दिल्ली में दूध-आपूर्ति इसकी सीमा से सटे उत्तर प्रदेश और हरियाणा के ग्रामीण अंचलों द्वारा की जाती है। कुछ आपूर्ति रेलगाड़ियों द्वारा, कुछ दुग्ध-वाहनों द्वारा, कुछ पैडल-साइकिलों द्वारा, कुछ स्कूटरों और मोटर-साइकिलों आदि के द्वारा भी संपन्न होती है। यह बेहद श्रमसाध्य कार्य है जिसमें लगे लोगों की रातें जागते हुए गुजरती हैं क्योंकि दिल्ली के नौनिहालों को सुबह-सबेरे दूध उपलब्ध कराया जा सके। ‘दूधिया’ या ‘दूध वाले भैया’ कहलाने वाले इन लोग की दिनचर्या और जीवनचर्या दोनों पर बहुत सकारात्मक कलम चलाई जानी चाहिए। इनकी पैडल-साइकिलों में हैंड-ब्रेक नहीं होते। जरूरत पड़ने पर उसे ये अपने पैरों के करतब से रोकते हैं। बेशक, इनमें से अनेक दुग्ध-डेयरियों की बजाय दुग्ध-फैक्ट्रियों से माल उठाने और सप्लाई करने वाले हो सकते हैं, लेकिन सब नहीं। इनके चलते ट्रेनों और ट्रकों को कितने-कितने जिरह-बख्तर अपने बदन पर लादने पड़ते हैं—उन्हें दर्शाने हेतु प्रस्तुत है यह फोटो:
शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010
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3 टिप्पणियां:
धन्यवाद इस तस्वीर का!
:)
ये रंग भरा त्यौहार, चलो हम होली खेलें
प्रीत की बहे बयार, चलो हम होली खेलें.
पाले जितने द्वेष, चलो उनको बिसरा दें,
खुशी की हो बौछार,चलो हम होली खेलें.
आप एवं आपके परिवार को होली मुबारक.
-समीर लाल ’समीर’
Roop Singh Chandel
to me
show details 5:52 AM (7 hours ago)
प्रिय बलराम
बात तुम्हारी सही है. इन पर विस्तार से लिखा जाना चाहिए. यह केवल दिल्ली की सप्लाई का मामला नहीं पूरे हिन्दुस्तान के नगरों और महानगरों को इसीप्रकार दूध पहुंचाया जाता है. लेकिन इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि इन दूधियों के दुध में गंदा पानी इतनी मात्रा में मिला होता है कि यदि लोग इन्हें वह पानी मिलाते देख लें तो दूध लेना ही बंद कर दें. तालाबों का गंदला पानी दूध में खपता है निर्मल नहीं. मैंने अपने गांव के दूधियों को गांव के तालाब से ऎसा पानी मिलाते देखा है.
एक बात और---- ये दूधिये स्कूटर और मोटर साइकिलों में इतने पीपे बांध लेते कि आश्चर्य होता है और बेलगाम सड़क पर वाहन दौड़ाते हैं. डर लगता है कि यदि इनकी गाड़ी किसी से भिड़ जाए तो उसका क्या हो! पता नहीं दिल्ली की भीड़-भाड़ में ट्रैफिक पुलिस इन्हें यह छूट कैसे देती है. शायद पैसे खाती है----- इसपर भी लिखा जाना चाहिए.
आपने सही लिखा है. जरूरत है इन दूधियों को एक ऐसी ट्रैन या वाहन की जो उनकी आवश्यकता के अनुरुप हो. विगत कई वर्षों से यह विचार करता रहा कि हमें अपनी जलवायुयिक विशिष्टता के अनुरूप साधनों का विकास करना चाहिए न कि दूसरे की नकल. जैसे कि आज तक भी डाकियों को उनकी कार्य की प्रकृति के अनुरूप डाक बांटने के लिए वाहन उपलब्ध नहीं कराया गया. सारे अनुसंधान केवल नकल से लगते हैं न कि अपनी आवश्यकता के लिए.
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