सोमवार, 15 अगस्त 2011

साम्राज्यवाद के बीच/ प्रकाश बेलवाड़ी


दोस्तो, फेसबुक से अपने मित्र प्रकाश बेलवाड़ी के एक विचारोत्तेजक लेख का हिन्दी रूपान्तर उसके मूल पाठ के साथ अपना दौर के इस अंक में दे रहा हूँ। यह लेख आज के दौर का पूरा आकलन हमारे सामने प्रस्तुत करता है। कृपया इस पर अपने विचार अवश्य जाहिर करें।बलराम अग्रवाल


साम्राज्यवाद के बीच/ प्रकाश बेलवाड़ी
भ्रष्टाचार के खिलाफ जन-सैलाब (जन्तर-मन्तर07-8-11 )चित्र : आदित्य अग्रवाल
(अन्ना के लिए उतना नहीं, जितना हममें से उनके लिए जो अन्ना में विश्वास रखना चाहते हैं)
भारत की आज़ादी के वक्त, 14 अगस्त, 1947 की आधी रात को जवाहरलाल नेहरू ने अपने सुप्रसिद्ध भाषण में कहा था—“इस समय, जबकि सारी दुनिया सो रही है, भारत जीवन और आज़ादी का उजाला देख रहा है।
उनके उद्बोधन पर उँगली उठाने का समय आ गया है। हमें भौगोलिक कल्पनाओं की बात नहीं करनी है। सो कौन रहा था? लंदन में उस समय बीतती गर्मियों की चहल-पहल भरी शाम और न्यूयॉर्क में चिलचिलाती दोपहर थी। जिस उजले जीवन और आजादी का वादा किया गया थावह कहाँ है?
नेहरू के वंशज और उनके चापलूस अब भ्रष्टाचार के खिलाफ न्याय पाने और एक बेहतर जीवनयापन के लिएआम आदमी के एकजुट होने की, विरोध दर्ज करने कीआज़ादी को नकार रहे हैं।
नेहरू ने वादा किया था कि आज के दिन हमारा ध्यान सबसे पहले इस आजादी के चितेरे, हमारे राष्ट्रपिता की ओर जाता है…। आजादी की इस मशाल को हम घनी आँधी या तूफान में कभी भी बुझने नहीं देंगे।
क्या हुआ? एक आदमी केन्द्र सरकार के घने अंधड़ के खिलाफ राष्ट्रपिता के सिद्धांतों की लड़ाई उनके सिद्धांतों पर चलते हुए लड़ रहा है।
इसका जवाब शायद दूसरे महान् भाषण में है जिसे फ्रेंकलिन डी॰ रूज़वेल्ट ने सन् 1936 में उस वक्त, जब अमरीका गहरे अवसाद से बाहर आ रहा था, दिया था और जिसे प्रारब्ध से मुलाकात नाम से जाना जाता है। कुछ पंक्तियाँ देखें
हमने सन् 1776 में उस राजनीतिक तानाशाही के चंगुल से, अठारहवीं सदी के उन राजभक्तों से जिन्हें शासकों का वरदहस्त प्राप्त था, छुटकारा पाया। यह तानाशाही शासितों की इच्छा के विरुद्ध उन पर शासन करने का सुख भोग रही थी। यह लोगों को एकजुट होने और अपने विचार प्रकट करने की इजाज़त नहीं देती थी। इसने ईश-पूजा पर रोक लगा दी थी। आम आदमी की सम्पत्ति और आम आदमी की जिन्दगी को इसने शासक-वंश के पंजों की जकड़ में पहुँचाने का धंधा कर रखा था। इसने लोगों को गुलाम बनाया हुआ था।
इस आधुनिक सभ्यता से अलग अर्थ-पिपासु राजभक्तों ने नये आका गढ़ लिए थे। भौतिक सम्पदा पर नियंत्रण के लिए नये केन्द्र स्थापित किए गये। कार्पोरेशनों, बैंकों और सिक्योरिटियों, इण्डस्ट्री और खेती-बाड़ी की नई मशीनरियों, मजदूरी और पूँजी के नये इस्तेमालों के द्वाराआकाओं ने अकूत धन कमाया। आधुनिक जीवन का सारा ढाँचा इस राजभक्ति के नीचे दबकर रह गया था।
यह स्वाभाविक और शायद मानवीय ही था कि इस नये अर्थ-तन्त्र के सुविधाभोगी राजकुमार, जो ताकत के प्यासे थे, सरकार पर नियंत्रण के लिए उसके सामने आ गये।
आम परिवार की बचत, छोटे व्यवसायियों की पूँजी, बुजुर्गों के लिए निवेश और दूसरे लोगों की पूँजी को एक ओर कर देनावे कारण थे जिनके चलते नये अर्थ-तन्त्र ने अपनी कब्र आप खोद ली।
जिन्होंने इस सब की जमीन तैयार की, वे उसका लाभ पाने को, जो उनका अधिकार था, हमारे बीच नहीं हैं। उनकी उपलब्धियों को उनके संघर्ष से अनजान लोगों ने कम आँका।
समूची जनता की सम्पत्ति पर, धन पर, श्रम पर, जीवन पर अधिकार जमाए रखने के लिए अपना ध्यान उन्होंने मुट्ठी-भर लोगों पर केन्द्रित रखा।…

जो बदल चुका है, यह है : हम प्रारब्ध से मुलाकात तय करने को महत्व नहीं दे रहे हैं। या, उससे मुलाकातेंदिल्ली, भुवनेश्वर, हैदराबाद, चेन्नै और बंगलौर के व्यवसाय में, राजनीति में, विलासितापूर्ण क्लबों में, साम्राज्यवादियों के लिए रिजर्व हैं?

