खलील जिब्रान |
सिंहासन पर सो रही बूढ़ी रानी के आसपास
खड़े चार गुलाम पंखा झल रहे थे। वह खर्राटे ले रही थी और उसकी गोद में बैठी बिल्ली
म्याऊँ-म्याऊँ करती उनींदी आँखों से गुलामों को घूर रही थी।
पहला गुलाम बोला—“सोते हुए यह बुढ़िया
कितनी भद्दी दिखती है। इसका लटका हुआ मुँह देखो; और साँस तो ऐसे लेती हैं जैसे
शैतान ने इसका गला दबा रखा हो।”
बिल्ली ने म्याऊँ की
आवाज़ निकाली—“खुली आँखों इसकी गुलामी करते हुए जितने
बदसूरत तुम दिखते हो, सोते हुए यह उससे आधी भी बदसूरत नहीं दिखती है।”
दूसरे गुलाम ने कहा—“नींद के दौरान इसकी
झुर्रियाँ गहरी होने की बजाय सपाट हो जाती हैं। जरूर किसी साजिश का सपना देख रही
होगी।”
बिल्ली ने म्याऊँ की—“तुम्हें भी ऐसी नींद
लेनी चाहिए और आज़ादी का सपना देखना चाहिए।”
तीसरा गुलाम बोला—“इसके द्वारा मारे गये
लोग जुलूस की शक्ल में इसके सपनों में आ रहे होंगे।”
और बिल्ली ने म्याऊँ
की—“ए, जुलूस की शक्ल में
यह तुम्हारे पुरखों ही नहीं, आने वाली संतानों को भी देख रही है।”
चौथे गुलाम ने कहा—“इसके बारे में बातें
करना अच्छा लगता है; लेकिन इससे खड़े होकर पंखा झलने की मेरी थकान पर तो कोई फर्क
पड़ता नहीं है।”
बिल्ली ने म्याऊँ की—“तुम-जैसे लोगों को तो
अनन्त-काल तक पंखा झलते रहना चाहिए; सिर्फ धरती पर ही नहीं, स्वर्ग में भी।”
रानी की गरदन एकाएक नीचे को झटकी और
उसका मुकुट जमीन पर जा पड़ा।
गुलामों में से एक कह उठा—“यह तो अपशकुन है।”
बिल्ली बोली—“एक के लिए अपशकुन
दूसरों के लिए शकुन होता है।”
दूसरा गुलाम बोला—“जागने पर इसने अगर
अपने सिर पर मुकुट नहीं पाया तो हमारी गरदनें उड़वा देगी।”
बिल्ली ने कहा—“तुम्हें पता ही नहीं
है कि जब से पैदा हुए हो, यह रोजाना तुम्हारी गरदन उड़वाती है।”
तीसरे गुलाम ने कहा—“ठीक कहते हो। यह
देवताओं को हमारी बलि देने के नाम पर हमारा कत्ल करा देगी।”
बिल्ली बोली—“देवताओं के आगे केवल
कमजोरों की बलि दी जाती है।”
तभी चौथे गुलाम ने सबको चुप हो जाने का
इशारा किया। उसने मुकुट को उठाया और इस सफाई के साथ कि रानी की नींद न टूटे, उसे
उसके सिर पर टिका दिया।
बिल्ली ने म्याऊँ की—“एक गुलाम ही गिरे हुए
मुकुट को पुन: राजा के सिर पर टिका सकता है।”
कुछ पल बाद बूढ़ी रानी जाग उठी। इधर-उधर
देखते हुए उसने जम्हाई ली और बोली—“लगता है मैंने सपना
देखा—मैंने देखा कि एक
बिच्छू चार कीड़ों को बलूत के एक बहुत पुराने पेड़ के तने के चारों ओर दौड़ा रहा है।
यह सपना मुझे अच्छा नहीं लगा।”
यों कहकर उसने आँखें मूँदीं और दोबारा सो
गई। खर्राटे फिर से शुरू हो गये और चारों गुलामों पुन: पंखा झलने लगे।
और बिल्ली घुरघुराई—“झलते रहो, झलते रहो
मूर्खो। नहीं जानते कि तुम उस आग की ओर पंखा झल रहे हो जो तुम्हें जलाकर खाक करती
है।”
(मेधा बुक्स द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'खलील जिब्रान' से)
2 टिप्पणियां:
यार, बहुत ही सुन्दर लघुकथा तुमने पोस्ट की है. सुबह के छः बजे हैं और दिन की शुरूआत इतनी लघुकथा पढ़ने से हुई---तुम्हें बधाई.
चन्देल
बहुत सुन्दर लघुकथा. पढ़कर आनन्द आ गया. अनुवाद भी गज़ब का. सुबह के छः बजे हैं. इस लघुकथा को पढ़कर दिन की शुरूआत अच्छी होगी.
चन्देल
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