शनिवार, 20 जुलाई 2013

जितेन्द्रनाथ दास को याद करते हुए…/हंसराज रहबर


दोस्तो, फेसबुक पर भाई पंकज चतुर्वेदी द्वारा पोस्ट किये गये अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त के चित्र देखकर हंसराज रहबर द्वारा लिखित कुछ बातें अनायास ही याद हो आयीं। हंसराज रहबर (जन्म : 9 मार्च, 1913) का यह शताब्दी वर्ष चल रहा है। उन्हें याद करते हुए प्रस्तुत है उनकी आत्मकथा ‘मेरे सात जन्म’ दूसरे भाग से यह उल्लेखनीय अंश:

हंसराज रहबर
जितेन्द्रनाथ का नाम सुनकर अपढ़ से अपढ़ व्यक्ति के भी, जिसने कभी अख़बार छुआ तक नहीं था, कान खड़े हो जाते थे। इसीलिए मैं यह नाम बार-बार दोहरा रहा था और लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। अख़बार, जो बिकने थे, बिक चुके थे। लोग सिर्फ़ चुप खड़े सुन रहे थे और मेरी ओर देख रहे थे। मेरे शरीर में बिजली-सी कौंध गयी और मैं जोश में भरकर चिल्लाया, “हड़ताल का तिरसठवाँ दिन…जितेन्द्रनाथ दास की हालत नाज़ुक।”
      लोग देख रहे थे, सुन रहे थे और मैं उत्साह में भरा बोल रहा था। शायद मेरे अन्तर्मन में यह भाव काम कर रहा था कि अख़बार बिकें न बिकें, पर देशवासियों तक यह ख़बर पहुँच जाय कि हड़ताल तिरसठ दिन से चल रही है और क्रांतिकारी जान पर खेल रहे हैं।
स्टेशन से तीन हॉकर अख़बार लेकर एक-साथ चलते थे और वे तीनों एक अलिखित संधि अथवा परस्पर समझौते के अनुसार अलग-अलग रास्तों से शहर पहुँचते थे और अलग-अलग क्षेत्रों में अख़बार बेचते थे। इस संधि अथवा समझौते के अनुसार, मैं घंटाघर की ओर जाने की बजाय केसरगंज को घूम गया। बस अड्डे से चौक तक फर्लांग-डेढ़ फर्लांग का फासला था और सड़क बिल्कुल सूनी थी। कहीं-कहीं कोई आवारा ख़ारिशज़दा कुत्ता घूम रहा था अथवा कौवे, चिड़ियाँ इत्यादि पंछी उड़ रहे थे। बीच में एक सिनेमाघर था, व्ह भी इस समय बंद पड़ा था। प्राय: सड़क का यह टुकड़ा मैं चुपचाप पार कर लिया करता था; पर जब-से हड़ताल लंबी खिंची थी और जेल में जितेन्द्रनाथ दास और शिव वर्मा की हालत नाज़ुक होती जा रही थी, मुझ पर कुछ ऐसा जुनून-सा सवार हो गया था कि मैं यहाँ भी हाँक लगाता रहता था और आज भी लगा रहा था, “हड़ताल का तिरसठवाँ दिन…जितेन्द्रनाथ दास की हालत नाज़ुक।”
कोलतार की सड़क, सितम्बर का महीना और टीक दोपहरी की चिलचिलाती धूप। गालों से पसीना बहने लगा तो भी बायें बाजू पर अख़बार का बंडल रखे और बायें हाथ से पसीना पोंछते हुए मैं तेज़-तेज़ चल रहा था और हाँक लगा रहा था, “अख़बार! आज का ताज़ा अख़बार!!”  
साबुन बाज़ार पार करके जब मैं बड़े बाज़ार के चौक में आया तो मेरे पास चौदह-पंद्रह अख़बार ही शेष रह गये थे। इस बाज़ार में आठ-दस दुकानदार स्थायी ग्राहक थे। इसलिए चलते-फिरते ग्राहकों की की बजाय मुझे उन्हें अख़बार देना था। लेकिन हड़ताल का तिरेसठवाँ दिन था, जितेन्द्र(नाथ दास) और शिव वर्मा की हालत नाज़ुक थी और लोग क्रांतिकारियों के इस महान उत्सर्ग की कहानी पढ़ने-जानने के लिए उतावले थे। अख़बार का महत्व बढ़ गया था। पढ़ने वाले मेरे पीछे लपक रहे थे।
“अख़बार वाले, एक अख़बार मुझे देना।”
“और मुझे भी देना।”
कोई दस-बारह ग्राहक एक-साथ अख़बार माँग रहे थे। मैं चलते-चलते रुका और विनीत भाव से उत्तर दिया, “अब अख़बार नहीं है।”
“क्यों, ये हैं तो सही!”
“सिर्फ़ दो हैं।” मैंने अलग-अलग करके अख़बार दिखाये और कहा, “ये मुझे स्थायी गाहकों को देने हैं।”