यह पुन: संघर्ष का दौर है।



 originally posted in english by Mr. Prakash Belawadi on facebook  under head 'TRYST WITH DYNASTY':
(Not so much for Anna Hazare, but those of us who need to believe in him)

At India’s hour of birth, towards midnight on Aug 14, 1947, Jawaharlal Nehru said in his famous speech …”when the world sleeps, India will awake to life and freedom.”

The time has come to interrogate his notion. Let’s leave alone the geographical imagination. Who was sleeping? It was a crowded late summer evening in London and bright afternoon in New York. And where is this promised life and freedom?

Nehru’s heirs and their minions are now denying us this – the freedom to assemble, the freedom to protest – against corruption, for justice, for a better life.

Nehru promised in that tryst with destiny – “On this day our first thoughts go to the architect of this freedom, the Father of our Nation… We shall never allow that torch of freedom to be blown out, however high the wind or stormy the tempest.”
So what happened then? Here is a man fighting in the name of the Father of the Nation, adopting the Mahatma’s own tactics against the high wind the Union Government is full of.
“In 1776 we sought freedom from the tyranny of a political autocracy - from the eighteenth-century royalists who held special privileges from the crown. It was to perpetuate their privilege that they governed without the consent of the governed; that they denied the right of free assembly and free speech; that they restricted the worship of God; that they put the average man's property and the average man's life in pawn to the mercenaries of dynastic power; that they regimented the people.

“Out of this modern civilization economic royalists carved new dynasties. New kingdoms were built upon concentration of control over material things. Through new uses of corporations, banks and securities, new machinery of industry and agriculture, of labor and capital - all undreamed of by the Fathers - the whole structure of modern life was impressed into this royal service.

“It was natural and perhaps human that the privileged princes of these new economic dynasties, thirsting for power, reached out for control over government itself.

“The savings of the average family, the capital of the small-businessmen, the investments set aside for old age - other people's money - these were tools which the new economic royalty used to dig itself in.

“Those who tilled the soil no longer reaped the rewards which were their right. The small measure of their gains was decreed by men in distant cities.

“A small group had concentrated into their own hands an almost complete control over other people's property, other people's money, other people's labor - other people's lives.
Here is what has changed: we are not keeping appointments and trysts with destiny; rather, the appointments are reserved for dynasties – in businesses, politics and privileged clubs; in Delhi, Bhubaneshwar, Hyderabad, Chennai and Bangalore.

It’s time to fight again.

7 टिप्‍पणियां:

उमेश महादोषी ने कहा…

प्रकाश जी ने ठीक लिखा है, निष्चय ही यह संघर्श का दौर है। एक बार फिर आपातकाल की याद ताजा हो आई है। अपितु यह दौर तो आपातकाल से भी भयंकर लग रहा है। नेहरू एक चालाक किस्म के नेता थे, फिर भी उनमें कुछ शर्मोहया तो थी ही। आज के कांग्रसियों ने तो उसे बेच खाया है। और कांग्रेस ही क्यों, दूसरी तमाम राजनैतिक पार्टियां भी लगता है जोकरों और गुण्डों को आगे करके ही अपनी-अपनी भट्टी जला रही हैं। अजीब-अजीब तर्क गढ़े जा रहे हैं। जांच एजेन्सियों का इस्तेमाल नंगे नांच की तरह हो रहा है!किसी भी पार्टी के किसी भी नेता के चेहरे पर शिकन तक देखने को नहीं मिल रही है। सभी के भाषण ऐसे आ रहे हैं जैसे कोई सर्कस का शो चल रहा हो! सारे के सारे नेता भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं, पर बेचारे लड़ें तो तब न, जब कहीं भ्रष्टाचार हो! क्या खूब कहानी है इस राजनीति की!

प्रदीप कांत ने कहा…

यह संघर्षों का दौर ही है....। और हमारी शुभकामनाएँ शोषित को न्याय मिलने के पक्ष में है।

Rachana ने कहा…

sochne pr majboor karta sargarbhit lekh.praksh ji aur aapko bahut abhut badhai.
saader
rachana

Ila ने कहा…

यह संघर्ष का समय है किन्तु आम आदमी को अपनी हिस्सेदारी ठीक से समझनी होगी। लोकपाल बिल में यह प्रावधान होना चाहिये कि आवाज उठाने वाले को पूर्ण सुरक्षा भी मिले और लड़ने की सामर्थ्य भी वरना साधन हीन व्यक्ति भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ ही नहीं सकता।
सादर
इला

बलराम अग्रवाल ने कहा…

Suresh Yadav to me
show details 10:31 PM (11 hours ago)

इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए धन्यवाद और आन्दोलन में भाग लेने के लिए विशेष बधाई .

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

प्रिय बलराम,

प्रकाश बेलवाड़ी का आलेख आज के संदर्भ में बहुत ही महत्वपूर्ण है. मैं तुम्हें और लेखक को बधाई देता हूं.

रूपसिंह चन्देल

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

प्रिय बलराम,

प्रकाश बेलवाड़ी का यह आलेख आज के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है. तुम्हे और प्रकाश को मेरी हार्दिक बधाई.

रूपसिंह चन्देल