आज ‘शब्द साधक’आदरणीय
अरविंद जी का जन्मदिन है। कल उनका एस॰एम॰एस॰ मिला था। लिखा था—‘बापू आसाराम के कहने का मतलब है कि अपहरण करके
लंका ले जाते समय सीता रावण को यदि ‘भैय्या’ कह देतीं तो लंका का युद्ध टल सकता था।’
गूगल से साभार |
दरअसल दिल्ली गैंगरेप के संदर्भ में टीवी पर
आसाराम की टिप्पणी को देखकर उसके लिए सम्मान की भावना मन में रह जाने का कोई सवाल
ही नहीं रह जाता। मैं उसके और स्त्रीविरोधी उसके समस्त अनुयायियों के अवलोकनार्थ
वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड से यह प्रकरण उद्धृत कर रहा हूँ जो तत्कालीन रावण
के चरित्र को अंशत: उद्घाटित करता है। मेरा मानना है कि हर बलात्कारी रावण का ही
अंश है और उसके लिए मृत्युदण्ड से कम की सज़ा का प्रावधान भारतीय दण्ड संहिता में
नहीं होना चाहिए:
गूगल से साभार |
अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित निशाचरों की वह
विशाल सेना कुछ ही देर में गहरी नींद में सो गई। परंतु महापराक्रमी रावण उस पर्वत
के शिखर पर चुपचाप बैठकर चन्द्रमा की चाँदनी से चमकते उस पर्वत के विभिन्न स्थानों
की नैसर्गिक छटा को निहारने लगा। इसी बीच समस्त अप्सराओं में श्रेष्ठ सुन्दरी
रम्भा उस मार्ग से आ निकली। वह पूरी तरह सजी हुई थी। वह सेना के बीच से होकर जा
रही थी, इसलिए रावण ने उसे देख लिया। देखते ही वह काम के अधीन हो गया और खड़ा होकर
उसने जाती हुई रम्भा का हाथ पकड़ लिया। वह लाज से गड़ गई, परन्तु रावण मुस्कराता हुआ
बोला—“सुन्दरी! किसके भाग्य के
उदय का समय आया है, जो तुम स्वयं चलकर जा रही हो? इन्द्र, उपेन्द्र या
अश्विनीकुमार ही क्यों न हों, इस समय कौन पुरुष मुझ रावण से बढ़कर है? इस समय तुम
रावण को छोड़कर कहीं और जाओ, यह अच्छी बात नहीं है।”
रावण का नाम सुनने मात्र से रम्भा के रोंगटे
खड़े हो गए। वह काँप उठी और हाथ जोड़कर बोली—“प्रभो! मुझ पर कृपा कीजिए। आपको ऐसी बात मुँह से नहीं
निकालनी चाहिए क्योंकि आप मेरे पिता के समान हैं। यदि कोई दूसरा पुरुष मेरा
तिरस्कार करे तो उससे भी आपको मेरी रक्षा करनी चाहिए। मैं धर्मत: आपकी पुत्रवधू
हूँ—यह आपसे सच्ची बात बता रही
हूँ।”
उसकी बात सुनकर रावण ने उससे कहा—“यदि यह सिद्ध हो जाय कि तुम मेरे पुत्र की
पत्नी हो, तभी मेरी पुत्र-वधू हो सकती हो, अन्यथा नहीं।”
इस पर रम्भा ने कहा—“राक्षसशिरोमणि! धर्म के अनुसार मैं आपके पुत्र की ही
पत्नी हूँ। आपके बड़े भाई कुबेर के पुत्र नलकूबर मेरे प्रियतम हैं। इस समय मैं
उन्हीं से मिलने जा रही हूँ।”
रम्भा की इस बात पर रावण ने उससे कहा—“रम्भे! पुत्र-वधू वाला नाता उन स्त्रियों पर
लागू होता है, जो किसी एक पुरुष की पत्नी हों। तुम्हारे देवलोक की स्थिति ही दूसरी
है। वहाँ सदा से यही नियम चला आ रहा है कि अप्सराओं का कोई पति नहीं होता। वहाँ
कोई एक स्त्री के साथ विवाह करके नहीं रहता।”
यों कहकर राक्षस ने रम्भा को जबर्दस्ती एक
शिला पर बैठा लिया और उसके साथ समागम किया। रम्भा के पुष्पहार टूटकर गिर गए, सारे
आभूषण अस्त-व्यस्त हो गए। उपभोग के बाद रावण ने रम्भा को छोड़ दिया। वह अत्यन्त
व्याकुल हो उठी। उसके हाथ काँपने लगे। लज्जा और भय से काँपती हुई वह नलकूबर के पास
गई और हाथ जोड़कर उसके पैरों पर गिर पड़ी। उसे इस अवस्था में देखकर नलकूबर ने पूछा—“रम्भे! क्या बात है? तुम इस तरह क्यों मेरे
पैरों पर पड़ गयीं?”
