शनिवार, 14 नवंबर 2009

केरल यात्रा-3


बुधवार की सुबह बेटी के यहाँ से जब यह फोन आया कि वे लोग हमारे साथ नहीं जा पाएँगे तो आकाश को आश्चर्य हुआ और मुझे कष्ट।

जीजाजी ने शाम को बड़े सकारात्मक मूड में विचार करने को कहा था…ऐसा नहीं लग रहा था कि वह मना कर देंगे। उसके मुँह से निकला, लेकिन मैं समझ चुका था कि उन्हें उस वक्त परखने में या तो उसने वाकई गलती की या वह जानबूझकर यह गलती करना चाह रहा था। वे लोग हमारे साथ न जाएँमेरी इस इच्छा के पीछे जो कारण था, जाने से मना करने के पीछे विपिन का कारण वह नहीं था इसीलिए मुझे कष्ट महसूस हुआ। उस कारण को विपिन भी समझते थे और हम सब भी, लेकिन उस पर बहस नहीं कर सकते थेन तब, न अब। इस कष्ट के दौरान एक क्षण को मेरे मन में समूचे टूर को ही कैंसिल कर देने का विचार भी आया, लेकिन अपनी उस मन:स्थिति पर मैंने काबू पाया और अपने आप को सामान्य बनाए रखने का प्रयत्न किया। अपनी कोशिश में मैं सफल भी रहा।

हम सभी के सामने कभी-न-कभी ऐसी परिस्थितियाँ प्रस्तुत हो जाती हैं जो हमारी आकांक्षाओं से मेल नहीं खातीं। उन पर काबू पाने का प्रयत्न करने की बजाय हम उनसे किनारा करने का गलत निर्णय लेते हैं। फ्रायड ने इसे मृत्यु-वृत्ति(Death Instinct) कहा है। यह एक नकारात्मक वृत्ति है और कभी-कभी मन और मस्तिष्क को इस प्रकार अपनी गिरफ्त में ले लेती है कि भीतर से निकलने वाले सारे तर्क गर्त में चले जाने को उचित ठहराने लगते हैं। किसी भी कारण से कुछ क्षोभ हुआ नहीं कि आगे का सारा प्रोग्राम चौपट। मृत्यु-वृत्ति के भी दो रूप बताए गए हैं। पहला वह, जिसमें व्यक्ति स्वयं को कष्ट देकर सन्तोष का अनुभव करता है और दूसरा वह जिसमें दूसरों को कष्ट देकर सन्तोष का अनुभव करता है।  कई बार व्यक्ति इसलिए भी स्वयं को कष्ट देने की वृत्ति अपना सकता है कि उसको देखकर उससे लगाव रखने वालों को कष्ट होगा जिसे देखकर वह सन्तोष का अनुभव कर सकता है। मनस्ताप के कुल मिलाकर इतने प्रकार मनोविश्लेषण-विज्ञान ने प्रस्तुत कर डाले हैं कि उनसे परिचित व्यक्ति को अक्सर स्वयं अपने भी  मनस्तापी होने का सन्देह-सा होने लगता है। किताबों में ज्यादा डूबना शायद इसीलिए अच्छी आदत नहीं मानी जाती है। लेकिन यह भी तो सही है कि हम अगर मानव-व्यवहार के विश्लेषण की समझ रखते हैं और कोई भी कार्य करते हुए स्व-विवेक का प्रयोग करने के अभ्यस्त हो जाते हैं तो बहुत-से नकारात्मक निर्णय लेने से बच जाते हैं। बहरहाल, मन पर से हर प्रकार के बोझ को दरकिनार करके हमने यात्रा पर निकलने का निश्चय किया। मन पर बोझ के साथ कोई किसी भी यात्रा में आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता। बिगड़े हुए हालात को सुधारने के लिए प्रयत्नशील हमारे तत्कालीन हालात ने एकाएक ऐसा रुख अपना लिया था कि हम अगर सभी साथ जाते तो वह बोझ यात्रा के दौरान कभी-भी आ उपस्थित हो सकता था। 
सभी के साथ चलना हमेशा ही सुखदायी नहीं होता। सुख का अनुभव करने के लिए आदमी को कभी-कभी अकेले भी निकलना पड़ता हैघर से भी, देह से भी।

नोट:इस पोस्ट में संलग्न सभी फोटो मेरे कनिष्ठ पुत्र आदित्य अग्रवाल द्वारा खींचे गए हैं। इस बार का पहला व तीसरादो फोटो करीमुट्टी फॉल्स के हैं तथा दूसरा मरयूर-क्षेत्र के आसपास चाय-बाग़ानों का है।
 


1 टिप्पणी:

सुरेश यादव ने कहा…

भाईअग्रवाल जी ,-अपनादौर का स्वागत है.वृत्तांतों में बौद्धिकता की छाप और चित्रों में सजीव प्रकृति आकृष्ट कराती है.बधाई.