खलील जिब्रान |
मेरी, सबसे बड़े अचरज की बात तो यह है कि ग़ज़ब की
खूबसूरत इस दुनिया में, जो दूसरे इंसानों के लिए अनजानी है, हाथ में हाथ डाले हम
हमेशा साथ घूमते हैं। एक-दूसरे के हाथ को पूरा खींचकर हम जीवन से रस खींचते हैं—और नि:संदेह जीवन हमें वह देता है।
(जिब्रान द्वारा 22 अक्टूबर 1912 को लिखे एक
पत्र का अंश)
कोई व्यक्ति बिना महान हुए आज़ाद हो सकता है, लेकिन
आज़ाद हुए बिना कोई भी महान नहीं हो सकता।
(जिब्रान द्वारा 16 मई 1913 को मेरी
को लिखे एक पत्र का अंश)
सच्चा संन्यासी घने जंगल में खोजने के लिए जाता है—न कि स्वयं को खोने के लिए।
(जिब्रान द्वारा 8 अक्टूबर 1913 को मेरी
को लिखे एक पत्र का अंश)
मेरी हस्कल का पेंसिल स्केच |
“तुम्हारे साथ, मेरी,” आज उसने कहा,“घास की एक पत्ती-सा बर्ताव
करना चाहता हूँ जो वैसे ही नाचती है जैसे हवा उसे नचाती है। इस पल की नज़ाकत के मुताबिक
बात करनी चाहिए। वही करूँगा।”
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 10
जनवरी 1914 से)
खुली सड़कों पर पैदल चलते रहने-जैसा बड़ा काम करना चाहता
हूँ। जरा सोचो, मेरी, ऐसे में तूफान आ जाए तो क्या होगा! निर्द्वंद्व गति के
माध्यम से जीवन देने वाले महाभूतों को देखने से बेहतर भी कोई दृश्य हो सकता है
क्या?
(दिनांक 24 मई 1914 को लिखे एक पत्र
का अंश)
अब मैं अपने-आप को तुम्हें सौंप सकता हूँ। दरअसल, किसी
दूसरे के हाथों में अपने-आप को आप तभी सौंप सकते हैं जब वह जानता हो कि आप कर क्या
रहे हैं। जब उसके दिल में आपके लिए आदर और प्यार हो। वह आपको आपकी आज़ादी दे सकता
हो।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 20 जून
1914 से)
काव्य क्या है?—दृष्टि की व्यापकता; और
संगीत?—श्रवण की व्यापकता।
(मेरी हस्कल के जर्नल 20 जून 1914
से)
कभी-कभी तुमने बोलना भी शुरू नहीं किया होता कि मैं पूरी बात समझ जाता हूँ।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 28
जुलाई 1917 से)
ज्ञान यानी पंखदार जीवन।
(दिनांक 15 नवंबर 1917 के एक पत्र का
अंश)
तुमने मेरे काम में और व्यक्तित्व निर्माण में मेरी
मदद की। मैंने तुम्हारे काम में और व्यक्तित्व निर्माण में तुम्हारी मदद की। मैं
शुक्रगुजार हूँ परमात्मा का कि उसने ‘मुझे’ और ‘तुम्हें’ बनाया।
(मेरी हस्कल के जर्नल 12 मार्च 1922
से)
अगर मुझे धूप और गरमाहट पसंद है तो बिजली और तूफान के
लिए भी तैयार रहना चाहिए।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 12
मार्च 1922 से)
हृदय की आवाज़ सुनो। हर बड़े काम में वह सच्चा सलाहकार
है। मन सीमित है। क्या करना चाहिए—इसका निश्चय वह दिव्यशक्ति
करती है जो हम-सब में विद्यमान है।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 12
मार्च 1922 से)
तुम्हारे और मेरे बीच रिश्ता
मेरी ज़िंदगी की खूबसूरत घटना है। इससे पहले मैंने कभी ऐसा महसूस नहीं किया। यह
दिव्य है।
(मेरी हस्कल के जर्नल 11 सितम्बर
1922 से)
बिशेरी स्थित खलील जिब्रान म्यूजियम में मूर्तिशिल्प |
तुम्हें खुश देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। खुशी
तुम्हारे लिए आज़ादी का रूप है। जितने भी लोगों को मैं जानता हूँ, उनमें सबसे अधिक