थर-थर काँपती उस अबला ने लंबी साँस खीचकर पुन:
हाथ जोड़ लिए और जो कुछ हुआ था, सब ठीक-ठीक बताना शुरू कर दिया—“देव! बहुत बड़ी सेना साथ लेकर दशमुख रावण
देवलोक पर आक्रमण करने के लिए आया है। उसने आज की रात यहीं डेरा डाला है। आपके पास
आते हुए उसने मुझे देख लिया और मेरा हाथ पकड़कर पूछने लगा—तुम किसकी स्त्री हो? मैंने सब-कुछ उसे सच-सच बता
दिया, लेकिन उसने मेरी वह बात नहीं सुनी। मैं बार-बार कहती रही कि मैं आपकी
पुत्र-वधू हूँ; लेकिन मेरी सारी बातें अनसुनी करके उसने बलपूर्वक मेरे साथ
अत्याचार किया।”
7 टिप्पणियां:
आदरणीय अग्रवाल जी
सादर वंदन
एक अर्से के बाद एक संवेदनशील मुद्दे पर आपकी पोस्ट देखकर अच्छा लगा. आपने रावण के संदर्भ से स्त्री उत्पीड़न के मुददे को उठाया है. अच्छा लगा. आसाराम बापू कहलाने लायक नहीं हैं. मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि स्त्री उत्पीड़न का मुद्दा नया नहीं है. आपने रावण का उदाहरण दिया. पता नहीं देवराज इंद्र को आपने क्यों भुला दिया. अहल्या का बलात्कार करने के बाद भी उनके देवराज पद पर आंच तक नहीं आती. मेरा मानना है कि स्त्री सम्मान का मुद्दा केवल पौराणिक संदर्भों की दुहाई देने से संभव नहीं हो सकता. आसाराम, ठाकरे या कोई और नेता या कथावाचक वही कह रहे हैं, जो उन्होंने सामंतवादी संस्कार से भरपूर शास्त्रों में पढ़ा है. वे स्मृतियों से प्रेरणा लेने वाले लोग हैं—अतःपरंप्रवक्ष्यामि स्त्री शूद्रपतनानि च/जपस्तपस्तीर्थयात्रा प्रव्रज्यामन्त्रसाधनम्।। अत्रि स्मृति १३३. स्त्री सम्मान और स्वाधीनता का मुद्दा आधुनिक है, इसलिए वह ऐसे ही समाज में संभव है जो समाज आधुनिक भाव—बोध से संपन्न हो.
परंपरा की दुहाई देकर इस समस्या का समाधान शायद ही संभव हो. हां, उस समय तक ऐसी कोशिश तो कर ही सकते हैं.