“दुकान पर होंगे?” किसी ने पूछा।
“यह आप वहाँ जाकर मालूम कर लीजिए।” मैंने उत्तर दिया। साथ ही मेरे मन में विचार उठा कि चटपट दुकान पर पहुँचूँ। शायद बेचने के लिए कुछ अख़बार और मिल जायँ। वैसे इसकी संभावना कम थी। बढ़ रही माँग से स्पष्ट था कि अख़बार अब दुकान पर भी नहीं होंगे। तो भी, हाथ के अख़बार स्थायी ग्राहकों को दिये और मैं लंबे-लंबे डग भरता हुआ दुकान की ओर चला। दुकान बाज़ार के अंत में, बाइबिल सोसाइटी के सामने वाली नुक्कड़ पर स्थित थी। उस पर अमरसिंह नाम का अधेड़ व्यक्ति बैठता था।
मैं दुकान पर पहुँचा तो देखा कि वहाँ ग्राहकों की भीड़ लगी है। सभी एक स्वर में चिल्ला रहे थे, “हमें अख़बार दो, हमें अख़बार दो।”
“अख़बार अब नहीं रहे, नहीं रहे।” अमरसिंह के बार-बार समझाने का उन पर कुछ भी असर नहीं हो रहा था। जैसे उन्होंने अख़बार खरीद ले जाने की शपथ ग्रहण कर ली हो।
“तुम्हारे पास अख़बार है?” चार-पाँच व्यक्ति एक-साथ मेरी ओर लपके।
“सब बिक गये।” मैंने हाथ फैला दिये।
एक हफ्ता पहले हालत यह थी कि सारे बाज़ार में घूम जाने के बाद भी अख़बार काफी संख्या में बच जाते थे और मैं उन्हें बस-अड्डे, होटलों और अदालत में घूम-फिरकर बेचा करता था। कोई इक्का-दुक्का ग्राहक मिल जाता था तो बड़ी खुशी होती थी। आम तौर पर लोग मेरी आवाज़ पर कोई ध्यान नहीं देते थे, पास से यों चुपचाप गुज़र जाते थे जैसे अख़बार उनके लिए बेकार की चीज़ हो, अख़बार और देश की राजनीति से उनका कोई संबन्ध न हो! लेकिन यकायक हवा बदली तो ऐसी बदली कि लोगों के पास जाने की बजाय लोग खुद अख़बार खरीदने आते थे। दुकान के सामने भीड़ लगी थी। जानते थे कि अख़बार नहीं है और लाख माँगने पर भी नहीं मिलेगा। फिर भी, समवेत स्वर में चिल्ला रहे थे, “अख़बार दो, अख़बार दो।” और अमरसिंह उसी स्वर में सिर हिलाकर उत्तर दे रहा था, “नहीं है, नहीं है।”
दरअसल, यह देशभक्ति का, भूख हड़ताली क्रांतिकारियों के प्रति स्नेह और लगाव का प्रदर्शन था। जनसमूह की मुद्रा इस समय देखते ही बनती थी।
“देशवासियो!” एक तीखी आवाज़ ने सबको चौंका दिया।
बाईं ओर से एक ताँगा आता दिखाई पड़ा। ताँगे पर लाऊडस्पीकर लगा था और तिरंगा फहरा रहा था।
“देशवासियो! अभी-अभी ख़बर आयी है कि भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के साथी जितेन्द्रनाथ दास जेल में शहीद हो गये। उनकी भूख हड़ताल का यह तिरसठवाँ दिन था। फिरंगी के अत्याचार ने देश के एक-और सपूत की जान ले ली। इस अत्याचार के विरुद्ध शहर में हड़ताल रहेगी और शाम को रामलीला ग्राउंड में शोकसभा होगी।”
लोगों के चेहरे झुक गये और वे जाने किस सोच में डूब गये।
देखते ही देखते दुकानें बंद हो गयीं।
                                                                                                                             (प्रस्तुति:बलराम अग्रवाल)

3 टिप्‍पणियां:

Sp Sudhesh ने कहा…

रहबर जी की आत्मकथा का यह अंश पढ़ कर पता चला कि क़ान्तिकारियों
के प़ति जनता में कितनी संवेदना थी और यह भी कि रहबर जी कभी अख्बार
बेचा करते थे । आत्म कथा के और अंश छापें तो पढ़ूँगा ।

भगीरथ ने कहा…

marmsparshi sansmaran

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

ऐसे प्रसंग तो बार-बार सामने आने चाहिये । हर देशवासी के दिल-दिमाग में । समझें कि आजादी ऐसे ही नही मिल गई...। प्रेरक प्रसंग ।