. और अंत तक वह श्रीकृष्ण के मित्र रहे. मैं नहीं समझता कि उन्होंने कोहली जी से श्रीकृष्ण जी की पत्नी के लिए वैसा अपमानजनक शब्द इस्तेमाल किया होगा.
एक और बात. तुमने लिखा है कि कोहली जी ने तुम्हारा पहले वाला आलेख पढ़कर तुम्हें फोन कर कहा था कि उनके पास श्रीकृष्ण का फोन-पता नहीं, तो वह मिलने कैसे जाते. भाई, जिसे चाह होती है उसे राह मिल ही जाती है. दिल्ली साहित्यकारों से अभी शून्य नहीं हुई. मैंने कैसे उनका पता जान लिया था और मिलने चला गया था और वह पता आज भी मेरे पास है. श्रीकृष्ण जी ने 'इंडिया टुडे' में मेरे उपन्यास ’गुलाम बादशाह’ की समीक्षा प्रकाशित होने के बाद मुझे फोन करके यह सूचना दी थी. बात बहुत पुरानी नहीं है.
कोहली जी ने श्रीकृष्ण जी के विश्वासनगर छोड़ने से पूर्व उन्हें पांच हजार रुपए भेजवाए थे अपनी किसी शिष्या के हाथों जिसके माध्यम से श्रीकृष्ण ने ऑटो में भरकर अपने गोदाम में बची कोहली जी की पुस्तकें उनके घर भेजवायी थीं. उन्होंने मुझे बुलाकर मेरी बची पुस्तकें मुझे भी दी थीं--और दूसरे लेखकों को भी. वह चाहते तो अपना प्रकाशन ’शब्दकार’ की भांति किसी भी प्रकाशक को बेच सकते थे. कुछ कर्ज ही उतर जाता, लेकिन उन्होंने उसके लिए अपना मकान बेचना उचित समझा था. बातें बहुत हैं कहने के लिए....उन पर लिखा मेरा संस्मरण इस पुस्तक मेला के अवसर पर प्रकाशित मेरी संस्मरण पुस्तक ’यादों की लकीरें’(भावना प्रकाशन, पटपड़ गंज गाँव, दिल्ली-95) में संग्रहीत है. निश्चित रूप से, एक और लिखा जाएगा.
रूपसिंह चन्देल
9810830957
उस संत आत्मा को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि ! हमारी दुनिया उनके लायक नहीं थी , चला जाना ही उचित था|
उन्हें सादर नमन |
इला
प्रख्यात कथाकार सुधा अरोड़ा जी ने निम्न टिप्प्णी मुझे मेल की है--
Sudha Arora sudhaarora@gmail.com
10:21 AM (9 hours ago)
to me
बलराम जी ,
अभी अभी आपका श्रीकृष्ण दुखद पटाक्षेप पढ़ा .
पढ़ कर धक्का लगा .
आप जैसे संवेदनशील लोग बहुत काम रह गए हैं .
अफ़सोस होता है , हमारी संवेदनाएं मरती क्यों जा रही हैं !
अभी मुंबई से बाहर हूँ . लौट कर लिखूंगी .
सस्नेह
सुधा अरोड़ा
आदरणीय भाई साहब,
श्री कृष्ण जी के बारे में आपकी पोस्ट और उसके साथ विशेषत: नीरव जी एवं चंदेल जी की टिप्पणियों में व्यक्त संवेदना को समझा जा सकता है. लेखकों/साहित्यकारों की दुनियां भी अब कार्पोरेट की दुनियां जैसी ही स्वार्थी हो गयी है. आप-हम सिर्फ अपनी भावाभिव्यक्ति से लेखकीय संवेदना और उसकी परंपरा को जिन्दा बनाये रखने की कोशिश कर सकते हैं, स्थितियों को बदलने की इच्छा होते हुए भी कुछ करना बहुत मुश्किल हो जाता है. कई लोग गुमनामी के अँधेरे में रहते हुए भी महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं, पर उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है. कई बार मेरे मन में आता है कि किसी ऐसे प्लेटफोर्म की स्थापना की जाये, जिससे जुड़कर कोई भी महत्वपूर्ण और प्रतिभाशाली रचनाकार गुमनामी के अँधेरे में खोये हुए दुर्दिन देखने के लिए अभिशप्त न हो. ऐसे कुछ सहयोगी आधार वाले प्रयोग मेरे कुछ बैंकिंग क्षेत्र के साथी कर भी चुके हैं. एकाद के साथ मैं भी जुड़ा. परन्तु लोगों की महत्वाकांक्षाओं और एक स्थिति विशेष में लालची बन जाने की प्रवृत्तियों के चलते खुबसूरत मंचों की बरबादियों को भी मैंने देखा है, वही सबकुछ सोचकर किसी प्रयोग की ओर कदम बढ़ाने का साहस नहीं बटोर पाता. हालाँकि जब भी श्री कृष्ण जी के जैसा कोई प्रकरण सामने आता है, तो फिर कहीं न कहीं मन में कुछ करने की कुलबुलाहट सिर उठाने लगती है.