सुन्दर और सामयिक टिप्पणी है।
आ॰ कश्यप जी, मुझे लगता है कि इस लेख में मैंने स्त्री-समस्या को छुआ ही नहीं है, केवल काम-प्रेरित हिंसक मानसिकता को इंगित किया है और यह बताने का प्रयास किया है कि यह मानसिकता नैतिक दुहाई को नहीं सुनती। यह कथा वाल्मीकि से ली है अत: इन्द्र और अहल्या के बारे में भी उन्हीं के माध्यम से निवेदन है कि इन्द्र उसमें पर-स्त्रीगमन करता है उसी की सहमति से। इसमें गौतम व अन्य समुदाय की मानसिकता पर जितना आक्षेप किया जा सकता है, अहल्या पर उतना नहीं। लेकिन अहल्या के उद्धार को भी आखिरकार सम्भव बनाया ही गया यह कहकर मैं पुरुषवादी ब्राह्मण ग्रंथों का समर्थन नहीं कर रहा हूँ। काल की गति धीमी होती है, लेकिन वह होती अवश्य है। टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
प्रिय बलराम,
तुमने लिखा कि आसाराम के प्रति अब सम्मान का भाव मन में शेष नहीं रहा. लगता है पहले तुम्हारे मन में उसके सम्मान भाव था. इसका अर्थ यह कि उसकी धूर्तताओं की जानकारी तुम्हे नहीं थी. उस व्यक्ति का संदर्भ रावण के साथ जोड़ना उसे बड़ा बनाना है. रावण के विषय में बाल्मीकि रामायण का जो उद्धरण तुमने दिया है वह प्रक्षिप्त प्रतीत होता है. रामवादियों ने रावण की जो छवि बनायी यह उसका परिणाम है. कश्यप जी से सहमत हूं. इंद्र ने अहिल्या के साथ वही सब किया और दूसरे कितने ही देवताओं/ऋषियों ने यह सब किया---रावण अहंकारी तो था लेकिन लंपट नहीं. यदि ऎसा होता तो सीता कैसे बच आती. यदि वे इस धरती में जन्मे थे तो वे मानव ही थे. रावण के अपने सिद्धान्त थे---जबकि राम ने सिद्धान्तों की बखिया उधेड़ी है. बहुस्त्रीवादी होने के आरोप मनीषियों ने राम पर भी लगाए हैं, लेकिन हम इतना राममय हैं कि राम की त्रुटियां हमें दिखाई नहीं देतीं. सीता के साथ राम ने जो अत्याचार किया उसके विषय में क्या कहेंगे. धोबी आदि के नाम पर उनके अत्याचारों को छुपाया गया है.
रूपसिंह चन्देल
उदहारण सटीक है। आजकल के ये संत भी सत्ता के नशे में डूबे राजनेता हो गए हैं। मुश्किल यह है जनता के वोट भी इन्हें ही मिलते हैं।
ये बाबा लोग बाबागिरी या यों कहे चमत्कारी बनने की आड़ में जनता और जनता के नुमईन्दो की आँख में धुल झोंक कर चल और अचल सम्पति पर कब्जा जमाये हुए है .. सच आसाराम ही नहीं और भी बाबा लोग है जो बाबा क्या सच्चे आदमी कहलाने लायक नहीं है। जनता धर्मान्धता के भांग के कुए में ऐसी डूब चुकी है की बाबाओ को उध्दारक मान चुकी है। क्या ऐसी अंध भक्ति जन और राष्ट्रहित में हो सकती .हम बाबाओ में अंध आस्था रखने वालो को विचार कारन होगा की जिस बाबा की जय जयकार कर रहे है क्या ये बाबा उसका हकदार भी है।।।।।।। डाँ नन्द लाल भारती 19.01.2013
रावण अहंकारी तो था लेकिन लंपट नहीं। यदि ऎसा होता तो सीता कैसे बच आती?--चंदेल जी, क्या आपको नहीं लगता कि यह कथन रामवादियों का ही है। सीता को बचाए रखने के लिए रामवादियों ने रावण की जो छवि बनायी यह उसका परिणाम है? बहरहाल, कथा को जिस उद्देश्य से उद्धृत किया था यह बहस उसका हिस्सा नहीं है।
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