आज़ाद तुम्हें होना चाहिए। यह खुशी और यह आज़ादी तुमने खुद पायी है। ज़िंदगी तुम्हें
सुख और सुविधा देने वाली नहीं थी लेकिन तुम स्वयं ज़िंदगी को सुख और सुविधा देने
वाली बन गई हो।
(जिब्रान के पत्र दिनांक 24 जनवरी
1923 से)
मुझे तुम्हारी खुशी की वैसी ही चिंता है जैसी तुम्हें
मेरी खुशी की। अगर तुम्हारा मन शांत नहीं है तो मेरा कैसे रह सकता है।
(दिनांक 23 अप्रैल 1923 को लिखित
जिब्रान की डायरी से)
बुद्धिमान लोगों के बीच विवाह का उपयुक्त आधार मित्रता
यानी एक-दूसरे की रुचि का ख्याल रखना है। विचार-विमर्श करने की क्षमता है।
एक-दूसरे के विचारों और आकांक्षाओं को समझना है।
(मेरी हस्कल के जर्नल 26 मई 1923 से)
आप किसी गाँव में रहें या महानगर में, क्या फर्क पड़ता
है? असली ज़िंदगी तो आपके-अपने भीतर है।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 27 मई
1923 से)
विवाह किसी भी व्यक्ति को वह अधिकार नहीं देता जिन्हें
वह दूसरे व्यक्ति में नहीं देखना चाहता; और ना ही उससे अलग कोई आज़ादी देता है
जितनी वह दूसरे व्यक्ति को देता है।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 27 मई 1923 से)
पेड़ों पर कलियाँ लदी थीं, चिड़ियाँ चहचहा रही थीं, घास
पर ओस थी, सारी धरती जगमगा रही थी। और एकाएक मैं पेड़ों में, फूलों में, चिड़ियों
में और घास में तब्दील हो गया—‘मैं’ का नामोनिशान न रहा।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 23 मई
1924 से)
मैं जितना बोल नहीं पाता हूँ, तुम उससे कहीं ज्यादा
सुन लेती हो। तुम अपनी चेतना से सुनती हो। मेरे साथ तुम वहाँ उतर जाती हो जहाँ
मेरे शब्द तुम्हें नहीं लेजा सकते।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 5 जून
1924 से)
कोई भी मानवीय रिश्ता दूसरे पर अधिकार का द्योतक नहीं
है। हर दूसरा व्यक्ति भिन्न है। दोस्ती में या प्यार में, दोनों समान रूप से उस ओर
हाथ बढ़ाते हैं जिस ओर दूसरा कमजोर पड़ता है।
(मेरी हस्कल के जर्नल दिनांक 8 जून 1924
से)
4 टिप्पणियां:
आज सुबह—सुबह जिब्रान को पढ़ने का अनुभव, मानो पूरा दिन सार्थक हो गया. अब कुछ और न हो तो भी गम नहीं. बहुत धन्यबाद,
खलील जिब्रान अपने ख़तों में भी इतनी गजब की बातें कह सकता है, हैरत होती है… ये पंक्तियाँ तो दिल को छू गईं -
"पेड़ों पर कलियाँ लदी थीं, चिड़ियाँ चहचहा रहीं थीं, घास पर ओस थी,सारी धरती जगमगा रही थी। और एकाएक मैं पेड़ों में, फूलों में, चिड़ियों में और घास में तब्दील हो गय - "मैं" का नामोनिशान न रहा।"
बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ !
भाई बलराम, वातायन को जिब्रान पर केन्द्रित करने के दौरान हस्कल को लिखे उनके सभी पत्र पढ़े थे, बल्कि वह पूरी सामग्री ही पढ़ी थी, जो तुमने खलील जिब्रान में प्रकाशित की है. खलील परतुम्हारा कार्य बहुत ही प्रंशंसनीय और अभूतपूर्व है. आगे कोई करेगा कह नहीं सकता. तुम्हें ढेर सारी शुभकामनाएं. यह आशा भी कि आगे ऎसे ही बड़े काम तुम करते रहोगे.
रूपसिंह चन्देल
कई पत्रांश तो खुबसूरत कविता जैसे हैं.
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