एक बात और भी है, बुरा-भला वक्त सबके जीवन में आता है. जो लोग श्री कृष्ण जी से उपकृत होकर भी उन्हें भूल गए, क्या कल उनके जीवन में भी बुरा वक्त आया, तो क्या वे लोग अपने आज के व्यवहार को न्यायसंगत ठहरा पाएंगे और क्या अपने अच्छे वक्त के व्यवहार को याद करेंगे? ऐसे मित्रों और अग्रजों से यही कहूँगा कि आज अच्छा वक्त है, तो बुरे वक्त में आपके साथ कोई खड़ा हो सके, इसकी व्यवस्था करने के बारे में भी सोचो, दूसरों के साथ आपका भी भला होगा और आपका लेखकीय आचरण भी अपने सही रूप में सामने आ सकेगा. लेखकीय संवेदनाओं को समझो और उन्हें अपनी बनायी गांठों को खोलकर अभिव्यक्त होने दो. पैसा तो लेखन से परे भी कमाया जा सकता है, पर लेखकीय संवेदनाओं और सरोकारों को तो लेखकीय आचरण के दायरे में ही जिन्दा रखा जा सकता है.
दोस्तो, श्रीकृष्णजी से सम्बन्धित मेरे लेख को भाई रूपसिंह चन्देल द्वारा 'हिन्दी भारत' पर भी पोस्ट किया गया था। उस पर डॉ॰ कविता वाचक्नवी ने निम्न टिप्पणी प्रस्तुत की है-On Fri, Mar 2, 2012 at 5:31 PM, Dr.Kavita Vachaknavee
wrote:
> अत्यंत दु:खद और दुर्भाग्यपूर्ण। ईश्वर उनकी आत्मा को सद्गति प्रदान करें, विनम्र श्रद्धांजलि !
> काफी पहले श्री कृष्ण जी के संबंध में लिखा संस्मरण पढ़ा था और तब भी मन भावुक विगलित हो उठा था। उनके देहावसान का कष्टदायक समाचार पढ़कर एक सीधे सच्चे व ईमानदार व्यक्ति के गुमनाम चले जाने का क्षोभ हुआ। मरण तो प्रत्येक का सुनिश्चित है; वे परिवार के साथ थे और बच्चों के होते भले उनका अंतिम समय सामान्य व भौतिक रूप से त्रासदायक न रहा होगा, किन्तु इस पूरे प्रसंग में हिन्दी समाज की सौ / लाख बार की उघड़ी हुई नंगई फिर से दीख गई। यह कुंठित हिन्दी समाज वस्तुतः है ही इतना स्वार्थान्ध कि वह किसी को चीर कर भी उसके पिचके पेट अपनी चवन्नी निकाल लेने का साहस और बेशर्मी रखता है।
> यह केवल कहने की ही बातें हैं कि हिन्दी का लेखक ऐसा इसलिए है क्योंकि वह निर्धन है। तब तो हर निर्धन के हाथ में एक एक छुरा और एक एक बंदूक होनी चाहिए। दूसरी बात, कि हिन्दी का हर छोटा बड़ा लेखक बहुधा वही है जो कॉलेज या यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहा है, जो इतर हैं वे भी अपनी अपनी किसी न किसी नौकरी में हैं, लेखन इन सबका शौक है, व्यवसाय नहीं। न तो ये सारे काम धंधे छोड़ कर लेखन के लिए भाषा की सेवा (?) कर रहे हैं ( जिसका क्रेडिट लेने की खींसे निपोरती आदतें हिन्दी वालों को पड़ी हुई हैं), व न ही इतने फटेहाल हैं कि इन्हें निर्धन कहा जाए। बल्कि हिन्दी लेखन से जुड़े अधिकांश लोग समाज के मध्यम और सामान्य सुविधापूर्ण जीवन की पृष्ठभूमि वाले हैं। ऐसे किसी भी व्यक्ति की स्वार्थपूर्ण हरकतें केवल नीचता व कमीनगी ही कहला सकती हैं। और इक्का दुक्का को छोड़ कर हिन्दी वालों को इस नीचता और कमीनगी की मनुष्यताहीन आदतें पड़ी हुई हैं। यही एक बार फिर से इस पूरे प्रकरण से साफ हुआ है। इस हिन्दी समाज में हर किसी को अपने धिक्कारना चाहिए, केवल किसी एक को ही नहीं।
(डॉ.) कविता वाचक्नवी
कहानियां घटती रहीं हैं और अब भी घट रही हैं। इस हमाम में सब नंगे हैं।
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